श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 16: देवासुर संपद विभाग योग | Bhagwat Geeta Chapter 16

श्रीमद्भागवत गीता का सोलहवा अध्याय “देवासुर संपद विभाग योग” कहलाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने दो प्रकार के स्वभाव — दैवी (divine nature) और आसुरी (demonic nature) के गुणों और उनके परिणामों का विस्तार से वर्णन किया है। इस योग के माध्यम से वह अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह दैवी गुणों को अपनाकर आत्मविकास और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो।

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श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 16: देवासुर संपद विभाग योग (Bhagwat Geeta Chapter 16)

श्रीमद् भागवत गीता का सोलहवा अध्याय, “देवासुर संपद विभाग योग” है। यह अध्याय 24 श्लोकों में विभाजित है। गीता का सोलहवां अध्याय — दैवासुर सम्पद्विभाग योग — मनुष्य के स्वभाव को दो भागों में विभाजित करता है: दैवी (ईश्वरीय) और आसुरी (अधर्मिक/नकारात्मक)।

इस अध्याय का अध्ययन हमें यह समझने में मदद करता है कि कौन-से गुण हमें मोक्ष की ओर ले जाते हैं और कौन-से पतन की ओर।

श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच।
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥1॥

अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: “निर्भयता, मन की शुद्धि, ज्ञानयोग में स्थिरता, दान देना, इन्द्रियों पर संयम रखना, यज्ञ करना, स्वाध्याय (शास्त्रों का अध्ययन), तपस्या और सरलता – ये सभी दैवी गुण हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण दैवी गुणों की सूची शुरू करते हैं, जो मानव को आध्यात्मिक और नैतिक रूप से ऊँचा उठाते हैं। अभयं (निडरता) सत्य और धर्म के प्रति दृढ़ता दर्शाता है। सत्त्वसंशुद्धिः मन की शुद्धता को इंगित करता है, जो सही निर्णय लेने में मदद करती है। ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ज्ञान और योग के प्रति समर्पण को दर्शाता है। दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, और आर्जवम् जैसे गुण व्यक्ति को उदार, संयमित, और सत्यनिष्ठ बनाते हैं। ये गुण आत्मिक विकास और सामाजिक सद्भाव के लिए आवश्यक हैं।

श्लोक 2

अहिंसा सत्यमक्रोधास्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥2॥

अर्थ: “अहिंसा (किसी को भी हानि न पहुँचाना), सत्य बोलना, क्रोध न करना, त्याग की भावना, मन की शांति, चुगली न करना, सभी प्राणियों पर दया करना, लोभ रहित होना, कोमल स्वभाव, लज्जाशीलता और चंचलता का अभाव — ये भी दैवी गुण हैं।”

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व्याख्या: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि अच्छे इंसान में कौन-से गुण होने चाहिए। जैसे, किसी को नुकसान न पहुँचाना (अहिंसा), सच बोलना, गुस्सा न करना, शांति से रहना, दूसरों की बुराई न करना, और सबके प्रति दया रखना। इसके अलावा, लालच न करना, नम्र होना, शर्मिंदगी महसूस करना जब कुछ गलत हो, और बेकार की बेचैनी से बचना। ये गुण इंसान को बेहतर और शांत बनाते हैं।

श्लोक 3

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥3॥

अर्थ: “तेज (आत्मबल), क्षमा, धैर्य, शुद्धता, किसी के प्रति द्वेष न रखना और अभिमान से रहित होना — हे भारत (अर्जुन), ये गुण उस व्यक्ति में होते हैं जो दैवी सम्पदा को प्राप्त हुआ है।”

व्याख्या: यह श्लोक अच्छे गुणों की सूची को पूरा करता है। तेज यानी मन में जोश और आत्मविश्वास। क्षमा यानी दूसरों की गलतियों को माफ करना। धैर्य यानी मुश्किल समय में हिम्मत रखना। शुद्धता यानी मन और शरीर को साफ रखना। द्वेष न करना यानी किसी से नफरत न करना। अहंकार न करना यानी घमंड से बचना। ये गुण इंसान को नेक और सम्मानित बनाते हैं।

श्लोक 4

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥4॥

अर्थ: “हे पार्थ! दम्भ (दिखावा), घमंड, अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञान – ये सब गुण उस व्यक्ति में होते हैं जो आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुआ है।”

व्याख्या: यहाँ श्रीकृष्ण बुरे गुणों के बारे में बताते हैं। पाखंड यानी दिखावा करना। अहंकार और अभिमान यानी खुद को सबसे बड़ा समझना। क्रोध यानी गुस्सा करना। कठोरता यानी दूसरों के साथ सख्त या बुरा बर्ताव करना। अज्ञान यानी सही-गलत का ज्ञान न होना। ये गुण इंसान को गलत रास्ते पर ले जाते हैं और नुकसान पहुँचाते हैं।

श्लोक 5

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता ।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥5॥

अर्थ: “दैवी सम्पदा मोक्ष के लिए होती है और आसुरी सम्पदा बंधन के लिए। इसलिए, हे पाण्डव! तुम शोक मत करो, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा को धारण करने वाले हो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि अच्छे गुण (दैवी संपदा) इंसान को शांति और मुक्ति की ओर ले जाते हैं, जबकि बुरे गुण (आसुरी संपदा) उसे परेशानियों में फँसाते हैं। वे अर्जुन को कहते हैं कि वह चिंता न करे, क्योंकि वह अच्छे गुणों वाला इंसान है। यह श्लोक हमें प्रेरणा देता है कि हम अच्छे गुण अपनाएँ।

श्लोक 6

द्वौ भूतसौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥6॥

अर्थ: “इस संसार में दो प्रकार के जीवों की सृष्टि होती है – दैवी और आसुरी। दैवी स्वभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन मैंने किया है; अब हे पार्थ! तुम मुझसे आसुरी स्वभाव को सुनो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं—एक अच्छे गुणों वाले (दैवी) और दूसरे बुरे गुणों वाले (आसुरी)। पिछले श्लोकों में उन्होंने अच्छे गुणों की बात की, अब वे अर्जुन को बुरे गुणों के बारे में बताने जा रहे हैं। यह श्लोक हमें समझाता है कि हमें बुरे गुणों को पहचानना चाहिए ताकि उनसे बच सकें।

श्लोक 7

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः ।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते ॥7॥

अर्थ: “आसुरी स्वभाव वाले लोग यह नहीं जानते कि क्या करना चाहिए (प्रवृत्ति) और क्या नहीं करना चाहिए (निवृत्ति)। उनमें न पवित्रता होती है, न सदाचार और न ही सत्य होता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी लोग सही-गलत नहीं समझते। वे न तो जानते हैं कि क्या करना चाहिए, न ही यह कि क्या नहीं करना चाहिए। उनके पास न मन की शुद्धता होती है, न अच्छा व्यवहार, और न ही सच बोलने की आदत। ऐसे लोग गलत रास्ते पर चलते हैं।

श्लोक 8

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम् ॥8॥

अर्थ: “वे (आसुरी लोग) कहते हैं कि यह संसार असत्य है, इसका कोई आधार नहीं है और न ही इसका कोई ईश्वर है। वे इसे केवल कामवासना से उत्पन्न हुआ मानते हैं और कुछ नहीं।”

व्याख्या: यहाँ श्रीकृष्ण बताते हैं कि आसुरी लोग दुनिया को झूठा मानते हैं और कहते हैं कि कोई भगवान नहीं है। वे सोचते हैं कि सब कुछ केवल इच्छाओं और भौतिक चीजों से बना है। ऐसा सोचकर वे गलत रास्ते पर चलते हैं और धर्म को नहीं मानते।

श्लोक 9

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः ।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः ॥9॥

अर्थ: “इस प्रकार की दृष्टि को अपनाकर, आत्मा को नष्ट करने वाले और अल्पबुद्धि वाले लोग, भयंकर कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और संसार के विनाश हेतु कार्य करते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी लोग गलत सोच के कारण अपनी आत्मा को नष्ट कर लेते हैं। उनकी बुद्धि छोटी होती है, और वे बुरे काम करते हैं, जो दुनिया को नुकसान पहुँचाते हैं। उनकी गलत सोच और कर्म दूसरों के लिए परेशानी लाते हैं।

श्लोक 10

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥10॥

अर्थ: “वे लोग, तृप्त न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, दम्भ, घमण्ड और मद से युक्त होकर, मोहवश असत्य विचारों को पकड़ लेते हैं और अपवित्र व्रतों में लगे रहते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में बताया गया है कि आसुरी लोग हमेशा लालच और इच्छाओं में डूबे रहते हैं। वे दिखावा करते हैं, घमंडी होते हैं, और गलत सोच के कारण बुरे काम करते हैं। उनकी इच्छाएँ कभी पूरी नहीं होतीं, और वे गलत रास्ते पर चलते हैं, जो अशुद्ध और हानिकारक होता है।

श्लोक 11

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः ।
कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः ॥11॥

अर्थ: “वे लोग अनंत चिंताओं में डूबे रहते हैं, जो मृत्यु तक खत्म नहीं होतीं। भोग-विलास और कामनाओं को ही सबसे बड़ा सुख मानते हुए, वे यही निष्कर्ष निकालते हैं कि बस इतना ही जीवन है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि आसुरी लोग हमेशा अनगिनत चिंताओं में फँसे रहते हैं। उनकी चिंताएँ मरने तक खत्म नहीं होतीं। वे सिर्फ सुख-भोग और इच्छाओं के पीछे भागते हैं, और यही उनकी जिंदगी का मकसद बन जाता है। यह सोच उन्हें शांति से दूर रखती है।

श्लोक 12

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञचयान् ॥12॥

अर्थ: “वे सैकड़ों आशाओं की डोर से बंधे रहते हैं, काम और क्रोध के वश में होकर, अनुचित तरीकों से धन और भोग प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में कहा गया है कि आसुरी लोग लालच और गुस्से के जाल में फँसे रहते हैं। वे सुख भोगने के लिए गलत रास्तों से पैसा कमाना चाहते हैं। उनकी इच्छाएँ और गुस्सा उन्हें गलत कामों की ओर धकेलता है।

श्लोक 13

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥13॥

अर्थ: वे सोचते हैं – “आज मैंने यह पा लिया है और अब मैं अपनी बाकी इच्छाएँ भी पूरी कर लूँगा। यह भी मेरा है, और आगे और भी धन मुझे मिलेगा।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि आसुरी लोग हमेशा धन और इच्छाओं के बारे में सोचते रहते हैं। वे कहते हैं, “मुझे यह मिला, अब वह मिलेगा।” उनकी सोच सिर्फ पैसा और सुख इकट्ठा करने तक सीमित रहती है, जो उन्हें लालची बनाती है।

श्लोक 14

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ॥14॥

अर्थ: “वे कहते हैं – “मैंने इस शत्रु को मार गिराया, अब और भी शत्रुओं को मार डालूँगा। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही भोगी हूँ, मैं सिद्ध हूँ, बलवान और सुखी हूँ।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि आसुरी लोग बहुत घमंडी होते हैं। वे सोचते हैं कि वे सबसे ताकतवर हैं और अपने दुश्मनों को आसानी से हरा सकते हैं। वे खुद को भगवान, सुखी, और सफल मानते हैं, जो उनका अहंकार दर्शाता है।

श्लोक 15

आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥15॥

अर्थ: “वे भ्रम में पड़कर सोचते हैं – “मैं धनी हूँ, प्रतिष्ठित कुल में जन्मा हूँ, मेरे समान कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और मौज-मस्ती करूँगा।” — इस प्रकार वे अज्ञान से मोहित होते हैं।”

व्याख्या: आसुरी लोग अपने धन और ताकत पर घमंड करते हैं। वे सोचते हैं कि उनसे बेहतर कोई नहीं है। वे दिखावे के लिए दान या यज्ञ करते हैं, ताकि लोग उनकी तारीफ करें। यह उनकी अहंकारी और दिखावटी सोच को दर्शाता है।

श्लोक 16

अनेकाचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥16॥

अर्थ: “वे अनेक प्रकार की उलझनों में पड़े रहते हैं, मोह के जाल में फंसे रहते हैं, भोग-विलास में अत्यधिक आसक्त होकर अंत में अपवित्र नरक में गिरते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि आसुरी लोग बहुत सारी चिंताओं और भ्रम में फँसे रहते हैं। वे सिर्फ सुख और भोग के पीछे भागते हैं, जिसके कारण वे गलत रास्ते पर चलते हैं और अंत में दुख और नरक जैसे हालात में पहुँच जाते हैं।

श्लोक 17

 आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धानमानमदान्विताः ।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम् ॥17॥

अर्थ: “वे आत्मप्रशंसा में लगे रहते हैं, अहंकार और घमण्ड से भरे होते हैं, धन और अभिमान में चूर होकर दिखावे के लिए नाम मात्र के यज्ञ करते हैं – वह भी शास्त्रविहीन (अविधिपूर्वक) रूप में।”

व्याख्या: आसुरी लोग खुद को बहुत बड़ा मानते हैं और धन व घमंड में डूबे रहते हैं। वे यज्ञ या पूजा सिर्फ दिखावे के लिए करते हैं, न कि सही तरीके से। उनकी पूजा में सच्चाई नहीं होती, सिर्फ पाखंड होता है।

श्लोक 18

अहङ्कारं बलं दर्पं काम क्रोधं च संश्रिताः ।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः ॥18॥

अर्थ: “वे अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध के वश में होकर, अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ परमात्मा से द्वेष करते हैं और मेरी निंदा करते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि आसुरी लोग अहंकार, ताकत, घमंड, लालच, और गुस्से से भरे होते हैं। वे न तो भगवान को मानते हैं और न ही दूसरों में अच्छाई देखते हैं। वे हमेशा दूसरों में कमी निकालते हैं और ईश्वर का विरोध करते हैं।

श्लोक 19

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधामान् ।
क्षिपाम्यजस्त्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ॥19॥

अर्थ: “ऐसे द्वेषी, क्रूर और अधम व्यक्तियों को, जो अशुभ कर्म करते हैं – मैं उन्हें बार-बार जन्म-मरण के चक्र में फेंकता हूँ और उन्हें आसुरी योनियों में जन्म देता हूँ।”

व्याख्या: “श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो लोग बुरे, क्रूर, और ईश्वर से नफरत करने वाले होते हैं, उन्हें बार-बार बुरे और दुखदायी जन्म मिलते हैं। उनकी बुरी सोच और कर्म उन्हें नीचे ले जाते हैं।”

श्लोक 20

आसुरीं योनिमापन्ना मूढ़ा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम् ॥20॥

अर्थ: “हे कौन्तेय (अर्जुन), वे मूर्ख लोग बार-बार आसुरी योनियों को प्राप्त करते हैं, और अंत में मुझे प्राप्त किए बिना अधम गति (नरक आदि) को प्राप्त होते हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक कहता है कि आसुरी गुणों वाले लोग बार-बार बुरे जन्मों में फँसते हैं। वे भगवान को नहीं पाते और उनकी जिंदगी और भी बदतर होती जाती है। उनकी गलत सोच उन्हें और नीचे ले जाती है।

श्लोक 21

त्रिविधां नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥21॥

अर्थ: “काम, क्रोध और लोभ – ये तीन नरक के द्वार हैं, जो आत्मा का विनाश करते हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह इन तीनों को त्याग दे।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि लालच, गुस्सा, और इच्छाएँ इंसान को नरक जैसे दुख की ओर ले जाती हैं। ये तीन चीजें आत्मा को नष्ट करती हैं। इसलिए हमें इनसे बचना चाहिए और इन्हें छोड़ देना चाहिए।

श्लोक 22

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥22॥

अर्थ: “हे कौन्तेय (अर्जुन), जो मनुष्य इन तीन अंधकार के द्वारों – काम, क्रोध और लोभ – से मुक्त हो जाता है, वह आत्मा के कल्याण के लिए कार्य करता है और अंततः परम गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति लालच, गुस्सा, और इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, वह सही रास्ते पर चलता है। ऐसा करने से वह अपने लिए अच्छा जीवन बनाता है और अंत में भगवान की शरण या मोक्ष पाता है।

श्लोक 23

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः ।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥23॥

अर्थ: “जो व्यक्ति शास्त्रों के नियमों को छोड़कर मनमाने ढंग से कामनाओं के वश में होकर आचरण करता है, वह न तो सिद्धि (सफलता), न सुख और न ही परमगति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि जो लोग शास्त्रों (धार्मिक और नैतिक नियमों) की अनदेखी करके अपनी मनमानी करते हैं, वे न तो सफलता पाते हैं, न सुख, और न ही मोक्ष। सही रास्ते के लिए शास्त्रों का पालन जरूरी है।

श्लोक 24

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥24॥

अर्थ: “इसलिए क्या करना चाहिए और क्या नहीं – यह जानने में शास्त्र ही प्रमाण (मानदंड) है। अतः शास्त्र के अनुसार जो कर्तव्य बताया गया है, उसे जानकर तुम्हें उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि सही-गलत समझने के लिए शास्त्र (धार्मिक ग्रंथ) हमारा मार्गदर्शक है। हमें शास्त्रों की बात मानकर ही अपने काम करने चाहिए, ताकि हम सही रास्ते पर चलें और जीवन में शांति पाएँ।


श्रीमद् भागवत गीता के सोलहवें अध्याय सारांश

इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य के दैवी (ईश्वरीय) और आसुरी (राक्षसी) स्वभावों का विस्तार से वर्णन किया है। यह अध्याय जीवन में सद्गुणों को अपनाने और दुर्गुणों से बचने का स्पष्ट मार्गदर्शन देता है।

  • श्रीकृष्ण दैवी गुणों की सूची देते हैं, जैसे निडरता, शुद्धता, ज्ञान, दान, आत्म-संयम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, अहिंसा, सत्य, क्रोध का अभाव, दया, और विनम्रता। ये गुण व्यक्ति को आध्यात्मिक और नैतिक रूप से ऊँचा उठाते हैं, शांति और मोक्ष की ओर ले जाते हैं।
  • इसके विपरीत, आसुरी गुणों में पाखंड, अहंकार, क्रोध, कठोरता, अज्ञान, और लालच शामिल हैं। ऐसे लोग सत्य और धर्म को नहीं मानते, भौतिक सुखों में डूबे रहते हैं, और क्रूर कर्म करते हैं। उनकी सोच और कर्म उन्हें दुख और पतन की ओर ले जाते हैं। वे ईश्वर का विरोध करते हैं और बार-बार बुरे जन्मों में फँसते हैं।
  • श्रीकृष्ण कहते हैं कि काम, क्रोध, और लोभ नरक के तीन द्वार हैं, जो आत्मा का नाश करते हैं। इनसे बचना चाहिए।
  • जो व्यक्ति इन बुरे गुणों से मुक्त होकर शास्त्रों के अनुसार जीवन जीता है, वह अपने कल्याण के लिए सही कर्म करता है और परम गति (मोक्ष) को प्राप्त करता है। शास्त्र सही-गलत का मार्गदर्शन करते हैं, इसलिए उनके नियमों का पालन करना चाहिए।
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