श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 10: विभूति योग | Bhagwat Geeta Chapter 10

श्रीमद्भागवत गीता का दसवां अध्याय “विभूति योग” कहलाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपनी दिव्य विभूतियों (अर्थात् श्रेष्ठ शक्तियों, विशेषताओं और महिमाओं) का वर्णन करते हैं। यह अध्याय ईश्वर की व्यापकता, सर्वव्यापकता और समस्त सृष्टि में उसकी उपस्थिति को दर्शाता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 10: विभूति योग (Bhagwat Geeta Chapter 10)

श्रीमद् भागवत गीता का दसवां अध्याय, “विभूति योग” है। यह अध्याय 42 श्लोकों में विभाजित है। इस अध्याय की शुरुआत अर्जुन के एक प्रश्न से होती है।

वह भगवान से निवेदन करता है कि वे अपने अलौकिक स्वरूप और विभूतियों को विस्तार से बताएं ताकि वह और भी अधिक श्रद्धा और भक्ति से भगवान को जान सके। भगवान श्रीकृष्ण अपने उत्तर में न केवल स्वयं को ब्रह्म (परमात्मा) के रूप में प्रकट करते हैं, बल्कि इस समस्त जगत में अपने विभिन्न रूपों और शक्तियों को भी स्पष्ट करते हैं।

श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच।
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥1॥

अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण बोले: “हे महाबाहु (बलशाली) अर्जुन! अब तू मुझसे पुनः वह परम वचन सुन, जिसे मैं तेरे प्रति स्नेहवश और तेरे कल्याण की इच्छा से कह रहा हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में दसवें अध्याय की शुरुआत करते हैं, जिसमें वे अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन करेंगे। अर्जुन को “महाबाहु” कहकर उनकी शक्ति और योग्यता को सम्मान देते हैं। “भूय एव” (पुनः) पिछले उपदेशों की निरंतरता दर्शाता है, और “परमं वचः” उनके वचनों की सर्वोच्चता को रेखांकित करता है। श्रीकृष्ण यह उपदेश अर्जुन के प्रति प्रेम (“प्रीयमाणाय”) और उनके कल्याण की कामना (“हितकाम्यया”) से दे रहे हैं। यह श्लोक गुरु-शिष्य के प्रेमपूर्ण संबंध को दर्शाता है और अर्जुन को भगवान की महिमा समझने के लिए तैयार करता है।

श्लोक 2

न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः ।
अहमादिहि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥2॥

अर्थ: “देवगण और महान ऋषि भी मेरी उत्पत्ति को नहीं जानते, क्योंकि मैं ही समस्त देवताओं और महर्षियों का आदि (प्रारंभ) हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी अनादि और सर्वोच्च प्रकृति को प्रकट करते हैं। वे कहते हैं कि देवता और महर्षि भी उनकी उत्पत्ति को नहीं जान सकते, क्योंकि वे स्वयं इनके मूल कारण हैं। यह श्लोक भगवान की अनंतता और सृष्टि के आधार होने को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि श्रीकृष्ण परम सत्य हैं, जो भक्ति और श्रद्धा को प्रेरित करता है।

श्लोक 3

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्येषु सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥3॥

अर्थ: “जो मनुष्य मुझे जन्मरहित, अनादि और समस्त लोकों के ईश्वर के रूप में जानता है, वह मोह से रहित होकर सभी पापों से मुक्त हो जाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो उन्हें अजन्मा, अनादि और लोकों के सर्वोच्च ईश्वर के रूप में जानता है, वह अज्ञान और भ्रम से मुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति सभी पापों से छुटकारा पाता है। यह श्लोक भगवान के सच्चे स्वरूप को समझने के महत्व को दर्शाता है, जो आध्यात्मिक शुद्धता और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। यह अर्जुन को पूर्ण समर्पण की प्रेरणा देता है।

श्लोक 4

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।
सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभ्यमेव च ॥4॥

अर्थ: “बुद्धि, ज्ञान, मोह से रहित होना, क्षमा, सत्य, इन्द्रिय-निग्रह, मन का संयम, सुख, दुःख, उत्पत्ति और विनाश, भय और अभय—ये सब मुझसे उत्पन्न है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि बुद्धि, ज्ञान, क्षमा, सत्य जैसे गुण और सुख-दुःख, भय-अभय जैसी अवस्थाएँ उनसे ही उत्पन्न होती हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो सृष्टि की प्रत्येक मानसिक और भौतिक अवस्था का स्रोत हैं। यह अर्जुन को यह समझाता है कि संसार का प्रत्येक तत्व भगवान का अंश है, जिससे भक्ति और समर्पण की भावना बढ़ती है।

श्लोक 5

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः ।
भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥5॥

अर्थ: “अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, यश और अपयश – ये विविध प्रकार के भाव भी प्राणियों में मुझसे ही उत्पन्न होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि अहिंसा, समता, संतुष्टि, तप, दान, यश और अपयश जैसे प्राणियों के भाव उनसे ही उत्पन्न होते हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को रेखांकित करता है, जो प्राणियों की नैतिक और मानसिक अवस्थाओं का स्रोत हैं। यह अर्जुन को यह समझाता है कि सभी गुण और भाव भगवान के अंश हैं, जिससे वह उनकी महिमा को समझकर भक्ति को गहरा कर सकता है।

श्लोक 6

महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥6॥

अर्थ: “सात प्राचीन महर्षि और चार मनु, जो मेरे मन से उत्पन्न हुए, उनसे ही इस संसार की समस्त प्रजा उत्पन्न हुई है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि सात महर्षि और चार मनु उनके मानसिक संकल्प से उत्पन्न हुए। इनसे संसार की समस्त प्रजा का विस्तार हुआ। यह श्लोक भगवान को सृष्टि का मूल कारण दर्शाता है, जो उनकी सर्वोच्च शक्ति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि सृष्टि का प्रत्येक प्राणी भगवान से उत्पन्न है, जिससे उनकी महिमा और भक्ति की भावना बढ़ती है।

श्लोक 7

विभूति योग एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकल्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः ॥7॥

अर्थ: “जो मनुष्य मेरी इन विभूतियों और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है, वह अचल योग में स्थिर हो जाता है — इसमें कोई संदेह नहीं है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो उनकी दिव्य विभूतियों और योग शक्ति को यथार्थ रूप से समझता है, वह अटल भक्ति योग में संनादति है। यह श्लोक भगवान के स्वरूप को जानने के आध्यात्मिक फल को दर्शाता है, जो भक्त को दृढ़ भक्ति और ईश्वर से एकत्व की ओर ले जाता है। यह अर्जुन को प्रेरित करता है कि भगवान की महिमा को समझकर वह स्थिर और अविचलित भक्ति प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 8

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥8॥

अर्थ: “मैं ही समस्त सृष्टि का उद्गम हूँ; मुझसे ही सब कुछ प्रकट हुआ है। यह जानकर ज्ञानीजन प्रेमपूर्वक और भावनापूर्वक मेरी भक्ति करते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सृष्टि के मूल कारण हैं और सब कुछ उनसे ही प्रवर्तित होता है। इस सत्य को समझकर बुद्धिमान लोग प्रेम और श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में लीन हो जाते हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वोच्चता और भक्ति के महत्व को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान को सृष्टि का आधार मानकर भक्ति करने से आध्यात्मिक उन्नति होती है।

श्लोक 9

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥9॥

अर्थ: “मुझमें मन और प्राण लगाए हुए भक्तजन, एक-दूसरे को ज्ञान देते हैं और मेरी कथाएँ करते हुए सदा संतुष्ट रहते हैं और आनंदित होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि उनके भक्त उनके प्रति पूर्ण समर्पित रहते हैं। वे आपस में भगवान के गुणों और लीलाओं का वर्णन करते हैं, जिससे उन्हें निरंतर संतुष्टि और आनंद प्राप्त होता है। यह श्लोक भक्ति के सामूहिक और आनंदमय स्वरूप को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान का स्मरण और कथन भक्तों के जीवन को आध्यात्मिक आनंद से भर देता है, जो भक्ति का मूल आधार है।

श्लोक 10

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥10॥

अर्थ: “जो भक्त प्रेमपूर्वक निरंतर मेरी सेवा में लगे रहते हैं, उन्हें मैं वह बुद्धियोग देता हूँ जिससे वे मुझे प्राप्त कर सकें।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त निरंतर और प्रेमपूर्वक उनकी भक्ति करते हैं, उन्हें वे बुद्धियोग (आध्यात्मिक बुद्धि) प्रदान करते हैं। यह बुद्धि भक्तों को भगवान तक पहुँचने में सहायता करती है। यह श्लोक भगवान की कृपा और भक्ति के परिणाम को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि सच्ची भक्ति से भगवान स्वयं मार्गदर्शन करते हैं, जो भक्त को परम लक्ष्य (मोक्ष) तक ले जाता है।

श्लोक 11

तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः ।नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥11॥

अर्थ: “उन पर विशेष कृपा करने के लिए मैं उनके हृदय में स्थित होकर ज्ञानरूपी प्रकाश के द्वारा अज्ञानजनित अंधकार का नाश करता हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे अपने भक्तों के हृदय में निवास करके उनके अज्ञानजनित अंधकार को ज्ञान के दीपक से नष्ट करते हैं। यह श्लोक भगवान की अनुकम्पा और उनके मार्गदर्शन को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भक्ति के माध्यम से भगवान स्वयं भक्त के भीतर ज्ञान का प्रकाश जागृत करते हैं, जो अज्ञान को दूर कर मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।

श्लोक 12

अर्जुन उवाच।
परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान् ।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम् ॥12॥

अर्थ: “अर्जुन बोले — आप परम ब्रह्म हैं, परम धाम हैं, परम पवित्र हैं। आप शाश्वत पुरुष, दिव्य, आदि देव, जन्मरहित और सर्वव्यापक हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करते हैं। वे उन्हें परम ब्रह्म, परम धाम, पवित्र, शाश्वत, दिव्य, आदि देव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते हैं। यह श्लोक अर्जुन की श्रद्धा और भगवान के प्रति उनके गहरे विश्वास को दर्शाता है। यह भगवान के सर्वोच्च स्वरूप को स्वीकार करता है, जो अर्जुन के आध्यात्मिक बोध को प्रकट करता है और भक्ति योग के मार्ग को और सुदृढ़ करता है।

श्लोक 13

आहुस्त्वामृषयः सर्वे देवर्षि रदस्तथा।
असितो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीषि मे ॥13॥

अर्थ: “आपको सब ऋषि, देवर्षि नारद, असित, देवल और व्यास जी परम पुरुष कहते हैं, और स्वयं भी आप मुझसे ऐसा ही कहते हैं।”

व्याख्या: अर्जुन कहते हैं कि नारद, असित, देवल, व्यास जैसे महान ऋषि और स्वयं श्रीकृष्ण उनके परम सत्य और सर्वोच्च स्वरूप की घोषणा करते हैं। यह श्लोक अर्जुन की श्रद्धा और उनके विश्वास को दर्शाता है, जो ऋषियों के वचनों और श्रीकृष्ण के उपदेशों पर आधारित है। यह भगवान की महिमा की प्रामाणिकता को रेखांकित करता है, जो अर्जुन को भक्ति और समर्पण के मार्ग पर और दृढ़ करता है।

श्लोक 14

सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥14॥

अर्थ: “हे केशव! जो कुछ भी आप मुझसे कह रहे हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ, क्योंकि हे भगवन्! न तो देवता और न ही दैत्यगण आपकी दिव्य महिमा को पूरी तरह जान सकते हैं।”

व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण के उपदेशों को पूर्ण सत्य स्वीकार करते हैं और उनकी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण का स्वरूप इतना गहन है कि देवता और दानव भी इसे पूरी तरह नहीं समझ सकते। यह श्लोक अर्जुन के विश्वास और भगवान की अनंतता को दर्शाता है। यह भक्ति के मार्ग में पूर्ण समर्पण और विश्वास के महत्व को रेखांकित करता है, जो अर्जुन को आध्यात्मिक बोध की ओर ले जाता है।

श्लोक 15

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम ।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥15॥

अर्थ: “हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपने को भलीभांति जानते हैं, क्योंकि आप समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के कारण, समस्त प्राणियों के स्वामी, देवों के भी देव और सम्पूर्ण जगत के अधिपति हैं।”

व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम, भूतों के सृजनकर्ता और जगत के स्वामी कहकर उनकी सर्वोच्चता की स्तुति करते हैं। वे कहते हैं कि केवल श्रीकृष्ण ही अपने पूर्ण स्वरूप को जानते हैं। यह श्लोक भगवान की अनंतता और आत्म-ज्ञान को दर्शाता है। अर्जुन का यह कथन उनकी भक्ति और विस्मय को प्रकट करता है, जो भक्त के लिए भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण और श्रद्धा के महत्व को रेखांकित करता है।

श्लोक 16

वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः।याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥16॥

अर्थ: “आप कृपापूर्वक अपनी समस्त दिव्य विभूतियों का विस्तार से वर्णन करने योग्य हैं, जिनसे आप इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हैं।”

व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से उनकी समस्त दिव्य विभूतियों का वर्णन करने का अनुरोध करते हैं, जिनके द्वारा वे समस्त लोकों में व्याप्त हैं। यह श्लोक अर्जुन की जिज्ञासा और भक्ति को दर्शाता है, जो भगवान की सर्वव्यापकता को समझने की उनकी इच्छा को प्रकट करता है। यह भक्त के लिए भगवान की महिमा को जानने और उनके प्रति श्रद्धा बढ़ाने के महत्व को रेखांकित करता है, जो आध्यात्मिक प्रगति का आधार है।

श्लोक 17

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥17॥

अर्थ: “हे योगेश्वर! मैं आपको किस प्रकार सदा ध्यान में रखकर जान सकूं? हे भगवन्! आप किन-किन रूपों में मेरी चिन्तना के योग्य हैं?”

व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि वे उन्हें सदा चिंतन करते हुए कैसे जान सकते हैं और किन भावों में उनका ध्यान करना चाहिए। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति और जिज्ञासा को दर्शाता है, जो भगवान की महिमा को निरंतर स्मरण करने की उनकी इच्छा को प्रकट करता है। यह भक्त के लिए भगवान के स्वरूप को विभिन्न रूपों में चिंतन करने और भक्ति को गहरा करने के महत्व को रेखांकित करता है।

श्लोक 18

विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन ।
भूयः कथय तृप्तिर्हि शृण्वतो नास्ति मेऽमृतम् ॥18॥

अर्थ: “हे जनार्दन! आप अपनी योगशक्ति और दिव्य विभूतियों को विस्तार से फिर से कहिए, क्योंकि मैं आपके अमृततुल्य वचनों को सुनकर कभी तृप्त नहीं होता।”

व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि वे उन्हें सदा चिंतन करते हुए कैसे जान सकते हैं और किन भावों में उनका ध्यान करना चाहिए। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति और जिज्ञासा को दर्शाता है, जो भगवान की महिमा को निरंतर स्मरण करने की उनकी इच्छा को प्रकट करता है। यह भक्त के लिए भगवान के स्वरूप को विभिन्न रूपों में चिंतन करने और भक्ति को गहरा करने के महत्व को रेखांकित करता है।

श्लोक 19

श्रीभगवानुवाच।
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥19॥

अर्थ: “भगवान श्रीकृष्ण बोले — हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन! अब मैं तुझे अपनी दिव्य विभूतियाँ मुख्य रूप से बताऊँगा, क्योंकि मेरी विभूतियों का विस्तार अन्त नहीं है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन के अनुरोध पर अपनी दिव्य विभूतियों का वर्णन शुरू करते हैं। वे कहते हैं कि उनकी विभूतियाँ अनंत हैं, परंतु वे प्रमुख विभूतियों का वर्णन करेंगे। यह श्लोक भगवान की अनंतता और सर्वव्यापकता को दर्शाता है। यह अर्जुन की भक्ति और जिज्ञासा को सम्मान देता है, साथ ही भक्तों को यह समझाता है कि भगवान की महिमा असीम है, जो उनकी भक्ति को और गहरा करने में सहायता करता है।

श्लोक 20

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥20॥

अर्थ: “हे गुडाकेश (नींद पर विजय प्राप्त करने वाले अर्जुन)! मैं समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ। मैं ही समस्त भूतों का आदि, मध्य और अंत हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में विश्व में व्याप्त हैं और सृष्टि के आदि, मध्य व अंत हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता और सृष्टि के आधार होने को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक प्राणी के भीतर और सृष्टि के प्रत्येक चरण में उपस्थित हैं, जो भक्त की श्रद्धा और भक्ति को और गहरा करता है।

श्लोक 21

आदित्यानामहं विष्णुर्योतिषां रविरंशुमान्।मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥21॥

अर्थ: “मैं आदित्यों में विष्णु हूँ, प्रकाशों में सूर्य हूँ, मरुतों (पवनों) में मरीचि हूँ और नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी प्रमुख विभूतियों का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि वे आदित्यों में विष्णु, ज्योतियों में सूर्य, मरुतों में मरीचि, और नक्षत्रों में चंद्रमा हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वोच्चता को प्रकट करता है, जो सृष्टि की उत्कृष्ट वस्तुओं में उनकी उपस्थिति को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक श्रेष्ठ तत्व में विद्यमान हैं, जिससे भक्ति और श्रद्धा बढ़ती है।

श्लोक 22

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥22॥

अर्थ: “मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इन्द्र (वासव) हूँ, इन्द्रियों में मन हूँ और सभी प्राणियों में चेतना हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन जारी रखते हैं। वे कहते हैं कि वे वेदों में सामवेद, देवताओं में इंद्र, इंद्रियों में मन, और प्राणियों में चेतना हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो ज्ञान, शक्ति, और चेतना के स्रोत हैं। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान सृष्टि के प्रत्येक उत्कृष्ट और सूक्ष्म तत्व में उपस्थित हैं, जो भक्त की भक्ति को और प्रबल करता है।

श्लोक 23

रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥23॥

अर्थ: “रुद्रों में मैं शंकर हूँ, यक्षों और राक्षसों में मैं कुबेर (वित्तेश) हूँ, वसुओं में अग्नि (पावक) हूँ और पर्वतों में मेरु हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे रुद्रों में शंकर, यक्ष-राक्षसों में कुबेर, वसुओं में अग्नि, और पर्वतों में मेरु हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वोच्चता को दर्शाता है, जो सृष्टि की विभिन्न श्रेणियों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक उत्कृष्ट और शक्तिशाली तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की श्रद्धा और भक्ति को और गहरा करता है।

श्लोक 24

पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥24॥

अर्थ: “हे पार्थ! पुरोहितों में मुझे बृहस्पति जान, सेनानायकों में मैं कार्तिकेय (स्कन्द) हूँ, और जलराशियों में समुद्र हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे पुरोहितों में बृहस्पति, सेनानायकों में स्कंद (कार्तिकेय), और जलाशयों में सागर हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो सृष्टि के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक उत्कृष्ट और प्रभावशाली तत्व में विद्यमान हैं, जिससे भक्त की भक्ति और श्रद्धा और प्रबल होती है।

श्लोक 25

महर्षीणां भृगुरहं गिरामरम्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥25॥

अर्थ: “महर्षियों में मैं भृगु हूँ, वाणियों में एकाक्षर (ॐ) हूँ, यज्ञों में मैं जप-यज्ञ हूँ और स्थावरों (अचल वस्तुओं) में मैं हिमालय पर्वत हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे महर्षियों में भृगु, वाणी में ॐ, यज्ञों में जपयज्ञ, और अचल वस्तुओं में हिमालय हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो ज्ञान, पवित्रता, और प्रकृति की उत्कृष्टता में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक श्रेष्ठ तत्व में विद्यमान हैं, जिससे भक्त की भक्ति और श्रद्धा बढ़ती है।

श्लोक 26

अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥26॥

अर्थ: “सभी वृक्षों में मैं अश्वत्थ (पीपल) हूँ, देवर्षियों में नारद हूँ, गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे वृक्षों में अश्वत्थ, देवर्षियों में नारद, गंधर्वों में चित्ररथ, और सिद्धों में कपिल मुनि हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो प्रकृति, आध्यात्मिकता, और सिद्धि में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान सृष्टि के प्रत्येक उत्कृष्ट तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और गहरा करता है।

श्लोक 27

उच्चैः श्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥27॥

अर्थ: “घोड़ों में मैं अमृत से उत्पन्न उच्चैःश्रवा हूँ, हाथियों में ऐरावत हूँ और मनुष्यों में राजा हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे अश्वों में उच्चैःश्रवा, गजेंद्रों में ऐरावत, और मनुष्यों में राजा हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वोच्चता को दर्शाता है, जो सृष्टि की उत्कृष्ट और शक्तिशाली वस्तुओं में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक श्रेष्ठ तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की श्रद्धा और भक्ति को और प्रबल करता है।

श्लोक 28

आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥28॥

अर्थ: “हथियारों में मैं वज्र (इन्द्र का शस्त्र) हूँ, गायों में कामधेनु हूँ, सन्तान उत्पत्ति कराने वालों में कामदेव हूँ और सर्पों में वासुकि हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे आयुधों में वज्र, गायों में कामधेनु, प्रजनन में कामदेव, और सर्पों में वासुकि हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो शक्ति, समृद्धि, और सृष्टि की प्रक्रियाओं में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक उत्कृष्ट तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और गहरा करता है।

श्लोक 29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥29॥

अर्थ: “नागों में मैं अनन्त हूँ, जलचरों में वरुण हूँ, पितरों में अर्यमा हूँ और संयम करने वालों में यमराज हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे नागों में अनंत, जलचरों में वरुण, पितरों में अर्यमा, और नियंत्रकों में यम हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो सृष्टि की विभिन्न श्रेणियों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक शक्तिशाली और प्रभावशाली तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और प्रबल करता है।

श्लोक 30

प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम् ।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम् ॥30॥

अर्थ: “दैत्यगणों में मैं प्रह्लाद हूँ, समय को गिनने वालों में काल हूँ, पशुओं में सिंह हूँ और पक्षियों में गरुड़ (वैनतेय) हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे दैत्यों में प्रह्लाद, गणना करने वालों में काल, पशुओं में सिंह, और पक्षियों में गरुड़ हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वोच्चता को दर्शाता है, जो सृष्टि की विभिन्न श्रेणियों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक उत्कृष्ट और शक्तिशाली तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और गहरा करता है।

श्लोक 31

पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥31॥

अर्थ: “प्रवाहित होने वालों में मैं पवन हूँ, शस्त्रधारियों में मैं राम हूँ, मछलियों में मैं मकर हूँ, और नदियों में मैं गंगा हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे पवन में वायु, शस्त्रधारियों में राम, मछलियों में मकर, और नदियों में गंगा हैं। यह श्लोक भगवान की सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो प्रकृति, शक्ति, और पवित्रता के उत्कृष्ट तत्वों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक श्रेष्ठ तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और गहरा करता है।

श्लोक 32

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥32॥

अर्थ: “हे अर्जुन! सृष्टियों में मैं आदि, मध्य और अंत हूँ। विद्याओं में आत्मा का ज्ञान (अध्यात्मविद्या) हूँ, और वाद करने वालों में तर्कयुक्त वाद हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सृष्टि के आदि, मध्य, और अंत हैं, विद्याओं में अध्यात्म विद्या, और वाद-विवाद में तर्क हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता और सर्वोच्चता को दर्शाता है, जो सृष्टि के चक्र और ज्ञान के उच्चतम रूप में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक महत्वपूर्ण तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और आध्यात्मिक बोध को और प्रबल करता है।

श्लोक 33

अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥33॥

अर्थ: “अक्षरों में मैं ‘अ’ वर्ण हूँ, समासों में द्वंद्व समास हूँ, मैं ही अविनाशी काल हूँ और मैं ही सब ओर मुख करके रचना करने वाला (सृष्टिकर्ता) हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अक्षरों में ‘अ’, समास में द्वंद्व, अविनाशी काल, और सर्वदिशात्मक सृष्टिकर्ता हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता और अनंतता को दर्शाता है, जो भाषा, समय, और सृष्टि के मूल में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक सूक्ष्म और महान तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और सृष्टि के प्रति श्रद्धा को और गहरा करता है।

श्लोक 34

मृत्युः सर्वहरश्चाहमुद्भवश्च भविष्यताम् ।
कीर्तिः श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृतिः क्षमा ॥34॥

अर्थ: “मैं सबका नाश करने वाला मृत्यु हूँ और उत्पत्ति का कारण भी हूँ। स्त्रियों में कीर्ति, श्री (ऐश्वर्य), वाणी, स्मृति, मेधा (बुद्धि), धैर्य और क्षमा हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे मृत्यु, भविष्य की उत्पत्ति, और नारियों में कीर्ति, श्री, वाक्, स्मृति, मेधा, धृति, और क्षमा हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो जीवन, मृत्यु, और मानवीय गुणों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान सृष्टि के प्रत्येक तत्व और उत्कृष्ट गुण में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और प्रबल करता है।

श्लोक 35

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम् ।
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः ॥35॥

अर्थ: “सामवेद के मंत्रों में मैं बृहत्साम हूँ, छंदों में गायत्री हूँ, महीनों में मार्गशीर्ष (अगहन) हूँ और ऋतुओं में वसंत ऋतु हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सामवेद में बृहत्साम, छंदों में गायत्री, मासों में मार्गशीर्ष, और ऋतुओं में वसंत हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो ज्ञान, पवित्रता, और प्रकृति की सुंदरता में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान सृष्टि के प्रत्येक उत्कृष्ट और शुभ तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और सृष्टि के प्रति श्रद्धा को और गहरा करता है।

श्लोक 36

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥36॥

अर्थ: “छल करने वालों में मैं जुआ (द्यूत) हूँ, तेजस्वियों में तेज हूँ, मैं विजय हूँ, प्रयत्न (उद्योग) हूँ और सात्त्विक व्यक्तियों में सात्त्विकता हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे छल में द्यूत, तेजस्वियों में तेज, विजय, प्रयास, और सात्विकों में सत्त्व हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो शक्ति, सफलता, और गुणों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान सृष्टि के प्रत्येक प्रभावशाली और सात्विक तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को और प्रबल करता है।

श्लोक 37

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः ।मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविः ॥37॥

अर्थ: “वृष्णिवंशियों में मैं वासुदेव (श्रीकृष्ण) हूँ, पाण्डवों में अर्जुन (धनञ्जय) हूँ। मुनियों में मैं वेदव्यास हूँ और कवियों में शुक्राचार्य (उशना) हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वे वृष्णियों में वासुदेव, पाण्डवों में अर्जुन, मुनियों में व्यास, और कवियों में उशना हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो मानव, विद्वान, और सृजनात्मक शक्ति के उत्कृष्ट रूपों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक श्रेष्ठ व्यक्तित्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और गहरा करता है।

श्लोक 38

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥38॥

अर्थ: “दंड देने वालों में मैं दंड हूँ, विजय चाहने वालों में नीति हूँ। रहस्यों में मैं मौन हूँ और ज्ञानी जनों में ज्ञान हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे दमन में दण्ड, विजय की इच्छा में नीति, गुप्तता में मौन, और ज्ञानियों में ज्ञान हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो न्याय, रणनीति, गोपनीयता, और बुद्धि के उत्कृष्ट रूपों में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक प्रभावशाली और सूक्ष्म तत्व में विद्यमान हैं, जो भक्त की भक्ति और आध्यात्मिक बोध को और प्रबल करता है।

श्लोक 39

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ॥39॥

अर्थ: “हे अर्जुन! समस्त प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। ऐसा कोई भी चर या अचर (जड़ या चेतन) नहीं है, जो मुझसे रहित हो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे सभी प्राणियों के मूल बीज हैं और कोई भी चर-अचर प्राणी उनके बिना अस्तित्व में नहीं हो सकता। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता और सृष्टि के आधार होने को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान प्रत्येक प्राणी और तत्व के मूल में हैं, जो सृष्टि की एकता और भगवान की सर्वोच्चता को प्रकट करता है, जिससे भक्त की भक्ति और श्रद्धा और गहरी होती है।

श्लोक 40

नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप ।
एष तूद्देशतः प्रोक्तो विभूतेर्विस्तरो मया ॥40॥

अर्थ: “हे परंतप अर्जुन! मेरी दिव्य विभूतियों का कोई अंत नहीं है। मैंने तो यहां संक्षेप में ही अपने विभूतियों का विस्तार कहा है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी दिव्य विभूतियाँ अनंत हैं और उनका पूर्ण वर्णन असंभव है। उन्होंने केवल प्रमुख विभूतियों का संक्षिप्त वर्णन किया है। यह श्लोक उनकी अनंतता और सर्वव्यापकता को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान की महिमा असीम है और सृष्टि का प्रत्येक तत्व उनकी विभूति का अंश है, जो भक्त की भक्ति और विस्मय को और गहरा करता है।

श्लोक 41

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥41॥

अर्थ: “जो भी वस्तु विभूति युक्त, शोभा युक्त और प्रभावशाली है, उसे तू मेरा ही तेज़ समझ — वह मेरे तेज का ही अंश है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि सृष्टि में जो कुछ भी वैभवशाली, श्री-संपन्न, या शक्तिशाली है, वह सब उनके तेज के अंश से उत्पन्न है। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जो सृष्टि की प्रत्येक उत्कृष्ट वस्तु में उनकी उपस्थिति को प्रकट करता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान का तेज सृष्टि के प्रत्येक श्रेष्ठ तत्व में व्याप्त है, जो भक्त की भक्ति और श्रद्धा को और प्रबल करता है।

श्लोक 42

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥42॥

अर्थ: “हे अर्जुन! तू इतना जान लेना कि मैं अपने एक अंश से ही इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड को धारण करके स्थित हूँ — फिर इतने विस्तार को जानकर क्या करोगे?”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी अनंत विभूतियों को पूर्णतः जानने की आवश्यकता नहीं। वे अपने एक अंश से ही समस्त जगत को धारण करते हैं। यह श्लोक उनकी अनंतता और सर्वोच्चता को दर्शाता है। यह अर्जुन को यह समझाता है कि भगवान की शक्ति का एक छोटा सा अंश ही सृष्टि को संचालित करता है, जो भक्त की भक्ति, विस्मय, और समर्पण को और गहरा करता है।

श्रीमद् भागवत गीता के दसवें अध्याय सारांश

दसवां अध्याय, जिसे विभूति योग कहा जाता है, श्रीकृष्ण की दिव्य विभूतियों और उनकी सर्वव्यापकता का वर्णन करता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वे सृष्टि के आदि, मध्य, और अंत हैं, और सभी उत्कृष्ट तत्वों, जैसे सूर्य, चंद्रमा, गंगा, हिमालय, वेद, और गुणों (ज्ञान, सत्त्व, तेज) में विद्यमान हैं।

वे अपनी अनंत विभूतियों का संक्षिप्त वर्णन करते हैं, जो सृष्टि के प्रत्येक श्रेष्ठ और शक्तिशाली रूप में उनकी उपस्थिति को दर्शाता है। अर्जुन उनकी महिमा को स्वीकार कर उनकी भक्ति में लीन होने की इच्छा व्यक्त करते हैं।

यह अध्याय भक्तों को भगवान की सर्वोच्चता और भक्ति के महत्व को समझने की प्रेरणा देता है, जो आध्यात्मिक बोध और समर्पण को गहरा करता है।