श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 15: पुरुषोत्तम योग | Bhagwat Geeta Chapter 15

श्रीमद्भागवत गीता का पंद्रहवां अध्याय “पुरुषोत्तम योग” कहलाता है। यह अध्याय मनुष्य जीवन की वास्तविकता, संसार के अस्थायी स्वरूप, आत्मा की अमरता और भगवान की सर्वोच्च स्थिति को समझाने का प्रयास करता है। यह अध्याय विशेष रूप से उन्हें समर्पित है जो जीवन और ईश्वर को गहराई से समझना चाहते हैं। इस अध्याय को गीता का सार माना जाता है।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 15: पुरुषोत्तम योग (Bhagwat Geeta Chapter 15)

श्रीमद् भागवत गीता का पंद्रहवां अध्याय, “पुरुषोत्तम योग” है। यह अध्याय 20 श्लोकों में विभाजित है। “पुरुषोत्तम योग” दो शब्दों से मिलकर बना है—‘पुरुषोत्तम’ अर्थात सर्वोच्च पुरुष (ईश्वर) और ‘योग’ अर्थात जुड़ाव या मिलन। इस अध्याय में श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे स्वयं ही नश्वर (क्षर) और अविनाशी (अक्षर) दोनों से परे, एकमात्र पुरुषोत्तम हैं। इस योग का उद्देश्य मनुष्य को आत्मा और परमात्मा की समझ प्रदान कराकर उसे मोक्ष की ओर अग्रसर करना है।

इस अध्याय की शुरुआत में भगवान श्रीकृष्ण संसार को एक अश्वत्थ वृक्ष (पीपल का पेड़) के रूप में वर्णित करते हैं, जिसकी जड़ें ऊपर और शाखाएँ नीचे हैं। यह वृक्ष माया से बना है और इसकी शाखाएँ इंद्रियों, कर्मों, और इच्छाओं से फैलती हैं। इस उपमा का अर्थ है कि संसार का मूल स्रोत परमात्मा में है, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति भौतिक रूप में होती है, जो नश्वर और अस्थायी है।

श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥1॥

अर्थ: श्री भगवान बोले: “इस संसार रूपी अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष को ऊपर को मूल वाला और नीचे को शाखाओं वाला कहा गया है, जो अविनाशी है। इसके पत्ते वेद मंत्र हैं। जो इस वृक्ष को भली-भाँति जानता है, वही वास्तव में वेद का जानकार है।”

व्याख्या: यह श्लोक संसार को एक उल्टे अश्वत्थ वृक्ष के रूप में दर्शाता है, जिसकी जड़ें परमात्मा में और शाखाएँ भौतिक संसार में हैं। यह संसार की नश्वरता और माया के प्रभाव को दर्शाता है। पत्तों का वेदों से तुलना यह बताती है कि वेद ज्ञान देते हैं, लेकिन सच्चा ज्ञान संसार के इस स्वरूप और परमात्मा को समझने में है। यह श्लोक हमें भौतिक बंधनों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक सत्य की खोज करने की प्रेरणा देता है। आधुनिक जीवन में यह हमें सिखाता है कि सांसारिक इच्छाओं में उलझने के बजाय आत्म-जागरूकता और परमात्मा की ओर ध्यान देना चाहिए।

श्लोक 2

अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥2॥

अर्थ: “उस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर और नीचे फैली हुई हैं, जो तीनों गुणों (सत्त्व, रज और तम) से पोषित हैं, और विषयों की कोपलों के साथ बढ़ रही हैं। इस संसार में मनुष्यों के कर्मों के बंधन के रूप में इसकी जड़ें नीचे भी फैली हुई हैं।”

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

व्याख्या: यह श्लोक अश्वत्थ वृक्ष की शाखाओं और जड़ों का वर्णन करता है। शाखाएँ, जो तीन गुणों (प्रकृति के सत्त्व, रजस, तमस) से पोषित हैं, इंद्रियों के विषयों (सुख, भोग) की ओर आकर्षित होती हैं। नीचे की ओर फैली जड़ें कर्मों के बंधनों को दर्शाती हैं, जो जीव को संसार में बाँधते हैं। यह हमें सिखाता है कि संसार की इच्छाएँ और कर्म हमें माया के चक्र में फँसाते हैं, और मुक्ति के लिए इनसे ऊपर उठना जरूरी है।

श्लोक 3

न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्टा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥3॥

अर्थ: “इस संसार रूपी वृक्ष का यथार्थ स्वरूप इस लोक में नहीं जाना जा सकता — न इसका आदि है, न अंत है और न ही इसकी ठोस स्थिति। इसलिए इस गहरे मूल वाले वृक्ष को दृढ़ वैराग्य रूपी शस्त्र से काट देना चाहिए।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि संसार रूपी वृक्ष का वास्तविक स्वरूप समझना कठिन है, क्योंकि यह माया से ढका है और इसका न आदि है, न अंत। इसे केवल वैराग्य (असंगति) के शस्त्र से काटा जा सकता है। यह हमें सिखाता है कि संसार की माया से मुक्त होने के लिए वैराग्य और आत्म-चिंतन आवश्यक है, ताकि हम परम सत्य की ओर बढ़ सकें।

श्लोक 4

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुष प्रपद्ये यतः प्रवृत्ति प्रसृता पुराणी ॥4॥

अर्थ: “इसके बाद उस परम धाम को खोजना चाहिए, जहाँ जाने के बाद फिर लौटना नहीं होता। मैं उसी आदि पुरुष (भगवान) की शरण लेता हूँ, जिससे यह सनातन प्रवृत्ति (संसार) प्रारंभ हुई है।”

व्याख्या: यह श्लोक मोक्ष के मार्ग को दर्शाता है। संसार के बंधनों से मुक्त होने के बाद जीव को परमात्मा के परम धाम की खोज करनी चाहिए, जहाँ से कोई वापस संसार में नहीं लौटता। यह परमात्मा की शरण लेने और भक्ति के महत्व को बताता है, जो सृष्टि का मूल स्रोत हैं। यह हमें प्रेरित करता है कि सच्चा लक्ष्य परमात्मा के साथ एकता है।

श्लोक 5

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥5॥

अर्थ: “जो लोग अहंकार और मोह से रहित हैं, आसक्ति को जीत चुके हैं, आत्मा में स्थित रहते हैं, इच्छाओं से मुक्त हैं और सुख-दुःख के द्वंद्वों से ऊपर उठ चुके हैं, वे मूढ़ता रहित होकर उस अविनाशी धाम को प्राप्त करते हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक मोक्ष प्राप्ति के गुणों का वर्णन करता है। अहंकार, मोह, इच्छाओं, और सुख-दुख के द्वंद्वों से मुक्त होकर, आत्मचिंतन में लीन व्यक्ति परम धाम को प्राप्त करता है। यह हमें सिखाता है कि आध्यात्मिक जीवन के लिए वैराग्य, आत्म-नियंत्रण, और भक्ति आवश्यक हैं, जो हमें संसार के बंधनों से मुक्त करते हैं।

श्लोक 6

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निर्वतन्ते तद्धाम परमं मम॥6॥

अर्थ: “वह मेरा परम धाम न तो सूर्य से प्रकाशित होता है, न चंद्रमा से और न ही अग्नि से। वहाँ जाकर प्राणी फिर इस संसार में वापस नहीं आता।”

व्याख्या: यह श्लोक परमात्मा के परम धाम का वर्णन करता है, जो भौतिक सूर्य, चंद्रमा, या अग्नि के प्रकाश से परे है। यह आध्यात्मिक लोक है, जहाँ पहुँचकर जीव जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह हमें परमात्मा की शरण और भक्ति के माध्यम से उस अविनाशी धाम को प्राप्त करने की प्रेरणा देता है।

श्लोक 7

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥7॥

अर्थ: “यह जीवात्मा मेरे ही अंश रूप में सनातन है, जो इस संसार में जीव रूप में स्थित है। यह प्रकृति में स्थित होकर मन और पाँचों इंद्रियों को आकर्षित करता है।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि जीवात्मा परमात्मा का सनातन अंश है, जो प्रकृति (माया) में फँसकर मन और इंद्रियों के साथ बंधा है। यह हमें सिखाता है कि जीव का मूल स्वरूप दिव्य है, लेकिन माया के प्रभाव से वह सांसारिक बंधनों में उलझ जाता है। आध्यात्मिक साधना से जीव इन बंधनों से मुक्त हो सकता है।

श्लोक 8

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्यत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ॥8॥

अर्थ: “जब आत्मा एक शरीर को त्यागकर दूसरे को प्राप्त करती है, तब वह मन और इंद्रियों को साथ लेकर जाता है, जैसे वायु गंध को अपने साथ ले जाती है।”

व्याख्या: यह श्लोक जीव की यात्रा का वर्णन करता है, जो जन्म-मृत्यु के चक्र में मन और इंद्रियों को साथ ले जाता है, जैसे हवा सुगंध को ले जाती है। यह हमें सिखाता है कि जीव का सांसारिक बंधन कर्मों और इंद्रियों के कारण बना रहता है, और मुक्ति के लिए इन्हें नियंत्रित करना जरूरी है।

श्लोक 9

श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥9॥

अर्थ: “यह आत्मा कान, आँख, त्वचा, जीभ और नाक – इन इंद्रियों तथा मन के द्वारा विषयों का अनुभव करती है।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि जीव मन और इंद्रियों के माध्यम से सांसारिक विषयों (ध्वनि, रूप, स्पर्श, स्वाद, गंध) का भोग करता है। यह हमें सिखाता है कि इंद्रियों का आकर्षण जीव को संसार में बाँधता है, और आध्यात्मिक प्रगति के लिए इंद्रिय-निग्रह आवश्यक है।

श्लोक 10

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥10॥

अर्थ: “मूर्ख लोग आत्मा को शरीर से जाते हुए, उसमें रहते हुए या भोग करते हुए नहीं देख पाते, परंतु ज्ञानी लोग ज्ञान रूपी नेत्रों से उसे देख पाते हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि अज्ञानी लोग जीव के सनातन स्वरूप को नहीं समझ पाते, जो शरीर के साथ बदलता प्रतीत होता है। ज्ञानी, जो आत्म-जागरूकता और ज्ञान से युक्त हैं, जीव के वास्तविक स्वरूप को समझते हैं। यह हमें आत्म-ज्ञान की महत्ता सिखाता है।

श्लोक 11

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥11॥

अर्थ: “योगीजन इस आत्मा को अपने भीतर स्थित समझकर देख पाते हैं, परंतु अविवेकी और असंयमी व्यक्ति, यत्न करने पर भी इस आत्मा को नहीं देख पाते।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि योगी, जो साधना और आत्म-नियंत्रण से युक्त हैं, अपने भीतर आत्मा को देख पाते हैं। किंतु अज्ञानी और असंयमित लोग ऐसा नहीं कर पाते। यह हमें सिखाता है कि आत्म-साक्षात्कार के लिए साधना, संयम, और भक्ति आवश्यक हैं।

श्लोक 12

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥12॥

अर्थ: “सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है, और जो चन्द्रमा तथा अग्नि में है – उस तेज को तू मेरा ही जान।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि सूर्य, चंद्रमा, और अग्नि का तेज परमात्मा से ही उत्पन्न होता है। यह हमें सिखाता है कि प्रकृति में मौजूद सारी शक्ति और प्रकाश परमात्मा का ही अंश है, जो विश्व को संचालित करता है। यह हमें परमात्मा की सर्वव्यापकता और उनकी दिव्य शक्ति की ओर ध्यान देने की प्रेरणा देता है।

श्लोक 13

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥13॥

अर्थ: “मैं पृथ्वी में प्रविष्ट होकर अपनी शक्ति से समस्त प्राणियों को धारण करता हूँ और सोम रूप में स्थित होकर समस्त औषधियों को रस प्रदान करता हूँ।”

व्याख्या: यह श्लोक परमात्मा की सर्वत्र उपस्थिति को दर्शाता है। वे अपनी शक्ति से प्राणियों को धारण करते हैं और चंद्रमा के रूप में औषधियों को पोषित करते हैं। यह हमें सिखाता है कि प्रकृति और जीवन का पोषण परमात्मा की शक्ति से ही संभव है, जिससे हमें उनकी दिव्य कृपा को समझने की प्रेरणा मिलती है।

श्लोक 14

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥14॥

अर्थ: “मैं प्राणियों के शरीर में स्थित होकर वैश्वानर अग्नि रूप से प्राण और अपान वायु के साथ मिलकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि परमात्मा पाचन अग्नि के रूप में प्राणियों के शरीर में रहकर भोजन को पचाते हैं। यह हमें सिखाता है कि जीवन की हर प्रक्रिया, जैसे पाचन, परमात्मा की शक्ति से संचालित होती है। यह हमें उनके प्रति कृतज्ञता और उनकी सर्वव्यापकता को समझने की प्रेरणा देता है।

श्लोक 15

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥15॥

अर्थ: “मैं सबके हृदय में स्थित हूँ; मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और भ्रम की उत्पत्ति होती है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही जानने योग्य हूँ, मैं ही वेदों का रचयिता और वेदों को जानने वाला हूँ।”

व्याख्या: यह श्लोक परमात्मा की सर्वोच्चता को दर्शाता है। वे सभी के हृदय में रहते हैं और स्मृति, ज्ञान, और विस्मृति के स्रोत हैं। वेदों का उद्देश्य भी उन्हें जानना है। यह हमें सिखाता है कि परमात्मा ही सत्य, ज्ञान, और आध्यात्मिकता का अंतिम लक्ष्य हैं, और हमें उनकी शरण लेनी चाहिए।

श्लोक 16

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥16॥

अर्थ: “इस संसार में दो प्रकार के पुरुष (जीव) हैं – क्षर (नाशवान) और अक्षर (अविनाशी)। सभी प्राणी नाशवान हैं और जो स्थिर आत्मा है, उसे अक्षर कहा गया है।”

व्याख्या: यह श्लोक दो प्रकार के पुरुषों—क्षर (नश्वर जीव और भौतिक संसार) और अक्षर (मुक्त आत्माएँ)—का वर्णन करता है। यह हमें सिखाता है कि संसार और जीव नश्वर हैं, जबकि अक्षर आत्मा अविनाशी है। यह हमें अपनी आत्मा के सनातन स्वरूप को समझने और भौतिक बंधनों से मुक्त होने की प्रेरणा देता है।

श्लोक 17

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥17॥

अर्थ: “परन्तु इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ पुरुष (उत्तम पुरुष) है, जिसे परमात्मा कहा गया है। वह तीनों लोकों में व्याप्त होकर इन्हें धारण करता है और अविनाशी ईश्वर कहलाता है।”

व्याख्या: यह श्लोक परमात्मा को पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत करता है, जो क्षर और अक्षर से परे है। वे तीनों लोकों में व्याप्त होकर सभी को संभालते हैं। यह हमें सिखाता है कि परमात्मा ही सर्वोच्च सत्य और विश्व का आधार हैं, और उनकी शरण में ही सच्ची मुक्ति है।

श्लोक 18

यस्मात्क्षरतमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥18॥

अर्थ: “क्योंकि मैं नाशवान (क्षर) और अविनाशी (अक्षर) दोनों से परे हूँ, इसलिए मैं लोक और वेदों में पुरुषोत्तम (श्रेष्ठतम पुरुष) के रूप में प्रसिद्ध हूँ।”

व्याख्या: यह श्लोक भगवान श्रीकृष्ण की पुरुषोत्तम के रूप में सर्वोच्चता को दर्शाता है। वे क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) दोनों से ऊपर हैं। यह हमें सिखाता है कि परमात्मा ही अंतिम सत्य हैं, और उनकी भक्ति हमें सांसारिक बंधनों से मुक्त करती है।

श्लोक 19

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥19॥

अर्थ: “हे भारत! जो मूढ़ता से रहित व्यक्ति मुझे इस प्रकार पुरुषोत्तम रूप में जानता है, वह सर्वज्ञ है और वह मुझे संपूर्ण भाव से भजता है।”

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि जो व्यक्ति परमात्मा को पुरुषोत्तम के रूप में समझता है, वह अज्ञान से मुक्त होकर पूर्ण भक्ति के साथ उनकी उपासना करता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान परमात्मा को जानने में है, और भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है।

श्लोक 20

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतबुद्धवा बुद्धिमान्स्यात्कृतमकृत्यश्च भारत ॥20॥

अर्थ: “हे निष्पाप अर्जुन! यह अत्यंत गुप्त शास्त्र मैंने तुमसे कहा है। इसे जानकर मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है और वह अपने कर्तव्य को पूर्ण कर चुका माना जाता है।”

व्याख्या: यह अंतिम श्लोक पुरुषोत्तम योग को सबसे गोपनीय और महत्वपूर्ण शास्त्र बताता है। इसे समझने वाला व्यक्ति ज्ञानी और जीवन में सफल हो जाता है। यह हमें सिखाता है कि इस अध्याय का ज्ञान जीवन को सार्थक बनाता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।


श्रीमद् भागवत गीता के पंद्रहवें अध्याय सारांश

श्रीमद्भगवद्गीता का पंद्रहवां अध्याय, जिसे पुरुषोत्तम योग कहा जाता है, गीता का सार माना जाता है। यह अध्याय छोटा होने के बावजूद बहुत गूढ़ और महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें आत्मा, परमात्मा, संसार, जीव और मोक्ष के रहस्य को संक्षेप में बताया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि यह संसार एक उल्टे पीपल के पेड़ जैसा है। इसकी जड़ें ऊपर (परमात्मा) में हैं और शाखाएं नीचे फैली हैं। इस पेड़ का नाम “अश्वत्थ वृक्ष” है और यह माया से बना है। जब कोई व्यक्ति भक्ति और ज्ञान के द्वारा माया को काट देता है, तब वह परमात्मा तक पहुंच सकता है।

अध्याय बताता है कि जीव (आत्मा) परमात्मा का हिस्सा है, लेकिन माया के कारण संसार में फँसकर जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकता है। यह आत्मा शरीर में रहकर मन और इंद्रियों का उपयोग करती है। जब शरीर खत्म होता है, तो यह आत्मा नया शरीर ले लेती है – जैसे हवा फूलों की खुशबू को एक जगह से दूसरी जगह ले जाती है।

भगवान तीन प्रकार के पुरुषों का वर्णन करते हैं –

  1. क्षर पुरुष: जो नाशवान हैं, जैसे सभी जीव।
  2. अक्षर पुरुष: जो अविनाशी है, यानी आत्मा।
  3. पुरुषोत्तम: जो सबसे श्रेष्ठ है – स्वयं भगवान, जो सबको धारण करते हैं और सबके हृदय में रहते हैं।

परमात्मा सूर्य, चंद्रमा, अग्नि और यहाँ तक कि हमारे शरीर की पाचन शक्ति में मौजूद हैं। वे सभी के हृदय में रहते हैं और ज्ञान का स्रोत हैं। मोक्ष पाने के लिए हमें इच्छाओं, अहंकार और सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर वैराग्य और भक्ति अपनानी चाहिए।

अंत में भगवान कहते हैं कि जिसने यह ज्ञान समझ लिया, वह बुद्धिमान कहलाता है और उसने अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य पूरा कर लिया होता है।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now