श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 17: श्रद्धा त्रय विभाग योग | Bhagwat Geeta Chapter 17

श्रीमद्भागवत गीता का सत्रहवां अध्याय “श्रद्धा त्रय विभाग योग” कहलाता है। गीता के सत्रहवें अध्याय में श्रद्धा के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। इस अध्याय में यह समझाया गया है कि मनुष्य की श्रद्धा किस प्रकार उसकी प्रकृति के अनुसार होती है और कैसे वह उसके कर्मों, आहार, यज्ञ, तप और दान को प्रभावित करती है।

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श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 17: श्रद्धा त्रय विभाग योग (Bhagwat Geeta Chapter 17)

श्रीमद् भागवत गीता का सत्रहवां अध्याय, “श्रद्धा त्रय विभाग योग” है। यह अध्याय 28 श्लोकों में विभाजित है। सतरहवें अध्याय में अर्जुन एक गहरा प्रश्न पूछते हैं: “जो लोग शास्त्रों का पालन किए बिना, परंतु श्रद्धा से युक्त होकर पूजा, यज्ञ या तप करते हैं, उनकी स्थिति क्या होती है?” इस प्रश्न के उत्तर में श्रीकृष्ण श्रद्धा के तीन प्रकारों—सात्विक, राजसिक, और तामसिक—का वर्णन करते हैं। यह अध्याय पिछले अध्यायों से जुड़ा है, क्योंकि यह त्रिगुणों (सत्त्व, रजस, और तमस) के आधार पर मानव व्यवहार और जीवनशैली का विश्लेषण करता है।

श्लोक 1

अर्जुन उवाच।
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥1॥

अर्थ: अर्जुन ने कहा: “हे कृष्ण! जो लोग शास्त्रों के विधि-विधानों को त्यागकर श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा का स्वरूप क्या है? क्या वह सत्त्वगुण से उत्पन्न है, या रजोगुण से, अथवा तमोगुण से?”

व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से एक महत्वपूर्ण प्रश्न पूछते हैं। वे जानना चाहते हैं कि जो लोग शास्त्रों के नियमों का पालन किए बिना, केवल श्रद्धा से प्रेरित होकर पूजा, यज्ञ या अन्य कर्म करते हैं, उनकी श्रद्धा का स्वरूप क्या है। यह प्रश्न पिछले अध्याय (16) में दैवी और आसुरी स्वभाव के वर्णन से प्रेरित है। अर्जुन यह समझना चाहते हैं कि श्रद्धा को प्रकृति के तीन गुणों—सत्त्व, रजस, और तमस—के आधार पर कैसे वर्गीकृत किया जा सकता है। यह श्लोक पूरे अध्याय का आधार बनता है, जहां श्रीकृष्ण इन गुणों के आधार पर श्रद्धा और कर्मों का विस्तार से वर्णन करते हैं।

श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच।
त्रिविद्या भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु ॥2॥

अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: “हे अर्जुन! देहधारियों की श्रद्धा स्वभाव से उत्पन्न होकर तीन प्रकार की होती है — सात्त्विक, राजसिक और तामसिक। अब तुम उनसे संबंधित वर्णन मुझसे सुनो।”

व्याख्या: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर शुरू करते हैं। वे बताते हैं कि मनुष्य की श्रद्धा उसके स्वभाव से निर्धारित होती है और यह प्रकृति के तीन गुणों—सत्त्व, रजस, और तमस—के आधार पर तीन प्रकार की होती है। यह श्लोक अध्याय का आधार बनाता है, क्योंकि श्रीकृष्ण आगे इन तीनों प्रकार की श्रद्धा का विस्तार से वर्णन करेंगे।

श्लोक 3

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषों यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥3॥

अर्थ: “हे भारत (अर्जुन)! प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके स्वाभाविक गुणों (सत्त्व, रज, तम) के अनुसार होती है। मनुष्य श्रद्धा-स्वरूप ही होता है; जैसा जिसकी श्रद्धा होती है, वह स्वयं वैसा ही हो जाता है।”

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व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि मनुष्य का स्वभाव उसकी श्रद्धा को निर्धारित करता है, और उसकी श्रद्धा ही उसका व्यक्तित्व बनाती है। अर्थात्, व्यक्ति की श्रद्धा उसके चरित्र और कर्मों को परिभाषित करती है। यह श्लोक इस बात पर जोर देता है कि श्रद्धा मनुष्य के जीवन का मूल आधार है।

श्लोक 4

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ॥4॥

अर्थ: “सात्त्विक लोग देवताओं की पूजा करते हैं, राजसिक लोग यक्षों और राक्षसों की, और तामसिक लोग प्रेतों और भूत-गणों आदि की पूजा करते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण श्रद्धा के आधार पर पूजा के प्रकारों को स्पष्ट करते हैं। सात्विक लोग शुद्ध और उच्चतर शक्तियों (देवताओं) की पूजा करते हैं, राजसिक लोग सांसारिक लाभ के लिए यक्ष-राक्षसों की, जबकि तामसिक लोग अज्ञानवश प्रेत-भूतों की पूजा करते हैं। यह श्लोक श्रद्धा के प्रभाव को दर्शाता है।

श्लोक 5

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः ॥5॥

अर्थ: “जो लोग शास्त्रविधि के विरुद्ध, अत्यंत कठोर तप करते हैं और जो दंभ, अहंकार, वासना और बल का सहारा लेते हैं — वे वास्तव में अज्ञान में हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक उन लोगों के तप का वर्णन करता है जो शास्त्रों की अवहेलना करके कठोर तप करते हैं। ऐसे तप में दम्भ और अहंकार होता है, और यह कामना या सांसारिक इच्छाओं से प्रेरित होता है। श्रीकृष्ण इसे गलत ठहराते हैं, क्योंकि यह शुद्धता और सात्विकता से रहित होता है।

श्लोक 6

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान् ॥6॥

अर्थ: जो लोग अपने शरीर में स्थित पंचभूतों को कष्ट देते हैं और मुझको भी, जो उनके शरीर में स्थित हूँ — उन्हें तू आसुरी विचारधारा वाला समझ।

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण उन लोगों की निंदा करते हैं जो अज्ञानतावश अपने शरीर और आत्मा को कष्ट देते हैं। ऐसे लोग, जो बिना शास्त्रीय ज्ञान के तप करते हैं, न केवल स्वयं को हानि पहुंचाते हैं, बल्कि परमात्मा को भी कष्ट देते हैं। श्रीकृष्ण उन्हें आसुरी प्रवृत्ति वाला कहते हैं।

श्लोक 7

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु ॥7॥

अर्थ: “मनुष्यों को प्रिय आहार तीन प्रकार का होता है। वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। अब मैं उनके भेद को तुम्हें बताता हूँ, उसे ध्यान से सुनो।”

व्याख्या: आहार, यज्ञ, तप और दान उसकी श्रद्धा के स्वरूप पर निर्भर करता है। यह श्लोक आगे आने वाले श्लोकों के लिए आधार तैयार करता है, जहां श्रीकृष्ण इन पहलुओं को सात्विक, राजसिक और तामसिक श्रेणियों में वर्गीकृत करेंगे।

श्लोक 8

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धानाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः ॥8॥

अर्थ: “जो आहार आयु, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, स्निग्ध (तेलयुक्त), स्थिर और हृदय को प्रिय होते हैं — वे सात्त्विक प्रकृति के लोगों को प्रिय होते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में सात्विक आहार की विशेषताएं बताई गई हैं। सात्विक भोजन शुद्ध, पौष्टिक और संतुलित होता है, जो शरीर और मन दोनों को लाभ पहुंचाता है। यह श्लोक सात्विक जीवनशैली के महत्व को रेखांकित करता है।

श्लोक 9

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥9॥

अर्थ: “जो बहुत तीखे, खट्टे, नमकीन, अत्यधिक गरम, तीव्र, रूखे और जलन पैदा करने वाले आहार होते हैं — वे राजसिक लोगों को प्रिय होते हैं। ये आहार दुःख, शोक और रोगों को उत्पन्न करते हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक राजसिक आहार का वर्णन करता है, जो उत्तेजक और असंतुलित होता है। ऐसा भोजन मन को अशांत और शरीर को रोगग्रस्त करता है। यह श्लोक सात्विक भोजन की तुलना में राजसिक भोजन के नकारात्मक प्रभाव को दर्शाता है।

श्लोक 10

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेधयं भोजनं तामसप्रियम् ॥10॥

अर्थ: “जो आहार पकने के बाद बहुत समय तक रखा गया हो, रसहीन हो गया हो, सड़ा हुआ, दुर्गंधयुक्त, बासी, झूठा या अशुद्ध हो — वह तामसिक लोगों को प्रिय होता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में तामसिक आहार की विशेषताएं बताई गई हैं। ऐसा भोजन न केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, बल्कि मन को भी सुस्त और अशुद्ध बनाता है। यह श्लोक तामसिकता के नकारात्मक प्रभाव को स्पष्ट करता है।

श्लोक 11

अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टिो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥11॥

अर्थ: “जो यज्ञ शास्त्रों के अनुसार, फल की आकांक्षा के बिना केवल “कर्म करना ही मेरा कर्तव्य है” इस भाव से मन को स्थिर कर के किया जाता है — वह सात्त्विक यज्ञ कहलाता है।”

व्याख्या: यह श्लोक सात्विक यज्ञ का वर्णन करता है। सात्विक यज्ञ निस्वार्थ भाव से, शास्त्रों के अनुसार और कर्तव्य के रूप में किया जाता है। यह श्लोक निष्काम कर्म के महत्व को दर्शाता है।

श्लोक 12

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥12॥

अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ फल की आशा और दिखावे के लिए किया जाता है — उसे तू राजसिक यज्ञ जान।”

व्याख्या: इस श्लोक में राजसिक यज्ञ का वर्णन है, जो स्वार्थ या दिखावे के लिए किया जाता है। ऐसा यज्ञ सात्विक यज्ञ की शुद्धता से रहित होता है और सांसारिक इच्छाओं से प्रेरित होता है।

श्लोक 13

विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥13॥

अर्थ: “जो यज्ञ शास्त्रविधि के बिना, बिना अन्न का अर्पण किए, बिना मंत्रों के उच्चारण के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किया जाता है — वह तामसिक यज्ञ कहलाता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में तामसिक यज्ञ का वर्णन है, जो शास्त्रों के नियमों, मंत्रों, दान, और श्रद्धा के बिना किया जाता है। ऐसा यज्ञ अज्ञान और अव्यवस्था से भरा होता है, जिसका कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता।

श्लोक 14

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥14॥

अर्थ: “देवता, ब्राह्मण, गुरु और विद्वानों की पूजा करना, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा — ये शरीर द्वारा किए जाने वाले तप कहलाते हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक शारीरिक तप की सात्विक विशेषताओं को बताता है। यह तप शरीर के स्तर पर शुद्धता, सम्मान, संयम और अहिंसा पर आधारित होता है, जो सात्विक जीवन का आधार है।

श्लोक 15

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ॥15॥

अर्थ: “किसी को उद्विग्न न करने वाला, सत्य, प्रिय और हितकारी वचन बोलना, तथा वेदों का स्वाध्याय करना — ये वाणी से किया गया तप कहलाता है।”

व्याख्या: यह श्लोक वाचिक (वाणी से संबंधित) तप का वर्णन करता है। सात्विक वाणी सत्य, सौम्य और लाभकारी होती है, और वेदों का अध्ययन भी वाचिक तप का हिस्सा है। यह मन और समाज में शांति लाता है।

श्लोक 16

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥16॥

अर्थ: “मन का प्रसन्न रहना, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और अंतःकरण की पवित्रता — ये मानसिक (मनोमय) तप कहलाता है।”

व्याख्या: यह श्लोक मानसिक तप की विशेषताओं को बताता है। सात्विक मानसिक तप में मन की शांति, संयम और शुद्ध विचार शामिल हैं, जो आध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक हैं।

श्लोक 17

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्रिविधं नरैः ।
अफलाकाििक्षभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते ॥17॥

अर्थ: “जो मनुष्य फल की आकांक्षा छोड़कर, दृढ़ श्रद्धा से युक्त होकर इस तीन प्रकार के तप को करते हैं — उसे सात्त्विक तप कहा जाता है।”

व्याख्या: यह श्लोक सात्विक तप का सार बताता है। निस्वार्थ भाव और श्रद्धा के साथ किया गया तप, जो पिछले श्लोकों में वर्णित तीन प्रकार का है, सात्विक कहलाता है। यह तप आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।

श्लोक 18

सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तहिद प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम् ॥18॥

अर्थ: “जो तप केवल आदर, मान और पूजा पाने की इच्छा से तथा दंभपूर्वक किया जाता है — उसे यहाँ राजसिक कहा गया है, और वह न तो स्थायी होता है, न ही दृढ़।”

व्याख्या: यह श्लोक राजसिक तप का वर्णन करता है, जो दिखावे और सांसारिक लाभ के लिए किया जाता है। ऐसा तप अस्थिर होता है और इसका आध्यात्मिक मूल्य सीमित होता है, क्योंकि यह स्वार्थ से प्रेरित होता है।

श्लोक 19

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥19॥

अर्थ: “जो तप मूढ़ता से, स्वयं को कष्ट देने या दूसरों को नष्ट करने के लिए किया जाता है — वह तामसिक तप कहलाता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में तामसिक तप का वर्णन है, जो अज्ञान या क्रूरता से प्रेरित होता है। यह तप स्वयं को अनावश्यक कष्ट देने या दूसरों को हानि पहुंचाने के लिए किया जाता है, और इसका कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं होता।

श्लोक 20

दातव्यमिति यदानं दीयतेऽनुपकारिणेत्र ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥20॥

अर्थ: “जो दान “यह देना मेरा कर्तव्य है” — इस भावना से, योग्य स्थान, समय और पात्र को बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा किए दिया जाता है — वह सात्त्विक दान कहलाता है।

व्याख्या: यह श्लोक सात्विक दान की विशेषताएं बताता है। सात्विक दान निस्वार्थ भाव से, सही समय, स्थान और योग्य व्यक्ति को दिया जाता है, जिससे दान का आध्यात्मिक और सामाजिक महत्व बढ़ता है।

श्लोक 21

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥21॥

अर्थ: “जो दान किसी लाभ या प्रतिदान की भावना से, या फल की अपेक्षा से, अनिच्छा से अथवा कष्टपूर्वक दिया जाता है — वह राजसिक दान कहलाता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में राजसिक दान का वर्णन है, जो स्वार्थ या अनिच्छा से प्रेरित होता है। ऐसा दान सात्विक दान की शुद्धता से रहित होता है और इसका प्रभाव सीमित होता है।

श्लोक 22

अदेशकाले यदानमपात्रेभ्यश्यच दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥22॥

अर्थ: “जो दान अनुचित स्थान, अनुचित समय या अयोग्य व्यक्ति को दिया जाता है, और जिसमें न तो आदर होता है, न भावना — वह तामसिक दान कहलाता है।”

व्याख्या: यह श्लोक तामसिक दान का वर्णन करता है, जो अज्ञानतावश या अनुचित ढंग से दिया जाता है। ऐसा दान न तो दाता को लाभ पहुंचाता है और न ही समाज को।

श्लोक 23

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणस्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥23॥

अर्थ: “ॐ तत् सत्” — ये तीन शब्द ब्रह्म का प्रतीक माने गए हैं। प्राचीन समय में इन्हीं शब्दों द्वारा ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों की रचना कही गई है।”

व्याख्या: इस श्लोक में “ॐ तत् सत्” मंत्र का महत्व बताया गया है। यह मंत्र ब्रह्म का प्रतीक है और शास्त्रों में यज्ञ, वेद और ब्राह्मणों की स्थापना के लिए इसका उपयोग किया गया। यह सभी शास्त्रविहित कर्मों को शुद्ध करता है।

श्लोक 24

तस्माद् ॐ इत्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सत्ततं ब्रह्मवादिनाम् ॥24॥

अर्थ: “इसलिए, वेदों के जानकार “ॐ” शब्द का उच्चारण करके शास्त्रविधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ निरंतर करते हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि सात्विक लोग “ॐ” मंत्र के साथ शास्त्रानुसार यज्ञ, दान और तप करते हैं। “ॐ” का उच्चारण कर्मों को शुद्ध और आध्यात्मिक बनाता है, जिससे वे ब्रह्म के प्रति समर्पित हो जाते हैं।

श्लोक 25

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाििक्षभिः ॥25॥

अर्थ: “तत्” शब्द का उच्चारण करके, फल की आकांक्षा न करते हुए जो यज्ञ, तप और दान की विभिन्न क्रियाएँ की जाती हैं — वे मोक्ष की इच्छा रखने वाले ज्ञानी जन करते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में “तत्” मंत्र का महत्व बताया गया है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले लोग “तत्” (परम सत्य) का स्मरण करते हुए निस्वार्थ भाव से यज्ञ, तप और दान करते हैं। यह कर्मों को शुद्ध और आध्यात्मिक बनाता है।

श्लोक 26

सद्भावे साधुभावे च सहित्येतत्प्रयुज्जते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥26॥

अर्थ: “हे पार्थ! “सत्” शब्द का प्रयोग सत्य और पवित्रता के भाव में किया जाता है, तथा श्रेष्ठ कर्मों में भी “सत्” शब्द का प्रयोग होता है।”

व्याख्या: यह श्लोक “सत्” शब्द के महत्व को स्पष्ट करता है, जो सत्य और शुभता का प्रतीक है। इसका उपयोग अच्छे और प्रशंसनीय कर्मों को दर्शाने के लिए किया जाता है, जो आध्यात्मिकता और नैतिकता को दर्शाता है।

श्लोक 27

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥27॥

अर्थ: “यज्ञ, तप और दान में स्थिरता को “सत्” कहा गया है, और जो कार्य इन सबके लिए किया जाता है — उसे भी “सत्” कहा जाता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में “सत्” को यज्ञ, तप और दान में स्थिरता और इनके लिए किए गए कर्मों का प्रतीक बताया गया है। यह शब्द कर्मों की शुद्धता और निरंतरता को दर्शाता है, जो सात्विकता का आधार है।

श्लोक 28

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य ना इह ॥28॥

अर्थ: “हे पार्थ! जो यज्ञ, दान, तप या कर्म बिना श्रद्धा के किया जाता है, वह “असत्” कहलाता है। उसका न तो इस लोक में और न ही परलोक में कोई फल होता है।”

व्याख्या: यह श्लोक अध्याय का समापन करता है, जिसमें श्रीकृष्ण बताते हैं कि बिना श्रद्धा के किए गए कर्म (यज्ञ, तप, दान) “असत्” हैं और व्यर्थ हैं। श्रद्धा के बिना कर्मों का कोई आध्यात्मिक या सांसारिक लाभ नहीं होता।


श्रीमद् भागवत गीता के सत्रहवे अध्याय सारांश

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हैं कि जो लोग शास्त्रों के विधान को छोड़कर श्रद्धा के साथ कर्म करते हैं, उनकी स्थिति क्या है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि श्रद्धा तीन प्रकार की होती है— सात्विक, राजसिक, और तामसिक जो प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) पर आधारित होती है। यह अध्याय जीवन के प्रमुख पहलुओं आहार, यज्ञ, तप, और दान को इन गुणों के आधार पर वर्गीकृत करता है:

  • श्रद्धा के प्रकार: प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसकी स्वभाविक प्रवृत्ति के अनुसार होती है-
    • सात्त्विक श्रद्धा: यह श्रद्धा ईश्वर, वेद, गुरु और सच्चे धर्म में होती है। सात्त्विक व्यक्ति शांति, सेवा और ज्ञान के मार्ग पर चलता है।
    • राजसिक श्रद्धा: इसमें व्यक्ति दिखावे, भोग और शक्ति की प्राप्ति के लिए श्रद्धा करता है।
    • तामसिक श्रद्धा: अंधविश्वास, कष्टदायक व अमानवीय रीति-नीतियों में विश्वास तामसिक श्रद्धा का लक्षण है।
  • आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद
    • आहार: सात्त्विक आहार शांत, पोषणकारी और आयुष्यवर्धक होता है। राजसिक आहार तीखा, खट्टा व रुचिकर होता है, और तामसिक आहार बासी व अशुद्ध होता है।
    • यज्ञ: शास्त्रों के अनुसार, निःस्वार्थ भाव से किया गया यज्ञ सात्त्विक है। लाभ या दिखावे के लिए किया गया यज्ञ राजसिक, और बिना नियम या श्रद्धा के किया गया यज्ञ तामसिक है।
    • तप: शरीर, वाणी और मन का संयम ही तप है। यदि यह ईश्वर भक्ति, सेवा या आत्मशुद्धि के लिए हो तो सात्त्विक, दिखावे या प्रतिष्ठा के लिए हो तो राजसिक, और किसी को पीड़ित करने के लिए हो तो तामसिक होता है।
    • दान: श्रद्धा से, उचित स्थान, समय और पात्र को दिया गया दान सात्त्विक है। लाभ या बदले की आशा से दिया गया दान राजसिक और अविवेकपूर्ण या अपात्र को दिया गया दान तामसिक कहलाता है।
  • “ॐ तत् सत्” का महत्व: भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि “ॐ तत् सत्” — ये तीन पवित्र शब्द ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करते हैं।
    • “ॐ” ब्रह्म का मूल प्रतीक है,
    • “तत्” निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा देता है,
    • “सत्” सच्चाई और पुण्य कर्मों का संकेत देता है।
  • श्रद्धा के बिना किया गया कार्य: कोई भी यज्ञ, दान, तप या कर्म यदि श्रद्धा के बिना किया जाए, तो वह “असत्” कहलाता है और उसका कोई आध्यात्मिक फल नहीं होता — न इस लोक में, न परलोक में।

इस अध्याय का मूल संदेश यह है कि व्यक्ति की श्रद्धा, आहार, आचरण और कर्म – सभी उसके स्वभाव से उत्पन्न होते हैं। यदि इन सभी को सात्त्विक बनाकर निःस्वार्थ भाव और श्रद्धा से किया जाए, तो जीवन शुद्ध, शांत और ईश्वर के निकट पहुँचने वाला हो जाता है।

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