श्रीमद्भागवत गीता का बारहवाँ अध्याय “भक्तियोग” कहलाता है। जिसमें भक्ति के माध्यम से ईश्वर की प्राप्ति की सरल और प्रभावशाली विधि बताई गई है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति मार्ग की श्रेष्ठता को बताया है। उन्होंने बताया कि ईश्वर को पाने के लिए साकार भक्ति सरल और सहज मार्ग है, जो प्रेम, श्रद्धा और समर्पण पर आधारित है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 12: भक्तियोग (Bhagwat Geeta Chapter 12)
श्रीमद् भागवत गीता का बारहवाँ अध्याय, “भक्तियोग” है। यह अध्याय 20 श्लोकों में विभाजित है। इस अध्याय की शुरुआत अर्जुन के एक महत्वपूर्ण प्रश्न से होती है। वह भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि वे भक्त श्रेष्ठ हैं जो निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं या वे जो साकार रूप की भक्ति करते हैं। यह प्रश्न आज भी साधकों के मन में आता है, और भगवान श्रीकृष्ण ने इसका स्पष्ट उत्तर दिया। यह अध्याय गीता के संपूर्ण संदेश—कर्म, ज्ञान, और भक्ति के समन्वय—के साथ गहराई से जुड़ा है, जो आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति की ओर ले जाता है।
श्लोक 1
अर्जुन उवाच।
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥1॥
अर्थ: अर्जुन ने कहा: “हे भगवान! जो भक्त सदा आपकी भक्ति में लगे रहते हैं और आपके साकार रूप की उपासना करते हैं, तथा जो व्यक्ति अविनाशी, अप्रकट (निराकार) ब्रह्म की उपासना करते हैं — इन दोनों में से कौन-से योग में अधिक निपुण (श्रेष्ठ) माने जाते हैं?”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से भक्ति के दो मार्गों—सगुण (भगवान के व्यक्तिगत रूप की उपासना) और निर्गुण (निराकार ब्रह्म की उपासना)—के बीच श्रेष्ठता के बारे में पूछते हैं। यह प्रश्न भक्तियोग के स्वरूप को समझने की नींव रखता है। सगुण भक्ति प्रेम और श्रद्धा पर आधारित है, जबकि निर्गुण भक्ति ज्ञान और ध्यान पर। अर्जुन जानना चाहते हैं कि कौन सा मार्ग भगवान की प्राप्ति के लिए अधिक प्रभावी है। यह प्रश्न हर साधक के मन में उठने वाला है और श्रीकृष्ण के उत्तर के लिए मंच तैयार करता है।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच।
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥2॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: “जो लोग अपने मन को मुझमें लगाकर, सदा मेरी उपासना करते हैं और परम श्रद्धा से युक्त हैं — वे मेरे मत में योग में श्रेष्ठ माने जाते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि जो भक्त सगुण रूप (श्रीकृष्ण के व्यक्तिगत रूप) की उपासना पूर्ण श्रद्धा और निरंतरता से करते हैं, वे योग में सबसे श्रेष्ठ हैं। यहाँ सगुण भक्ति को प्राथमिकता दी गई है, क्योंकि यह प्रेम और समर्पण पर आधारित है, जो मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुकूल है। यह श्लोक भक्तियोग की सरलता और प्रभावशीलता को रेखांकित करता है।
श्लोक 3
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते ।
सर्वत्रगमचिन्त्यञ्च कूटस्थमचलन्ध्रुवम् ॥3॥
अर्थ: “परंतु जो लोग अविनाशी, अव्यक्त, वर्णनातीत, सर्वव्यापी, अचिंत्य, अचल, अचल स्वरूप और स्थिर ब्रह्म की उपासना करते हैं।”
व्याख्या: यह श्लोक निर्गुण भक्ति का वर्णन करता है, जिसमें साधक निराकार, अव्यक्त ब्रह्म की उपासना करते हैं। श्रीकृष्ण ब्रह्म के गुणों—सर्वत्र व्याप्त, अचिन्त्य, अचल और शाश्वत—का उल्लेख करते हैं। यह मार्ग ज्ञान और ध्यान पर आधारित है, जो कठिन और तपस्वियों के लिए उपयुक्त है। यह श्लोक अगले श्लोक के साथ पूर्ण होता है, जो निर्गुण भक्ति की प्रक्रिया को और स्पष्ट करता है।
श्लोक 4
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥4॥
अर्थ: “और जो अपने इन्द्रियों को नियंत्रित रखते हैं, समभाव से सबको देखते हैं, तथा सभी प्राणियों के हित में लगे रहते हैं — वे भी अंततः मुझे ही प्राप्त करते हैं।”
व्याख्या: यह श्लोक निर्गुण भक्ति की प्रक्रिया और फल को पूरा करता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि निर्गुण उपासक, जो इन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं, समदृष्टि अपनाते हैं और सभी के कल्याण में लगे रहते हैं, अंततः भगवान को प्राप्त करते हैं। यह मार्ग कठिन है, लेकिन इसका लक्ष्य भी वही है—परमात्मा की प्राप्ति। यह श्लोक सगुण और निर्गुण भक्ति के अंतिम लक्ष्य की एकता को दर्शाता है।
श्लोक 5
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥5॥
अर्थ: “परंतु जिनका चित्त अव्यक्त (निराकार) ब्रह्म में लगा होता है, उनके लिए साधना का मार्ग अधिक कठिन होता है; क्योंकि देहधारी (शरीर वाले) व्यक्तियों के लिए अव्यक्त मार्ग को प्राप्त करना अत्यंत कठिन है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि निर्गुण भक्ति का मार्ग अधिक कठिन है, क्योंकि निराकार ब्रह्म की उपासना में मन को स्थिर करना और इन्द्रियों को पूर्णतः नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण है। देहधारी मनुष्य के लिए सगुण भक्ति सरल है, क्योंकि यह प्रेम और भावनाओं पर आधारित है। यह श्लोक सगुण भक्ति को सामान्य जन के लिए अधिक सुलभ और व्यावहारिक बताता है।
श्लोक 6
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संत्र्यस्य मत्परः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥6॥
अर्थ: “लेकिन जो लोग अपने सभी कर्मों को मुझमें समर्पित करके, मुझे ही परम लक्ष्य मानकर, एकनिष्ठ भाव से मेरी भक्ति और ध्यान में लगे रहते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण सगुण भक्ति की महत्ता बताते हैं। जो भक्त अपने सभी कर्म, मन और बुद्धि को भगवान में अर्पित करते हैं और अनन्य भक्ति (केवल भगवान पर केंद्रित) के साथ उनकी उपासना करते हैं, वे भगवान के विशेष कृपापात्र होते हैं। यह श्लोक भक्तियोग की अनन्यता और समर्पण पर जोर देता है। (नोट: यह श्लोक अगले श्लोक 7 के साथ पूर्ण होता है।)
श्लोक 7
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥7॥
अर्थ: “हे पार्थ! जिनका चित्त मुझमें स्थिर है, मैं उन्हें जन्म और मृत्यु के इस संसार-सागर से शीघ्र ही उबार लेता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि अनन्य भक्तों, जिनका मन भगवान में पूर्णतः लीन है, को वे शीघ्र ही जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करते हैं। यह श्लोक भक्तियोग की शक्ति और भगवान की कृपा को दर्शाता है, जो भक्त को मोक्ष की ओर ले जाती है।
श्लोक 8
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥8॥
अर्थ: तू अपना मन मुझमें लगा और अपनी बुद्धि को भी मुझमें स्थिर कर; फिर तू निश्चित ही सदा मुझमें वास करेगा — इसमें कोई संदेह नहीं।
व्याख्या: श्रीकृष्ण भक्त को अपने मन और बुद्धि को पूरी तरह भगवान में केंद्रित करने का निर्देश देते हैं। ऐसा करने से भक्त भगवान के साथ एकरूप हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है। यह श्लोक भक्तियोग की सरलता और मन के नियंत्रण पर बल देता है।
श्लोक 9
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम् ।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय ॥9॥
अर्थ: “हे धनञ्जय (अर्जुन)! यदि तू अपना चित्त मुझमें स्थिर करने में असमर्थ है, तो अभ्यास योग द्वारा मुझे प्राप्त करने की चेष्टा कर।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण उन भक्तों को मार्गदर्शन देते हैं, जिन्हें मन को भगवान पर स्थिर करना कठिन लगता है। वे अभ्यासयोग (निरंतर अभ्यास) के माध्यम से मन को नियंत्रित करने का सुझाव देते हैं। यह श्लोक भक्तियोग की लचीलापन को दर्शाता है, जो सभी साधकों के लिए उपयुक्त है।
श्लोक 10
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥10॥
अर्थ: “यदि अभ्यास में भी तू असमर्थ है, तो मेरे लिए कर्म करने में ही लग जा। इस प्रकार मेरे लिए कर्म करते हुए भी तू सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त कर लेगा।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण उन लोगों के लिए और सरल मार्ग बताते हैं, जो अभ्यासयोग में असमर्थ हैं। वे कहते हैं कि भक्त अपने कर्मों को भगवान के लिए समर्पित कर दे। यह कर्मयोग और भक्तियोग का समन्वय है, जो सभी कर्मों को भगवान को अर्पित करने पर केंद्रित है। यह श्लोक भक्तियोग की सुलभता को रेखांकित करता है।
श्लोक 11
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥11॥
अर्थ: “यदि तू मेरे लिए कर्म करना भी नहीं कर सकता, तो समस्त कर्मों के फल का त्याग कर दे और आत्मसंयमी बनकर कार्य कर।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण उन लोगों के लिए और भी सरल मार्ग सुझाते हैं, जो अभ्यासयोग या कर्मों को भगवान को समर्पित करने में असमर्थ हैं। वे कहते हैं कि भक्त भगवान की शरण में रहकर कर्मों के फल का त्याग कर दे। यह कर्मफल त्याग का मार्ग है, जो भक्तियोग को सभी के लिए सुलभ बनाता है। यह श्लोक निःस्वार्थ कर्म पर जोर देता है।
श्लोक 12
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥12॥
अर्थ: “अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ है, और ध्यान से कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्याग के बाद ही शांति प्राप्त होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आध्यात्मिक प्रगति के विभिन्न चरणों की तुलना करते हैं। अभ्यास से ज्ञान बेहतर है, ज्ञान से ध्यान, और ध्यान से कर्मफल का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि यह मन को शुद्ध करता है और शांति प्रदान करता है। यह श्लोक भक्तियोग और कर्मयोग के समन्वय को दर्शाता है, जो अंततः शांति की ओर ले जाता है।
श्लोक 13
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ॥13॥
अर्थ: “जो सभी प्राणियों से द्वेष नहीं करता, सबका मित्र और करुणामय होता है, जो ममता और अहंकार से रहित होता है, सुख-दुख में सम रहता है और क्षमाशील होता है — वह भक्त मुझे प्रिय है।”
व्याख्या: यह श्लोक एक आदर्श भक्त के गुणों का वर्णन शुरू करता है। ऐसा भक्त सभी के प्रति मैत्री और करुणा रखता है, ममता और अहंकार से मुक्त होता है, और सुख-दुख में समभाव रखता है। क्षमाशीलता उसका स्वभाव है। यह श्लोक भक्त के आध्यात्मिक और नैतिक गुणों को रेखांकित करता है। (नोट: यह श्लोक 14 के साथ पूर्ण होता है।)
श्लोक 14
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥14॥
अर्थ: “जो भक्त सदा संतुष्ट रहता है, योग में स्थित रहता है, आत्म-संयमी होता है, और जिसकी बुद्धि व मन मुझमें अर्पित हैं — वह मुझे अत्यंत प्रिय है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आदर्श भक्त के और गुण बताते हैं। ऐसा भक्त संतुष्ट, आत्मनियंत्रित, और दृढ़ विश्वास वाला होता है। उसका मन और बुद्धि भगवान में पूर्णतः समर्पित होते हैं। यह श्लोक भक्तियोग की गहराई और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण को दर्शाता है, जो भक्त को भगवान का प्रिय बनाता है।
श्लोक 15
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकानोद्विजते च यः ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः ॥15॥
अर्थ: “जिससे संसार को कोई कष्ट नहीं होता और जो स्वयं भी संसार से विचलित नहीं होता, जो हर्ष, अमर्ष (क्रोध), भय और उद्वेग से मुक्त रहता है — ऐसा भक्त भी मुझे प्रिय है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण भक्त के और गुणों का वर्णन करते हैं। ऐसा भक्त न दूसरों को कष्ट देता है और न ही संसार के कारण स्वयं विचलित होता है। वह हर्ष, क्रोध, भय, और चिंता जैसे भावों से मुक्त होता है। यह श्लोक भक्त के शांत और संतुलित स्वभाव को दर्शाता है, जो उसे भगवान का प्रिय बनाता है।
श्लोक 16
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः ॥16॥
अर्थ: “जो आसक्ति रहित है, भीतर और बाहर से शुद्ध है, कुशल और निपुण है, उदासीन (तटस्थ) है, शोक रहित है और सभी आरंभों (कर्मों) का त्यागी है — ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आदर्श भक्त के और गुण बताते हैं। ऐसा भक्त अपेक्षा और स्वार्थ से मुक्त, शुद्ध हृदय, कार्य में कुशल, सांसारिक मोह से उदासीन, और दुखों से विचलित न होने वाला होता है। वह कर्मों के फल की इच्छा त्याग देता है। यह श्लोक भक्त के निःस्वार्थ और शांत स्वभाव को रेखांकित करता है।
श्लोक 17
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥17॥
अर्थ: “जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कुछ चाहता है, जो शुभ और अशुभ दोनों का त्यागी है — ऐसा भक्त, जो भक्ति से युक्त है, मुझे प्रिय है।”
व्याख्या: यह श्लोक भक्त के समभाव को और गहराई से दर्शाता है। ऐसा भक्त सुख में हर्ष, दुख में शोक, या किसी से द्वेष नहीं करता और न ही सांसारिक इच्छाएँ रखता है। वह शुभ और अशुभ के भेद से परे होता है। यह गुण भक्त के मन की शांति और भगवान के प्रति पूर्ण भक्ति को दर्शाते हैं।
श्लोक 18
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥18॥
अर्थ: “जो शत्रु-मित्र, मान-अपमान, शीत-उष्ण, सुख-दुख — इन सभी में समभाव रखता है और आसक्ति से मुक्त है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण भक्त के समदृष्टि स्वभाव का वर्णन करते हैं। ऐसा भक्त सभी परिस्थितियों—शत्रु-मित्र, मान-अपमान, सुख-दुख—में समान भाव रखता है और सांसारिक आसक्ति से मुक्त होता है। यह श्लोक भक्त के संतुलित और निष्पक्ष स्वभाव को दर्शाता है। (नोट: यह श्लोक 19 के साथ पूर्ण होता है।)
श्लोक 19
तुल्यनिन्दास्तुतिमौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥19॥
अर्थ: “जो निंदा और स्तुति में समान रहता है, मौन रहता है, किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट रहता है, घर-गृहस्थी में आसक्त नहीं रहता, जिसकी बुद्धि स्थिर है — ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।”
व्याख्या: यह श्लोक भक्त के और गुणों को स्पष्ट करता है। वह निंदा-स्तुति से अप्रभावित, कम बोलने वाला, हर परिस्थिति में संतुष्ट, और स्थायी सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है। उसकी बुद्धि भगवान में स्थिर होती है। यह भक्तियोग की गहराई और भक्त के संतुलित जीवन को दर्शाता है।
श्लोक 20
ये तु धामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः ॥20॥
अर्थ: “जो भक्त श्रद्धा के साथ इस धर्मरूप अमृत (भक्ति मार्ग) का अनुसरण करते हैं, और मुझे ही परम मानते हैं — वे भक्त मुझे अत्यंत प्रिय हैं।”
व्याख्या: इस अंतिम श्लोक में श्रीकृष्ण बारहवें अध्याय का सार प्रस्तुत करते हैं। जो भक्त श्रद्धा और समर्पण के साथ भक्तियोग का पालन करते हैं और भगवान को सर्वोच्च मानते हैं, वे सबसे श्रेष्ठ और भगवान के अति प्रिय हैं। यह श्लोक भक्तियोग की महत्ता और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण को रेखांकित करता है।
श्रीमद् भागवत गीता के छठे अध्याय सारांश
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न के उत्तर में भक्ति के दो मार्गों—सगुण (भगवान के व्यक्तिगत रूप की उपासना) और निर्गुण (निराकार ब्रह्म की उपासना)—की तुलना करते हैं। अर्जुन पूछते हैं कि इनमें से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि सगुण भक्ति अधिक सरल और सुलभ है, क्योंकि यह प्रेम और श्रद्धा पर आधारित है, जो देहधारी मनुष्यों के लिए स्वाभाविक है। हालाँकि, दोनों मार्ग अंततः भगवान तक ले जाते हैं।
श्रीकृष्ण भक्तियोग के अभ्यास के विभिन्न स्तर सुझाते हैं:
- मन और बुद्धि का समर्पण: भक्त को अपना मन और बुद्धि भगवान में स्थिर करना चाहिए।
- अभ्यासयोग: यदि मन स्थिर करना कठिन हो, तो निरंतर अभ्यास द्वारा भगवान को प्राप्त करने का प्रयास करें।
- कर्म समर्पण: यदि अभ्यास भी कठिन हो, तो सभी कर्म भगवान को अर्पित करें।
- कर्मफल त्याग: यदि यह भी संभव न हो, तो कर्मों के फल का त्याग करें।
इसके बाद, श्रीकृष्ण एक आदर्श भक्त के गुणों का वर्णन करते हैं, जैसे:
- द्वेषरहित, मैत्रीभाव, करुणामय: सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा।
- निर्मम, निरहंकार: ममता और अहंकार से मुक्त।
- समदृष्टि: सुख-दुख, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समान भाव।
- संतुष्ट, क्षमाशील, स्थिरबुद्धि: हर स्थिति में संतुष्ट और भगवान में दृढ़ विश्वास।
- निःस्वार्थ और शांत: निंदा-स्तुति, हर्ष-शोक से अप्रभावित और सांसारिक आसक्ति से मुक्त।
भक्तियोग सभी के लिए सुलभ मार्ग है, जो प्रेम, श्रद्धा, और समर्पण के माध्यम से भगवान की प्राप्ति और मोक्ष प्रदान करता है। श्रीकृष्ण सगुण भक्ति को सरल और प्रभावी बताते हैं, और जो भक्त पूर्ण समर्पण के साथ उनकी शरण लेते हैं, वे उन्हें अति प्रिय हैं और संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
यह अध्याय आधुनिक जीवन में तनाव और भौतिकवाद के बीच शांति और संतुलन के लिए भक्ति को एक व्यावहारिक और प्रभावी मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है।