श्रीमद्भागवत गीता का ग्यारहवें अध्याय “विश्वरूप दर्शन योग” कहलाता है। इस इस ग्रंथ के सबसे रहस्यमय और अद्भुत अध्यायों में से एक है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने विराट रूप का दर्शन कराते हैं – वह रूप जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाहित है। यह अध्याय न केवल अर्जुन के दृष्टिकोण को बदलता है, बल्कि पाठक को भी ईश्वर की व्यापकता और शक्ति का अनुभव कराता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 11: विश्वरूप दर्शन योग (Bhagwat Geeta Chapter 11)
श्रीमद् भागवत गीता का ग्यारहवें अध्याय, “विश्वरूप दर्शन योग” है। यह अध्याय 55 श्लोकों में विभाजित है। गीता के दसवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अपनी विभूतियों और योग शक्ति का वर्णन करते हैं, जिससे अर्जुन के मन में उनके दिव्य स्वरूप को देखने की जिज्ञासा जागृत होती है।
ग्यारहवें अध्याय की शुरुआत में अर्जुन प्रार्थना करते हैं कि वे श्रीकृष्ण के उस अनंत रूप को देखना चाहते हैं, जिसके बारे में उन्होंने सुना है। श्रीकृष्ण का विश्वरूप दर्शन न केवल अर्जुन के संदेहों को दूर करता है, बल्कि उन्हें जीवन, मृत्यु और कर्म की गहरी समझ प्रदान करता है।
श्लोक 1
अर्जुन उवाच।
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥1॥
अर्थ: अर्जुन ने कहा – “हे भगवन्! आपने मुझ पर जो महान अनुग्रह किया है, और जो आत्मा (अध्यात्म) के विषय में परम गोपनीय वचन कहे हैं, उन्हें सुनकर मेरा मोह (संशय) दूर हो गया है।”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने उन्हें जो गोपनीय आध्यात्मिक ज्ञान दिया, उससे उनके मन का भ्रम दूर हो गया है। यह भ्रम मुख्य रूप से युद्ध और कर्तव्य से संबंधित संदेहों को दर्शाता है। यह श्लोक अर्जुन की आध्यात्मिक प्रगति और श्रीकृष्ण के उपदेशों के प्रभाव को दिखाता है, जो विश्वरूप दर्शन की ओर ले जाता है।
श्लोक 2
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वत्तः कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् ॥2॥
अर्थ: “हे कमलनयन श्रीकृष्ण! आपने जिन जीवों के उत्पत्ति और प्रलय की विस्तृत रूप से बात कही है, वह सब मैंने सुन लिया है और साथ ही आपका अविनाशी महात्म्य भी जाना है।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण को “कमलपत्राक्ष” (कमल जैसे नेत्रों वाला) कहकर संबोधित करते हैं और स्वीकार करते हैं कि उन्होंने पिछले अध्यायों में श्रीकृष्ण से सृष्टि के उत्पत्ति-विनाश और उनके अविनाशी स्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया है। यह श्लोक अर्जुन की जिज्ञासा को और गहरा करता है, जो विश्वरूप दर्शन की ओर ले जाता है।
श्लोक 3
एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥3॥
अर्थ: “हे परमेश्वर! आपने अपने विषय में जो कुछ कहा है, वह सब सत्य है। हे पुरुषोत्तम! अब मैं आपका वह ऐश्वर्ययुक्त दिव्य रूप देखना चाहता हूँ।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण के परमेश्वर होने को स्वीकार करते हैं और उनकी महिमा पर विश्वास व्यक्त करते हैं। वे अपनी इच्छा जाहिर करते हैं कि वे श्रीकृष्ण के दिव्य और ऐश्वर्यपूर्ण विश्वरूप को देखना चाहते हैं। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति और विश्वरूप दर्शन की प्रबल इच्छा को दर्शाता है।
श्लोक 4
मन्यसे यदि तच्छक्यं मया द्रष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥4॥
अर्थ: “हे प्रभु! यदि आप समझते हैं कि मैं आपके उस रूप को देखने के योग्य हूँ, तो हे योगेश्वर! कृपया मुझे अपना अविनाशी स्वरूप दिखाइए।”
व्याख्या: अर्जुन विनम्रता के साथ श्रीकृष्ण से अनुरोध करते हैं कि यदि वे उनके विश्वरूप को देखने के योग्य हैं, तो श्रीकृष्ण उन्हें वह दर्शन दें। “योगेश्वर” संबोधन श्रीकृष्ण की सर्वोच्च योगशक्ति को दर्शाता है। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति और समर्पण की भावना को प्रकट करता है।”
श्लोक 5
श्रीभगवानुवाच।
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः।नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥5॥
अर्थ: श्रीभगवान ने कहा – “हे पार्थ! अब तुम मेरे सैकड़ों और हजारों प्रकार के दिव्य रूपों को देखो, जो विविध वर्णों, आकारों और रूपों वाले हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार करते हैं और उन्हें अपने अनंत और विविध दिव्य रूपों को देखने के लिए आमंत्रित करते हैं। यह श्लोक विश्वरूप दर्शन की शुरुआत का संकेत देता है, जहाँ श्रीकृष्ण अपने सर्वव्यापी और बहुरूपी स्वरूप को प्रकट करने वाले हैं।
श्लोक 6
पश्यादित्यान्वसूरुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥6॥
अर्थ: “हे भारत! तुम आदित्यों को, वसुओं को, रुद्रों को, अश्विनीकुमारों को और मरुद्गणों को देखो तथा और भी पहले कभी न देखे गए मेरे अद्भुत रूपों को देखो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने विश्वरूप में विभिन्न देवताओं और दिव्य शक्तियों को देखने के लिए कहते हैं। वे उन चमत्कारों का उल्लेख करते हैं, जो अर्जुन ने पहले कभी नहीं देखे। यह श्लोक विश्वरूप की विशालता और उसकी अलौकिक प्रकृति को रेखांकित करता है।
श्लोक 7
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्रष्टुमिच्छसि ॥7॥
अर्थ: “हे गुडाकेश (नींद को जीतने वाले अर्जुन)! अब मेरे इस एक शरीर में सम्पूर्ण चराचर जगत को, और वह सब कुछ जिसे तुम देखना चाहते हो, देखो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने शरीर में संपूर्ण विश्व, जिसमें चर (जीवित) और अचर (निर्जन) सब कुछ शामिल है, को एक साथ देखने के लिए कहते हैं। “गुडाकेश” (निद्रा पर विजय पाने वाला) संबोधन अर्जुन की सजगता को दर्शाता है। यह श्लोक विश्वरूप की सर्वसमावेशी प्रकृति को दर्शाता है, जिसमें सृष्टि का हर अंश समाहित है।
श्लोक 8
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥8॥
अर्थ: “तुम मुझे अपने इन सामान्य नेत्रों से नहीं देख सकते। इसलिए मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूँ। अब तुम मेरे ऐश्वर्ययुक्त योग को देखो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि उनकी साधारण मानव आँखें विश्वरूप को देखने में असमर्थ हैं। इसलिए, वे अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं, जो उन्हें श्रीकृष्ण के ऐश्वर्यपूर्ण और अलौकिक स्वरूप को देखने में सक्षम बनाती है। यह श्लोक विश्वरूप दर्शन के लिए आवश्यक आध्यात्मिक तैयारी को दर्शाता है।
श्लोक 9
सञ्जय उवाच।
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्वरो हरिः ।
दर्शयामास पार्थाय परमं रूपमैश्वरम् ॥9॥
अर्थ: संजय ने कहा – “हे राजन्! इसके बाद महायोगेश्वर भगवान हरि ने अर्जुन को अपना परम ऐश्वर्ययुक्त दिव्य रूप दिखाया।”
व्याख्या: संजय, जो धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र की घटनाओं का वर्णन कर रहे हैं, बताते हैं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार की और उन्हें अपना विश्वरूप दिखाया। “महायोगेश्वर” और “हरि” जैसे संबोधन श्रीकृष्ण की सर्वोच्च शक्ति और दैवीय स्वरूप को रेखांकित करते हैं। यह श्लोक विश्वरूप दर्शन की शुरुआत का चिह्न है।
श्लोक 10
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥10॥
अर्थ: “उस रूप में अनेक मुख और नेत्र थे, अनेक अद्भुत दृश्य थे, अनेक दिव्य आभूषणों से सुसज्जित था, और अनेक प्रकार के दिव्य शस्त्र-आयुध उस रूप में थे।”
व्याख्या: यह श्लोक विश्वरूप के अलौकिक स्वरूप का प्रारंभिक वर्णन करता है। अर्जुन श्रीकृष्ण के विश्वरूप को देखते हैं, जिसमें अनंत मुख, नेत्र, और आश्चर्यजनक दृश्य हैं। यह रूप दिव्य आभूषणों और शस्त्रों से सुशोभित है, जो इसकी अनंतता और भव्यता को दर्शाता है।
श्लोक 11
योग दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यमन्धानुलेपनम्।सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥11॥
अर्थ: “वह रूप दिव्य मालाएँ और वस्त्र धारण किए हुए था, दिव्य गंधों से सुशोभित था, और सम्पूर्ण आश्चर्य से परिपूर्ण, अनंत, और चारों ओर मुख वाला दिव्य देवस्वरूप था।”
व्याख्या: विश्वरूप का वर्णन और विस्तृत होता है। यह रूप दिव्य वस्त्रों, मालाओं, और सुगंधों से अलंकृत है, जो इसकी पवित्रता और भव्यता को दर्शाता है। यह अनंत और सर्वदिशात्मक है, जो ईश्वर की सर्वव्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता को प्रकट करता है।
श्लोक 12
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥12॥
अर्थ: “यदि आकाश में एक साथ हजार सूर्यों का प्रकाश उदित हो जाए, तो भी वह चमक उस महान आत्मा (भगवान के रूप) की ज्योति के समान नहीं हो सकती।”
व्याख्या: यह श्लोक विश्वरूप के तेज की अतुलनीयता का वर्णन करता है। संजय कहते हैं कि विश्वरूप का तेज इतना प्रचंड है कि हजारों सूर्यों का एक साथ उदय होना भी उसकी चमक की बराबरी नहीं कर सकता। यह ईश्वर की असीम शक्ति और महिमा को दर्शाता है।
श्लोक 13
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥13॥
अर्थ: “उस समय पाण्डव अर्जुन ने उस एक ही शरीर में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अनेक रूपों में विभाजित होकर स्थित देखा, वह देवों के देव (भगवान श्रीकृष्ण) का विराट रूप था।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण के विश्वरूप में संपूर्ण विश्व को एक स्थान पर देखते हैं, जिसमें सृष्टि के सभी तत्व और प्राणी अनेक रूपों में विभक्त हैं। यह श्लोक विश्वरूप की सर्वसमावेशी प्रकृति को दर्शाता है, जो सृष्टि के हर अंश को अपने में समेटे हुए है।
श्लोक 14
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनञ्जयः ।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताञ्जलिरभाषत ॥14॥
अर्थ: “उस समय धनंजय (अर्जुन) अत्यन्त विस्मित और रोमांचित होकर, सिर झुकाकर प्रभु को नमस्कार करते हुए, हाथ जोड़कर बोले।”
व्याख्या: विश्वरूप का दर्शन करने के बाद अर्जुन आश्चर्य और भक्ति से अभिभूत हो जाते हैं। उनके शरीर में रोमांच हो जाता है, और वे श्रीकृष्ण के सामने विनम्रता से सिर झुकाकर प्रणाम करते हैं। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति और विश्वरूप के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाता है।
श्लोक 15
अर्जुन उवाच।
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान्।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थ-मृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥15॥
अर्थ: अर्जुन ने कहा – “हे देवों के देव! मैं आपके शरीर में समस्त देवताओं को और विभिन्न प्रकार के प्राणियों के समूहों को देख रहा हूँ, कमलासन ब्रह्माजी को, शंकरजी को, और सब ऋषियों को तथा दिव्य सर्पों को भी देख रहा हूँ।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप में सृष्टि के सभी तत्वों को देखते हैं, जिसमें देवता, प्राणी, ब्रह्मा, शिव, ऋषि, और दिव्य नाग शामिल हैं। यह श्लोक विश्वरूप की सर्वसमावेशी प्रकृति को दर्शाता है, जो सृष्टि के प्रत्येक अंश को अपने में समेटे हुए है।
श्लोक 16
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरुप ॥16॥
अर्थ: “हे विश्वरूप! मैं आपके शरीर में अनेक भुजाएँ, पेट, मुख और नेत्र देख रहा हूँ। हे विश्वेश्वर! मैं आपके किसी अंत, मध्य या आरम्भ को नहीं देख पा रहा हूँ।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप की अनंतता का वर्णन करते हैं, जिसमें अनगिनत भुजाएँ, मुख, और नेत्र हैं। वे इस रूप के आदि, मध्य, या अंत को नहीं देख पाते, जो श्रीकृष्ण की अनंत और असीम प्रकृति को दर्शाता है। यह श्लोक ईश्वर की सर्वव्यापकता को रेखांकित करता है।
श्लोक 17
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं चतेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥17॥
अर्थ: “मैं आपको मुकुटधारी, गदा और चक्रधारी, चारों ओर से प्रकाशमान, अत्यन्त तेजस्वी देख रहा हूँ। आप सब ओर से दीप्त अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी हैं, और आपका दर्शन करना अत्यन्त कठिन है।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप को मुकुट, गदा, और चक्र सहित तेजोमय रूप में देखते हैं। यह रूप इतना प्रखर है कि इसे देखना कठिन है, जैसे सूर्य और अग्नि का तेज। यह श्लोक विश्वरूप की अपरिमेय शक्ति और दैवीय तेज को दर्शाता है।
श्लोक 18
त्वमक्षरं परमं वेदितव्यंत्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
त्वमव्ययः शाश्वतधर्मगोप्तासनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे ॥18॥
अर्थ: “आप ही वह अक्षर (अविनाशी) परम तत्व हैं जिसे जानना चाहिए। आप इस सम्पूर्ण विश्व के परम आश्रय हैं। आप अविनाशी हैं, सनातन धर्म के रक्षक हैं, और आप सनातन पुरुष हैं — ऐसा मेरा मत है।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण को परम तत्व, विश्व का आधार, और शाश्वत धर्म का रक्षक मानते हैं। वे उन्हें सनातन और अविनाशी पुरुष के रूप में स्वीकार करते हैं। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति और श्रीकृष्ण के प्रति उनके पूर्ण विश्वास को दर्शाता है।
श्लोक 19
अनादिमधयान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुं शशिसूर्यनेत्रम् ।
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥19॥
अर्थ: “मैं आपको अनादि, अमध्य (मध्यरहित), अनंत अंतविहीन, असंख्य भुजाओं वाले, चंद्र-सूर्य को नेत्र रूप में धारण किए हुए, अग्नि-जैसे मुख वाले तथा अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत को तपाने वाले देख रहा हूँ।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप को अनादि, अनंत, और अनंत शक्ति से युक्त देखते हैं। इसके अनंत भुजाएँ, चंद्र-सूर्य जैसे नेत्र, और अग्नि जैसे मुख हैं। यह रूप अपने तेज से संपूर्ण विश्व को प्रकाशित करता है। यह श्लोक विश्वरूप की अलौकिक और सर्वोच्च प्रकृति को दर्शाता है।
श्लोक 20
द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥20॥
अर्थ: “हे महात्मन्! आपने अकेले ही आकाश और पृथ्वी के बीच के स्थान को और सभी दिशाओं को व्याप्त कर रखा है। आपके इस अद्भुत और भयंकर रूप को देखकर तीनों लोक भयभीत हो रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप की सर्वव्यापकता का वर्णन करते हैं, जो स्वर्ग, पृथ्वी, और सभी दिशाओं को अपने में समेटे हुए है। यह उग्र और अद्भुत रूप इतना भयावह है कि समस्त तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल) इससे भयभीत हैं। यह श्लोक विश्वरूप की असीम शक्ति और भयावहता को दर्शाता है।
श्लोक 21
अमी हि त्वां सुरसङ्घा विशन्तिकेचिद्भीताः प्राञ्जलयो गृणन्ति ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महर्षिसिद्धसङ्घाःस्तुवन्ति त्वां स्तुतिभिः पुष्कलाभिः ॥21॥
अर्थ: “देवताओं के समूह आपके इस रूप में प्रवेश कर रहे हैं। कुछ भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपका नाम जप रहे हैं। मुनि और सिद्धों के समुदाय ‘स्वस्ति’ (कल्याण हो) कहकर आपको अनेक उत्तम स्तुतियों द्वारा स्तुति कर रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन देखते हैं कि देवता, ऋषि, और सिद्ध विश्वरूप के समक्ष आ रहे हैं। कुछ भय से काँपते हुए और कुछ भक्ति से स्तुति करते हैं। यह श्लोक विश्वरूप के प्रति सृष्टि के विभिन्न प्राणियों की भक्ति और भय मिश्रित प्रतिक्रिया को दर्शाता है।
श्लोक 22
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गन्धर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घा वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥22॥
अर्थ: “रुद्रगण, आदित्य, वसु, साध्यगण, विश्वेदेव, अश्विनीकुमार, मरुतगण, पितरगण, गंधर्व, यक्ष, असुर और सिद्धों के समूह सभी विस्मित होकर आपकी ओर देख रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप में विभिन्न दैवीय और अलौकिक प्राणियों को देखते हैं, जो सभी आश्चर्य और विस्मय के साथ श्रीकृष्ण के इस रूप को निहार रहे हैं। यह श्लोक विश्वरूप की व्यापकता और उसकी सर्वत्र प्रभावशाली उपस्थिति को दर्शाता है।
श्लोक 23
रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो बहुबाहूरुपादम् ।बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥23॥
अर्थ: “हे महाबाहो! आपके इस विराट रूप को – जिसमें अनेक मुख, नेत्र, भुजाएँ, जंघाएँ, चरण, पेट और भयंकर दाढ़ें हैं – देखकर समस्त लोक भयभीत हो उठे हैं और मैं भी भयभीत हूँ।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के भयावह स्वरूप का वर्णन करते हैं, जिसमें अनगिनत मुख, नेत्र, भुजाएँ, और भयानक दाँत हैं। यह रूप इतना डरावना है कि न केवल तीनों लोक, बल्कि स्वयं अर्जुन भी इससे भयभीत हैं। यह श्लोक विश्वरूप की उग्रता को रेखांकित करता है।
श्लोक 24
नभः स्पृशं दीप्तमनेकवर्णं व्यात्ताननं दीप्तविशालनेत्रम्।
दृष्ट्ववा हि त्वां प्रव्यथितान्तरात्मा धृतिं न विन्दामि शमं च विष्णो ॥24॥
अर्थ: “हे विष्णु! आकाश को स्पर्श करने वाला, अनेक रंगों से युक्त, विकराल मुख वाला और प्रज्वलित विशाल नेत्रों वाला आपका रूप देखकर मेरा अन्तःकरण भय से व्याकुल हो गया है। मैं धैर्य और शांति नहीं पा रहा हूँ।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप को आकाश को छूने वाला, बहुरंगी, और विशाल नेत्रों व खुले मुखों वाला देखते हैं। यह दृश्य इतना भयावह है कि अर्जुन का मन अशांत हो जाता है, और वे धैर्य व शांति खो देते हैं। यह श्लोक विश्वरूप के प्रचंड स्वरूप और अर्जुन की भयमिश्रित अवस्था को दर्शाता है।
श्लोक 25
दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥25॥
अर्थ: “आपके मुख, जो विकराल दाढ़ों वाले हैं और कालाग्नि के समान प्रज्वलित हैं, उन्हें देखकर मैं दिशाओं को नहीं पहचान पा रहा हूँ और न ही मुझे कोई शांति मिल रही है। हे देवों के स्वामी! हे सम्पूर्ण जगत के आश्रय! कृपा कीजिए।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के भयानक मुखों को देखते हैं, जो काल की अग्नि जैसे हैं। यह दृश्य उन्हें इतना भयभीत करता है कि वे दिशाहीन और अशांत हो जाते हैं। वे श्रीकृष्ण से कृपा करने की प्रार्थना करते हैं। यह श्लोक अर्जुन के भय और भक्ति के मिश्रित भाव को दर्शाता है।
श्लोक 26
अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसङ्घः ।
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥26॥
अर्थ: “मैं देख रहा हूँ कि धृतराष्ट्र के ये सभी पुत्र, पृथ्वी के राजाओं के समूहों सहित, भीष्म, द्रोण, कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रमुख योद्धा — सब के सब आपके अंदर प्रवेश कर रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के भयानक स्वरूप में कौरवों, उनके सहयोगी राजाओं, भीष्म, द्रोण, कर्ण, और यहाँ तक कि पांडव पक्ष के योद्धाओं को इसके मुख में प्रवेश करते देखते हैं। यह श्लोक विश्वरूप के संहारक स्वरूप को दर्शाता है, जो युद्ध के परिणाम को प्रकट करता है।
श्लोक 27
वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्गः॥27॥
अर्थ: “वे सब अत्यन्त वेग से आपके विकराल दाढ़ों वाले भयानक मुखों में प्रवेश कर रहे हैं। कुछ के सिर आपके दाँतों के बीच फँसे हुए दिखाई दे रहे हैं और वे चूर्णित हो रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के भयावह मुखों का वर्णन करते हैं, जिनमें योद्धा तेजी से प्रवेश कर रहे हैं। कुछ योद्धाओं के सिर इसके दाँतों के बीच चूर्णित हो रहे हैं। यह श्लोक विश्वरूप के कालस्वरूप और युद्ध की अनिवार्यता को दर्शाता है।
श्लोक 28
यथा नदीनां बहवोऽम्बुवेगाः समुद्रमेवाभिमुखा द्रवन्ति।
तथा तवामी नरलोकवीरा विशन्ति वक्त्राण्यभिविज्वलन्ति ॥28॥
अर्थ: “जिस प्रकार बहुत सी नदियाँ अपने वेग से समुद्र की ओर दौड़ती हैं, उसी प्रकार ये नरलोक के वीर भी आपके प्रज्वलित मुखों में प्रवेश कर रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के मुखों की तुलना समुद्र से करते हैं, जिसमें योद्धा नदियों के जल की तरह प्रवेश कर रहे हैं। यह उपमा विश्वरूप के संहारक स्वरूप की विशालता और अनिवार्यता को दर्शाती है, जो सभी को अपने में समाहित कर लेता है।
श्लोक 29
यथा प्रदीप्तं ज्वलनं पतङ्गा विशन्ति नाशाय समृद्धवेगाः।
तथैव नाशाय विशन्ति लोका-स्तवापि वक्त्राणि समद्धवेगाः ॥29॥
अर्थ: “जैसे पतंगे प्रज्वलित अग्नि में अत्यंत वेग से जाकर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही ये सब लोग भी आपके मुखों में नाश के लिए अत्यन्त वेग से प्रवेश कर रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के मुखों को प्रज्ज्वलित अग्नि से तुलना करते हैं, जिसमें लोग पतंगों की तरह अपने विनाश के लिए प्रवेश कर रहे हैं। यह श्लोक काल के अपरिहार्य स्वरूप और नियति की शक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 30
लेलिसे ग्रसमानः समन्ताल्लोकान्समग्रान्वदनैर्व्वलद्भिः।
तेजोभिरापूर्य जगत्समग्रं भासस्तवोग्राः प्रतपन्ति विष्णो ॥30॥
अर्थ: “आप अपने ज्वलन्त मुखों द्वारा चारों ओर से सम्पूर्ण लोकों को निगल रहे हैं और अपनी प्रचण्ड तेजस्विता से सम्पूर्ण जगत को भरकर तपित कर रहे हैं। हे विष्णु! आपकी भयंकर ज्वाला सम्पूर्ण सृष्टि को जला रही है।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के प्रज्ज्वलित और भयानक मुखों का वर्णन करते हैं, जो संपूर्ण विश्व को अपने में समेट रहे हैं और अपने तेज से उसे तपा रहे हैं। यह श्लोक विश्वरूप के सर्वभक्षक और प्रलयकारी स्वरूप को दर्शाता है।
श्लोक 31
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्माद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम् ॥31॥
अर्थ: “हे देवश्रेष्ठ! कृपया मुझे बताइए कि आप इस भयंकर रूप में कौन हैं? आपको नमस्कार है, कृपा कीजिए। मैं जानना चाहता हूँ कि आप कौन हैं, क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति (कार्य उद्देश्य) को नहीं समझ पा रहा हूँ।”
व्याख्या: भयभीत अर्जुन विश्वरूप के इस उग्र स्वरूप की पहचान जानना चाहते हैं। वे श्रीकृष्ण को नमस्कार करते हैं और कृपा की याचना करते हैं, यह स्वीकार करते हुए कि वे उनके इस स्वरूप और कार्य को नहीं समझ पा रहे हैं। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति और जिज्ञासा को दर्शाता है।
श्लोक 32
श्रीभगवानुवाच।
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥32॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण बोले — मैं लोकों का संहार करने वाला प्रबल काल हूँ और इस समय इन लोकों का नाश करने के लिए उपस्थित हुआ हूँ। तुम्हारे बिना भी ये सब योधा, जो विरोधी सेनाओं में स्थित हैं, नहीं बचेंगे।
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्वयं को काल (समय) के रूप में प्रकट करते हैं, जो विश्व का संहार करता है। वे बताते हैं कि युद्ध में उपस्थित सभी योद्धाओं का अंत निश्चित है, चाहे अर्जुन युद्ध लड़े या नहीं। यह श्लोक नियति की अनिवार्यता और काल की सर्वनाशी शक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 33
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्वजित्वा शत्रून्भुक्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पूर्वमेवनिमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥33॥
अर्थ: “इसलिए तुम उठो, यश प्राप्त करो और शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य का भोग करो। ये सब योद्धा तो मुझसे पहले ही मारे जा चुके हैं — हे सव्यसाचि (अर्जुन)! तुम केवल निमित्त मात्र बनो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध में भाग लेने और अपने कर्तव्य को पूरा करने का आदेश देते हैं, यह कहते हुए कि शत्रुओं का विनाश पहले से ही निश्चित है। अर्जुन को केवल ईश्वर की इच्छा का साधन बनना है। यह श्लोक कर्मयोग और नियति के समन्वय को दर्शाता है।
श्लोक 34
द्रोणं च भीष्मं च जयद्रथं चकर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठायुध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥34॥
अर्थ: “द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण और अन्य महान योद्धा मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं। तुम उन्हें मारो, भय मत करो — युद्ध करो, तुम युद्ध में शत्रुओं को अवश्य जीतोगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रमुख शत्रुओं—द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, और कर्ण—को मारने का निर्देश देते हैं, यह कहते हुए कि वे पहले ही काल द्वारा नष्ट कर दिए गए हैं। वे अर्जुन को भय त्यागकर युद्ध करने और विजय प्राप्त करने का आह्वान करते हैं। यह श्लोक अर्जुन के संदेह को दूर करता है।
श्लोक 35
सञ्जय उवाच।
एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृताञजलिर्वेपमानः किरीटी।
नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णं सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥35॥
अर्थ: संजय ने कहा — “केशव के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अर्जुन हाथ जोड़कर कांपते हुए खड़े हो गए। उन्होंने बार-बार भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार किया और भय से गद्गद होकर विनयपूर्वक बोले।”
व्याख्या: संजय बताते हैं कि श्रीकृष्ण के कालस्वरूप और युद्ध के निर्देश सुनकर अर्जुन भय और भक्ति से काँपने लगते हैं। वे बार-बार नमस्कार करते हुए, गद्गद स्वर में श्रीकृष्ण से संवाद करते हैं। यह श्लोक अर्जुन की भयमिश्रित भक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 36
अर्जुन उवाच।
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः॥36॥
अर्थ: अर्जुन बोले — “हे हृषीकेश! यह सर्वथा उचित है कि आपकी महिमा का श्रवण कर यह सारा संसार आनंदित होता है और आप में अनुरक्त हो जाता है। राक्षस भय से दिशाओं में भाग रहे हैं, और सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं।
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण की महिमा की प्रशंसा करते हैं, कहते हैं कि उनका यश विश्व को प्रसन्न करता है और प्रेम को प्रेरित करता है। राक्षस उनके भय से भागते हैं, जबकि सिद्ध उनकी भक्ति करते हैं। यह श्लोक श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता और विश्वरूप की महत्ता को दर्शाता है।
श्लोक 37
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकत्रे ।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ॥37॥
अर्थ: “हे महात्मा! आप ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ आदि कारण हैं, अतः आपको नमस्कार क्यों न करें? आप अनन्त हैं, देवताओं के स्वामी हैं, सम्पूर्ण जगत के आश्रय हैं। आप सच्चिदानन्द स्वरूप, नित्य और सत्-असत् से परे परम तत्व हैं।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण को सृष्टि के आदि कर्ता, अनंत, और परम तत्व के रूप में प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण सत् और असत् से परे हैं और समस्त विश्व के आधार हैं। यह श्लोक उनकी भक्ति और श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता को रेखांकित करता है।
श्लोक 38
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥38॥
अर्थ: “आप आदिदेव, सनातन पुरुष और सम्पूर्ण विश्व के परम आधार हैं। आप ही ज्ञाता, जानने योग्य और परम धाम हैं। हे अनन्त रूपधारी! यह सम्पूर्ण विश्व आपसे ही व्याप्त है।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण को आदि देव और सनातन पुरुष के रूप में प्रशंसा करते हैं। वे उन्हें विश्व का आधार, ज्ञान का स्रोत, और परम धाम मानते हैं। यह श्लोक श्रीकृष्ण की सर्वोच्चता और विश्वरूप की सर्वव्यापकता को दर्शाता है।
श्लोक 39
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्त्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥39॥
अर्थ: “आप वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, प्रजापति और पितामह ब्रह्मा हैं। आपको बार-बार नमस्कार है, हजारों बार नमस्कार है, फिर भी बार-बार आपको नमस्कार है।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप में श्रीकृष्ण को विभिन्न देवताओं और सृष्टि के स्रोत के रूप में देखते हैं। वे बार-बार नमस्कार करके अपनी भक्ति और श्रद्धा व्यक्त करते हैं। यह श्लोक श्रीकृष्ण की सर्वसमावेशी प्रकृति और अर्जुन की भक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 40
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनंतवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाजोषि ततोऽसि सर्वः ॥40॥
अर्थ: “आपको आगे से, पीछे से और चारों ओर से नमस्कार है। हे सर्वशक्तिमान! आपकी शक्ति अनन्त है, पराक्रम अपार है। आप ही सबको व्याप्त करते हैं, इसलिए आप ही सर्वस्व हैं।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण को सभी दिशाओं से नमस्कार करते हैं, उनकी अनंत शक्ति और पराक्रम की प्रशंसा करते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि श्रीकृष्ण ही सब कुछ हैं, क्योंकि वे समस्त विश्व को व्याप्त करते हैं। यह श्लोक उनकी सर्वव्यापकता को रेखांकित करता है।
श्लोक 41
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥41॥
अर्थ: “हे भगवन्! मैंने आपको मित्र समझकर जो भी कठोर या अविवेकपूर्ण बातें की हैं, जैसे — हे कृष्ण! हे यादव! हे सखे! — यह सब आपके इस महान स्वरूप को न जानकर प्रेम या प्रमादवश कहा है।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप देखने के बाद अपनी अज्ञानता के लिए क्षमा माँगते हैं। उन्होंने श्रीकृष्ण को सखा के रूप में संबोधित किया था, उनकी महिमा को न समझते हुए। यह श्लोक उनकी विनम्रता और भक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 42
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥42॥
अर्थ: “जो कुछ मैंने आपको अपमानपूर्वक कहा हो — चाहे अकेले में या मित्रों के सामने, खेल में, विश्राम में, बैठते समय, खाते समय — हे अच्युत! उस सबके लिए मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप अपार महिमा वाले हैं।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने अनजाने में किए गए अनादर के लिए क्षमा माँगते हैं, जैसे कि परिहास करना या सामान्य व्यवहार करना। यह श्लोक उनकी नम्रता और श्रीकृष्ण के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा को दर्शाता है।
श्लोक 43
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥43॥
अर्थ: “आप इस चराचर जगत के पिता हैं। आप पूज्य और सबसे महान गुरु हैं। तीनों लोकों में आप समान या आपसे श्रेष्ठ कोई नहीं है, क्योंकि हे अप्रतिम प्रभाव वाले! आपका कोई तुल्य नहीं।”
व्याख्या: अर्जुन ने कहा: “आप इस चर और अचर विश्व के पिता, पूज्य, और सबसे महान गुरु हैं। तीनों लोकों में आपके समान कोई नहीं है, फिर आपके से श्रेष्ठ कोई कैसे हो सकता है, हे अतुल प्रभाव वाले!”
श्लोक 44
तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायं प्रसादये त्वामहमीशमीड्यम् ।
पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम् ॥44॥
अर्थ: “इसलिए मैं शरीर को झुकाकर आपको प्रणाम करता हूँ और आपको, जो वंदनीय ईश्वर हैं, प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करता हूँ। जैसे पिता अपने पुत्र से, मित्र अपने मित्र से और प्रियतम अपनी प्रिय से सहन करता है — वैसे ही हे देव! आप भी मेरी गलतियों को सहन करें।”
व्याख्या: अर्जुन विनम्रता से श्रीकृष्ण को प्रणाम करते हैं और उनके सामने क्षमा याचना करते हैं। वे श्रीकृष्ण से पिता, मित्र, या प्रियतम की तरह अपने अपराधों को क्षमा करने की प्रार्थना करते हैं। यह श्लोक अर्जुन की भक्ति, विनम्रता, और श्रीकृष्ण के प्रति उनके प्रेम को दर्शाता है।
श्लोक 45
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देवरुपं प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥45॥
अर्थ: “मैं आपके इस पहले कभी न देखे गए रूप को देखकर हर्षित हूँ, किंतु साथ ही मेरा मन भय से अत्यंत व्याकुल भी हो गया है। इसलिए हे देवों के ईश्वर! हे जगत के आश्रय! कृपा करके मुझे फिर से वही आपका शांत, सौम्य रूप दिखाइए।”
व्याख्या: अर्जुन विश्वरूप के दर्शन से हर्षित हैं, लेकिन उसका भयावह स्वरूप उनके मन को व्याकुल कर देता है। वे श्रीकृष्ण से अपने सौम्य रूप को दिखाने और कृपा करने की प्रार्थना करते हैं। यह श्लोक उनकी भय और भक्ति की मिश्रित भावनाओं को दर्शाता है।
श्लोक 46
किरीटिनं गदिनं चक्रहस्त-मिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव।
तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥46॥
अर्थ: “मैं आपको फिर उसी रूप में देखना चाहता हूँ — किरीट धारण किए हुए, गदा और चक्र हाथ में लिए हुए, चतुर्भुज रूप में।हे सहस्रबाहु! हे विश्वरूपधारी प्रभु! आप उस ही स्वरूप में प्रकट हों।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से उनके सौम्य चतुर्भुज रूप में, जो किरीट, गदा, और चक्र से सुशोभित है, प्रकट होने की प्रार्थना करते हैं। यह श्लोक उनकी इच्छा को दर्शाता है कि वे विश्वरूप के भयावह स्वरूप के बजाय श्रीकृष्ण के परिचित और शांत रूप को देखें।
श्लोक 47
श्रीभगवानुवाच।
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रूपं परं दर्शितमात्मयोगात्।
तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् ॥47॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण बोले — “हे अर्जुन! मेरी कृपा से तुमने मेरा यह परम दिव्य तेजोमय, अनंत और आदिरूप देखा है, जिसे तुमसे पहले किसी और ने नहीं देखा।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि उन्होंने अपनी कृपा और योगशक्ति से अर्जुन को विश्वरूप का दर्शन दिया, जो पहले किसी ने नहीं देखा। यह श्लोक श्रीकृष्ण की कृपा और विश्वरूप की विशिष्टता को रेखांकित करता है।
श्लोक 48
ने वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानै-र्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।
एवंरूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥48॥
अर्थ: “हे कुरुओं में श्रेष्ठ अर्जुन! इस रूप को न वेदों के अध्ययन से, न यज्ञों से, न दान देने से, न कठिन तप से — इस प्रकार मेरे इस रूप को तुमको छोड़कर कोई अन्य मनुष्य लोक में नहीं देख सकता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि विश्वरूप का दर्शन केवल उनकी कृपा से ही संभव है, न कि वेद, यज्ञ, दान, या तप से। यह श्लोक भक्ति की सर्वोच्चता और अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण की विशेष कृपा को दर्शाता है।
श्लोक 49
मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥49॥
अर्थ: मेरे इस भयंकर रूप को देखकर तुम भयभीत या भ्रमित न होओ। निर्भय होकर और प्रसन्न मन से अब मेरा वही पूर्व शांत रूप देखो।
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को उनके विश्वरूप से उत्पन्न भय और भ्रम से मुक्त होने का आश्वासन देते हैं। वे अर्जुन को अपने सौम्य रूप को देखने के लिए कहते हैं। यह श्लोक श्रीकृष्ण की करुणा और अर्जुन के प्रति उनके प्रेम को दर्शाता है।
श्लोक 50
सञ्जय उवाच।
इत्यर्जुनं वासुदेवस्तथोक्तवा स्वकं रूपं दर्शयामास भूयः ।
आश्वासयामास च भीतमेनं भूत्वा पुनः सौम्यवपुर्महात्मा ॥50॥
अर्थ: संजय ने कहा — “इस प्रकार वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह कहकर पुनः अपना पूर्वरूप दिखाया और फिर सौम्य रूप धारण कर भयभीत अर्जुन को ढाढ़स बंधाया।”
व्याख्या: संजय बताते हैं कि श्रीकृष्ण ने अर्जुन की प्रार्थना स्वीकार की और अपने भयावह विश्वरूप को छोड़कर अपने सौम्य रूप में प्रकट हुए। इस रूप में वे अर्जुन को भयमुक्त और शांत करते हैं। यह श्लोक श्रीकृष्ण की करुणा और अर्जुन के प्रति उनके प्रेम को दर्शाता है।
श्लोक 51
अर्जुन उवाच।
दृष्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन ।
इदानीमस्मि संवृत्तः सचेताः प्रकृतिं गतः ॥51॥
अर्थ: अर्जुन ने कहा — “हे जनार्दन! अब मैं आपका यह शांत और सौम्य मनुष्यमात्र जैसा रूप देखकर शांत हो गया हूँ, और मेरी प्रकृति लौट आई है।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण के सौम्य मानवीय रूप को देखकर राहत महसूस करते हैं। विश्वरूप के भय से मुक्त होकर, उनका मन शांत होता है और वे अपनी सामान्य अवस्था में लौटते हैं। यह श्लोक अर्जुन की शांति और श्रीकृष्ण के सौम्य स्वरूप के प्रभाव को दर्शाता है।
श्लोक 52
श्रीभगवानउवाच।
सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाड्.क्षिणः ॥52॥
अर्थ: श्रीभगवान बोले — “जिस मेरे इस रूप को तुमने देखा है, वह अत्यंत दुर्लभ है। देवता भी इस रूप के दर्शन की निरंतर आकांक्षा करते रहते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि विश्वरूप का दर्शन अत्यंत दुर्लभ है, और यहाँ तक कि देवता भी इसे देखने के लिए लालायित रहते हैं। यह श्लोक विश्वरूप की विशेषता और अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण की विशेष कृपा को रेखांकित करता है।
श्लोक 53
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥53॥
अर्थ: “न तो वेदों के अध्ययन से, न तपस्या से, न दान से और न यज्ञों से ही इस रूप को देखा जा सकता है जैसा कि तुमने मुझे देखा है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि विश्वरूप का दर्शन वेद, तप, दान, या यज्ञ जैसे साधनों से संभव नहीं है। यह केवल उनकी कृपा से ही संभव हुआ। यह श्लोक भक्ति की सर्वोच्चता और ईश्वरीय कृपा के महत्व को दर्शाता है।
श्लोक 54
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥54॥
अर्थ: “हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही इस प्रकार का मेरा साक्षात दर्शन, तत्त्व से जानना और आत्मसात करना संभव है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि अनन्य भक्ति ही वह साधन है, जिसके द्वारा ईश्वर को जाना, देखा, और तत्त्व से प्राप्त किया जा सकता है। यह श्लोक भक्ति योग की सर्वोच्चता और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के महत्व को रेखांकित करता है।
श्लोक 55
मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥55॥
अर्थ: “हे पाण्डव! जो मनुष्य मेरे लिए कार्य करता है, मुझे ही परम मानता है, मुझमें भक्ति करता है, आसक्तियों से रहित है, और सभी प्राणियों के प्रति द्वेषरहित है — वही मुझे प्राप्त होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि जो व्यक्ति उनके लिए कर्म करता है, उन्हें परम मानता है, भक्ति करता है, आसक्ति से मुक्त है, और सभी के प्रति प्रेम रखता है, वही उन्हें प्राप्त करता है। यह श्लोक भक्ति, कर्म, और वैराग्य के समन्वय को दर्शाता है।
श्रीमद् भागवत गीता के ग्यारहवें अध्याय सारांश
ग्यारहवां अध्याय “विश्वरूपदर्शन योग” गीता का एक अत्यंत महत्वपूर्ण और दिव्य अध्याय है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट रूप का दर्शन कराया, जो संपूर्ण सृष्टि, देवताओं, लोकों और समय के रहस्यों को समेटे हुए था।
- ईश्वर की सर्वोच्चता: विश्वरूप श्रीकृष्ण की अनंत, सर्वव्यापी, और सर्वशक्तिमान प्रकृति को दर्शाता है। वे सृष्टि, स्थिति, और संहार के नियंता हैं।
- काल की अनिवार्यता: श्लोक 32 में श्रीकृष्ण कहते हैं, “कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्” (मैं काल हूँ, विश्व का संहार करने वाला), जो समय की अपरिहार्य शक्ति और नियति को दर्शाता है।
- अर्जुन का भय और विनती: विराट रूप देखकर अर्जुन विस्मित और भयभीत हो जाता है। वह श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे पुनः अपने सौम्य चतुर्भुज रूप में आ जाएँ।
- कर्म और निमित्त: श्रीकृष्ण अर्जुन को उनके कर्तव्य (युद्ध) को निमित्त मात्र के रूप में करने का निर्देश देते हैं, क्योंकि परिणाम पहले से ही निश्चित है (श्लोक 33-34)।
- भक्ति की सर्वोच्चता: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि इस विराट रूप का दर्शन न वेदों, न यज्ञों, न तपस्या, और न दान से संभव है, केवल अनन्य भक्ति से ही उन्हें सच्चे रूप में जाना और प्राप्त किया जा सकता है।(श्लोक 48, 53-54)
- आध्यात्मिक प्रगति: अध्याय का अंत भक्ति, कर्म, और वैराग्य के समन्वय के साथ होता है, जो ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है। (श्लोक 55)