श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 18: मोक्ष संन्यास योग | Bhagwat Geeta Chapter 18

श्रीमद्भागवत गीता का अठारहवां अध्याय “मोक्ष संन्यास योग” कहलाता है। गीता का अठारहवां और अंतिम अध्याय “मोक्ष संन्यास योग” पूरे ग्रंथ का सार प्रस्तुत करता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संन्यास, त्याग, कर्तव्य, भक्ति, स्वधर्म और परम मोक्ष का गूढ़ रहस्य समझाते हैं।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 18: मोक्ष संन्यास योग (Bhagwat Geeta Chapter 18)

श्रीमद् भागवत गीता का अठारहवां अध्याय, “मोक्ष संन्यास योग” है। यह अध्याय कुल 78 श्लोकों में विभाजित है और यह गीता का सबसे लंबा अध्याय है। गीता के पहले सत्रह अध्यायों में, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म, भक्ति और ज्ञान के विभिन्न पहलुओं के बारे में उपदेश दिए।

अठारहवाँ अध्याय इन सभी शिक्षाओं का समन्वय करता है और अर्जुन के अंतिम प्रश्नों का उत्तर देता है। इस अध्याय की शुरुआत अर्जुन के एक महत्वपूर्ण प्रश्न से होती है: संन्यास और त्याग में क्या अंतर है? श्रीकृष्ण इस प्रश्न के जवाब में संन्यास और त्याग की गहन व्याख्या करते हैं, जो इस अध्याय का आधार बनता है।

श्लोक 1

अर्जुन उवाच।
सन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥1॥

अर्थ: अर्जुन ने कहा: “हे महाबाहु (श्रीकृष्ण), मैं संन्यास के तत्त्व (सच्चाई) को जानना चाहता हूँ, और हे हृषीकेश, हे केशिनिषूदन (असुर केशी का वध करने वाले), त्याग के तत्त्व को भी पृथक्-पृथक् समझना चाहता हूँ।

व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से दो महत्वपूर्ण शब्दों – ‘संन्यास’ और ‘त्याग’ के वास्तविक अर्थ जानने की इच्छा प्रकट करता है। वह यह जानना चाहता है कि दोनों में क्या अंतर है, और किसका क्या महत्व है। यह प्रश्न पूरे अठारहवें अध्याय की शुरुआत और विषयवस्तु को निर्धारित करता है।

श्लोक 2

श्रीभगवानुवाच।
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ॥2॥

अर्थ: श्रीभगवान बोले: “विद्वान लोग इच्छित फल देने वाले कर्मों के परित्याग को संन्यास कहते हैं, और विचक्षण (विवेकशील) लोग सभी कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए संन्यास और त्याग के बीच अंतर स्पष्ट करते हैं। संन्यास का अर्थ है इच्छा से प्रेरित कर्मों (जैसे धन या प्रसिद्धि के लिए कर्म) को छोड़ना, जबकि त्याग का अर्थ है सभी कर्मों के फल की इच्छा को छोड़ देना। यह कर्मयोग का आधार है, जहाँ कर्म निःस्वार्थ भाव से किए जाते हैं।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now

श्लोक 3

त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः ।
यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥3॥

अर्थ: “कुछ ज्ञानी यह मानते हैं कि सभी कर्म को दोषयुक्त मानकर त्याग देना चाहिए; परंतु कुछ अन्य ज्ञानी कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों को नहीं त्यागना चाहिए।”

व्याख्या: यहाँ श्रीकृष्ण विभिन्न दार्शनिक मतों को प्रस्तुत करते हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि सभी कर्म दोषपूर्ण हैं और उन्हें छोड़ देना चाहिए, जबकि अन्य का मानना है कि यज्ञ, दान और तप जैसे शुद्ध कर्मों को करना आवश्यक है। यह श्लोक संन्यास के विभिन्न दृष्टिकोणों को दर्शाता है और आगे के श्लोकों में इसका समाधान प्रस्तुत करता है।

श्लोक 4

निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम।
त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ॥4॥

अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन! अब त्याग के विषय में मेरा निश्चित मत सुनो, हे पुरुषों में श्रेष्ठ (अर्जुन), त्याग तीन प्रकार का कहा गया है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि वे त्याग के विषय में स्पष्ट और निश्चित विचार प्रस्तुत करेंगे। वे बताते हैं कि त्याग तीन प्रकार का होता है सात्विक, राजसिक और तामसिक। यह श्लोक अगले श्लोकों में इन प्रकारों की विस्तृत व्याख्या का आधार तैयार करता है।

श्लोक 5

यज्ञदानतपः कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥5॥

अर्थ: “यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए,बल्कि इन्हें करना ही चाहिए क्योंकि ये ज्ञानी लोगों को शुद्ध करने वाले कर्म हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि यज्ञ, दान और तप जैसे शुद्ध कर्मों को छोड़ना उचित नहीं है। ये कर्म आत्मा को शुद्ध करते हैं और आध्यात्मिक उन्नति में सहायक हैं। यह कर्मयोग का सिद्धांत है, जो निःस्वार्थ कर्म पर बल देता है।

श्लोक 6

एतान्यपित तु कर्माणि सऊं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ॥6॥

अर्थ: “हे पार्थ (अर्जुन), इन कर्मों को भी आसक्ति और फल की इच्छा को त्यागकर करना चाहिए। यह मेरा निश्चित और उत्तम मत है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण सात्विक त्याग पर जोर देते हैं। यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मों को बिना आसक्ति और फल की इच्छा के करना चाहिए। यह कर्मयोग का मूल सिद्धांत है, जो कर्म को कर्तव्य के रूप में देखता है, न कि फल प्राप्ति के साधन के रूप में।

श्लोक 7

नियतस्य तु सन्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ॥7॥

अर्थ: “नियत (शास्त्रविहित) कर्मों का संन्यास उचित नहीं है। अज्ञान (मोह) के कारण उनका परित्याग तामसिक कहा जाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि शास्त्रों द्वारा निर्धारित कर्तव्यों (जैसे स्वधर्म) को छोड़ना उचित नहीं है। यदि कोई अज्ञान या भ्रम के कारण इन कर्मों को त्याग देता है, तो वह तामसिक त्याग है, जो हानिकारक और अवांछनीय है। यह श्लोक सात्विक और तामसिक त्याग के बीच अंतर को रेखांकित करता है।

श्लोक 8

दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥8॥

अर्थ: “जो व्यक्ति कर्म को दुखदायी समझकर या शारीरिक कष्ट के भय से त्याग देता है, वह राजसिक त्याग करता है और उसे त्याग का फल प्राप्त नहीं होता।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण राजसिक त्याग की व्याख्या करते हैं, जो स्वार्थ या भय के कारण कर्मों को छोड़ना है। ऐसा त्याग सात्विक नहीं है, क्योंकि यह कर्तव्य से भागने का परिणाम है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति या मोक्ष की ओर नहीं ले जाता।

श्लोक 9

कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥9॥

अर्थ: “हे अर्जुन! जो नियत (कर्तव्य) कर्म केवल इसलिए किया जाता है कि “यह करना चाहिए”, और जो कर्म संग तथा फल की आशा छोड़कर किया जाता है –वह त्याग सात्त्विक कहलाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण सात्विक त्याग की परिभाषा देते हैं। सात्विक त्याग में व्यक्ति अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करता है, बिना किसी स्वार्थ या फल की अपेक्षा के। यह कर्मयोग का उच्चतम रूप है, जो निःस्वार्थता और शुद्धता को दर्शाता है।

श्लोक 10

न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥10॥

अर्थ: “सात्त्विक त्यागी अकुशल (कठिन या दुखदायी) कर्म से घृणा नहीं करता, और सुखद या आसान कर्म में आसक्त भी नहीं होता। वह बुद्धिमान, संदेहों से रहित और सत्त्वगुण से युक्त होता है।”

व्याख्या: सात्विक त्यागी वह है जो कर्मों की न तो घृणा करता है और न ही उनमें आसक्त होता है। वह सत्वगुण से प्रेरित होकर, विवेक और संदेहरहित मन के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करता है। यह श्लोक सात्विक मनोवृत्ति की श्रेष्ठता को दर्शाता है।

श्लोक 11

न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ॥11॥

अर्थ: “देहधारी (मनुष्य) के लिए सभी कर्मों को पूर्णतः त्यागना संभव नहीं है। जो कर्मों के फल का त्याग करता है, वही वास्तव में त्यागी कहलाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि जीवित रहते हुए सभी कर्मों को छोड़ना असंभव है। सच्चा त्यागी वह है जो कर्म करता है, लेकिन उनके फल की इच्छा को छोड़ देता है। यह कर्मयोग का मूल सिद्धांत है, जो निःस्वार्थ कर्म पर बल देता है।

श्लोक 12

अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम्।
भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु सन्यासिनां क्वचित् ॥12॥

अर्थ: “जो कर्म फल की इच्छा से किया जाता है, उसका फल तीन प्रकार का होता है –अनिष्ट (अप्रिय), इष्ट (प्रिय) और मिश्रित। परंतु त्यागियों (संन्यासियों) को ऐसा कोई फल नहीं बांधता।”

व्याख्या: जो लोग कर्मों के फल की इच्छा रखते हैं, उन्हें उनके कर्मों के अनुसार सुख, दुख या मिश्रित फल मिलता है। लेकिन सात्विक संन्यासी, जो फल की इच्छा त्याग देता है, इन बंधनों से मुक्त रहता है। यह श्लोक मोक्ष की ओर ले जाने वाले त्याग की महत्ता को दर्शाता है।

श्लोक 13

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे।
साड्,ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥13॥

अर्थ: “हे महाबाहो अर्जुन! अब सांख्य दर्शन में बताए गएपाँच कारणों को जानो, जो सभी कर्मों की सिद्धि (पूरा होने) के लिए ज़रूरी माने गए हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कर्मों की सिद्धि के पाँच कारणों की चर्चा शुरू करते हैं, जो सांख्य दर्शन पर आधारित हैं। ये कारण कर्म के विभिन्न पहलुओं को समझने में मदद करते हैं। यह श्लोक अगले श्लोक में इन कारणों के वर्णन का आधार तैयार करता है।

श्लोक 14

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥14॥

अर्थ: “कर्म की सिद्धि के लिए पाँच कारण हैं: अधिष्ठान (शरीर), कर्ता (जीव), विभिन्न करण (इंद्रियाँ), विविध चेष्टाएँ (प्रयास), और पाँचवाँ दैव (प्रारब्ध या भाग्य)।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कर्म के पाँच कारणों का वर्णन करते हैं, जो किसी भी कार्य की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं। ये कारण हैं—शारीरिक आधार, कर्ता, इंद्रियाँ, प्रयास और दैव (ईश्वरीय इच्छा या भाग्य)। यह श्लोक कर्म के जटिल स्वरूप को समझने में मदद करता है।

श्लोक 15

शरीरवाड्.मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ॥15॥

अर्थ: मनुष्य जो भी कर्म शरीर, वाणी या मन से करता है, चाहे वह उचित हो या अनुचित, उसके लिए ये पाँच कारण ही जिम्मेदार हैं।

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि सभी कर्म—चाहे अच्छे हों या बुरे—पिछले श्लोक में वर्णित पाँच कारणों से ही संचालित होते हैं। यह कर्मों की उत्पत्ति और उनके परिणामों को समझने के लिए एक दार्शनिक ढाँचा प्रदान करता है।

श्लोक 16

तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्नं स पश्यति दुर्मतिः ॥16॥

अर्थ: “इस प्रकार (पाँच कारणों के होने पर भी), जो व्यक्ति केवल अपने आप को ही कर्म का कर्ता मानता है, वह अपनी अशुद्ध बुद्धि के कारण यथार्थ को नहीं देखता और मूर्ख है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति यह समझता है कि वह अकेला ही कर्म का कर्ता है, वह अज्ञान में है। कर्म के पाँच कारणों (श्लोक 14) को नजरअंदाज करने वाला व्यक्ति सत्य को नहीं समझ पाता। यह श्लोक अहंकार को छोड़ने और कर्मों के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाने पर जोर देता है।

श्लोक 17

यस्य नाहड्.कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वाऽपि स इमॉल्लोकान हन्ति न निबध्यते ॥17॥

अर्थ: जिसका अहंकार का भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि कर्मों से लिप्त नहीं होती, वह इन समस्त लोकों को मारकर भी न तो मारता है और न ही बंधन में पड़ता है।

व्याख्या: यह श्लोक सात्विक व्यक्ति की विशेषताएँ बताता है। जो अहंकार और कर्मफल की आसक्ति से मुक्त है, वह कर्मों के परिणामों से बंधता नहीं। यह अर्जुन को युद्ध में अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए प्रेरित करता है, बिना परिणामों की चिंता किए।

श्लोक 18

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना।
करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥18॥

अर्थ: “ज्ञान, ज्ञेय (जानने योग्य विषय), और परिज्ञाता (जानने वाला) कर्म की प्रेरणा के तीन अंग हैं। करण (साधन), कर्म, और कर्ता कर्म के संग्रह के तीन अंग हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कर्म की प्रक्रिया को दो त्रिविध समूहों में बाँटते हैं: प्रेरणा (ज्ञान, ज्ञेय, परिज्ञाता) और संग्रह (करण, कर्म, कर्ता)। यह श्लोक कर्म के सैद्धांतिक ढाँचे को समझने में मदद करता है और अगले श्लोकों में इनके गुणों की चर्चा का आधार बनता है।

श्लोक 19

ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदतः।
प्रोच्यते गुणसड्.ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ॥19॥

अर्थ: “ज्ञान, कर्म और कर्ता को गुणों (सत्व, रजस, तमस) के आधार पर तीन प्रकार का कहा गया है। गुणों के सांख्य दर्शन के अनुसार इनका यथार्थ स्वरूप सुनो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि ज्ञान, कर्म और कर्ता को प्रकृति के तीन गुणों सत्व, रजस, और तमस के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। यह श्लोक अगले श्लोकों में इनके सात्विक, राजसिक, और तामसिक स्वरूपों की व्याख्या का आधार तैयार करता है।

श्लोक 20

सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञाानं विद्धि सात्त्विकम् ॥20॥

अर्थ: “जो ज्ञान सभी प्राणियों में एक अविनाशी भाव को देखता है, जो भेद होने पर भी अभेद (एकता) को देखता है, उसे सात्विक ज्ञान समझो।”

व्याख्या: सात्विक ज्ञान वह है जो सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा को देखता है, भेदभाव से परे। यह ज्ञान एकता और आध्यात्मिक सत्य को प्रकट करता है, जो मोक्ष की ओर ले जाता है।

श्लोक 21

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।
वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ॥21॥

अर्थ: “जो ज्ञान सभी प्राणियों में विभिन्न भावों को पृथक्-पृथक् रूप में देखता है, उसे राजसिक ज्ञान समझो।”

व्याख्या: राजसिक ज्ञान भेदभाव पर आधारित है, जो प्राणियों को अलग-अलग रूप में देखता है। यह ज्ञान सतही और सीमित होता है, क्योंकि यह एकता के बजाय विविधता पर ध्यान देता है।

श्लोक 22

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥22॥

अर्थ: “जो ज्ञान एक कार्य (विषय) में ही संपूर्ण की तरह आसक्त होता है, बिना कारण के, सत्य से रहित और तुच्छ होता है, वह तामसिक ज्ञान कहलाता है।”

व्याख्या: तामसिक ज्ञान सीमित, अज्ञानपूर्ण और बिना तार्किक आधार के होता है। यह केवल एक छोटे से विषय पर आसक्ति रखता है और सत्य को नहीं समझता, जिससे अज्ञान बढ़ता है।

श्लोक 23

नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम्।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ॥23॥

अर्थ: “जो कर्म शास्त्रविहित, आसक्ति रहित, राग-द्वेष के बिना, और फल की इच्छा के बिना किया जाता है, वह सात्विक कर्म कहलाता है।”

व्याख्या: सात्विक कर्म वह है जो कर्तव्य के रूप में, बिना स्वार्थ, राग-द्वेष या फल की इच्छा के किया जाता है। यह कर्म शुद्ध और आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है, कर्मयोग के सिद्धांत को दर्शाता है।

श्लोक 24

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः ।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ॥24॥

अर्थ: “जो कर्म इच्छाओं की पूर्ति के लिए या अहंकार के साथ बहुत परिश्रम से किया जाता है, वह राजसिक कर्म कहलाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण राजसिक कर्म की विशेषता बताते हैं, जो स्वार्थ, इच्छाओं या अहंकार से प्रेरित होता है। ऐसा कर्म अधिक परिश्रम माँगता है और सांसारिक बंधनों को बढ़ाता है, क्योंकि यह निःस्वार्थता से रहित होता है।

श्लोक 25

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥25॥

अर्थ: “जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और अपनी क्षमता को न विचारकर, अज्ञानवश शुरू किया जाता है, वह तामसिक कर्म कहलाता है।”

व्याख्या: तामसिक कर्म अज्ञान, लापरवाही और परिणामों की अनदेखी से किया जाता है। यह कर्म दूसरों को हानि पहुँचाता है और बिना विवेक के शुरू होता है, जिससे नकारात्मक परिणाम होते हैं।

श्लोक 26

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्ध्योसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥26॥

अर्थ: “जो कर्ता आसक्ति से मुक्त, अहंकार रहित, धैर्य और उत्साह से युक्त, और सिद्धि-असिद्धि में समान रहता है, वह सात्विक कर्ता कहलाता है।”

व्याख्या: सात्विक कर्ता वह है जो निःस्वार्थ, बिना अहंकार, धैर्य और उत्साह के साथ कर्म करता है। वह सफलता या असफलता में विचलित नहीं होता, जो उसे आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ बनाता है।

श्लोक 27

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥27॥

अर्थ: “जो कर्ता रागी, कर्मफल की इच्छा रखने वाला, लोभी, हिंसक, अशुद्ध और हर्ष-शोक से युक्त होता है, वह राजसिक कर्ता कहलाता है।”

व्याख्या: राजसिक कर्ता स्वार्थ, लालच और कर्मफल की इच्छा से प्रेरित होता है। वह हिंसा और अशुद्धता में लिप्त रहता है, और उसका मन सुख-दुख में अस्थिर रहता है।

श्लोक 28

अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ॥28॥

अर्थ: “जो कर्ता असंयमी, अशिक्षित, हठी, धूर्त, दूसरों को कष्ट देने वाला, आलसी, उदास और दीर्घसूत्री (टालमटोल करने वाला) है, वह तामसिक कर्ता कहलाता है।”

व्याख्या: तामसिक कर्ता अज्ञान और आलस्य से ग्रस्त होता है। वह अनुशासनहीन, धोखेबाज, और कार्य में विलंब करने वाला होता है, जो नकारात्मक और हानिकारक व्यवहार को दर्शाता है।

श्लोक 29

बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं शृणु।
प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनञ्जय ॥29॥

अर्थ: “हे धनंजय (अर्जुन), बुद्धि और धृति (दृढ़ता) के तीन प्रकारों को, जो गुणों (सत्व, रजस, तमस) के आधार पर हैं, पृथक्-पृथक् और पूर्ण रूप से सुनो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अब बुद्धि और धृति के सात्विक, राजसिक, और तामसिक स्वरूपों की व्याख्या शुरू करते हैं। यह श्लोक अगले श्लोकों में इनके विस्तृत वर्णन का आधार तैयार करता है।

श्लोक 30

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥30॥

अर्थ: “हे पार्थ, जो बुद्धि प्रवृत्ति (कर्तव्य) और निवृत्ति (त्याग), कार्य और अकार्य, भय और अभय, बंधन और मोक्ष को जानती है, वह सात्विक बुद्धि है।”

व्याख्या: सात्विक बुद्धि सही और गलत, कर्तव्य और त्याग, बंधन और मोक्ष के बीच स्पष्ट भेद करती है। यह विवेकपूर्ण और आध्यात्मिक दृष्टि प्रदान करती है, जो जीवन में सही मार्ग दिखाती है।

श्लोक 31

यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च ।
अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ॥31॥

अर्थ: “हे पार्थ, जो बुद्धि धर्म और अधर्म, कार्य और अकार्य को यथार्थ रूप से नहीं समझ पाती, वह राजसिक बुद्धि है।”

व्याख्या: राजसिक बुद्धि भ्रमित और अस्थिर होती है, जो सही और गलत के बीच स्पष्ट भेद नहीं कर पाती। यह स्वार्थ और इच्छाओं से प्रभावित होती है, जिससे निर्णय सतही रहते हैं।

श्लोक 32

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थाविपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ॥32॥

अर्थ: “हे पार्थ! जो बुद्धि अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानती है, जो हर बात को उल्टा समझती है – वह तामसिक बुद्धि कहलाती है।”

व्याख्या: तामसिक बुद्धि अज्ञान और भ्रम से ग्रस्त होती है, जो गलत को सही और सही को गलत समझती है। यह बुद्धि सत्य से विमुख रहती है और व्यक्ति को गलत दिशा में ले जाती है।

श्लोक 33

धृत्या यया धारयते मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः ।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥33॥

अर्थ: “हे पार्थ, जो धृति (दृढ़ता) योग के द्वारा अविचल रूप से मन, प्राण और इंद्रियों की गतिविधियों को संयमित करती है, वह सात्विक धृति है।”

व्याख्या: सात्विक धृति वह दृढ़ता है जो योग और आत्म-संयम के माध्यम से मन, प्राण और इंद्रियों को नियंत्रित करती है। यह व्यक्ति को आध्यात्मिक मार्ग पर अडिग रखती है।

श्लोक 34

यया तु धर्मकामार्थान्धूत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥34॥

अर्थ: “हे अर्जुन! जो धृति धर्म, काम और अर्थ को पाने की इच्छा सेऔर फलों की अपेक्षा के साथ होती है – वह राजसिक धृति कहलाती है।”

व्याख्या: राजसिक धृति स्वार्थ और फल की इच्छा से प्रेरित होती है। यह व्यक्ति को सांसारिक लक्ष्यों (धर्म, काम, अर्थ) की प्राप्ति के लिए प्रेरित करती है, लेकिन आसक्ति के कारण यह सीमित होती है।

श्लोक 35

यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ॥35॥

अर्थ: “हे पार्थ, जो धृति स्वप्न (आलस्य), भय, शोक, विषाद और मद (अहंकार) को नहीं छोड़ती, वह तामसिक धृति है।”

व्याख्या: तामसिक धृति नकारात्मक गुणों जैसे आलस्य, भय और अहंकार को बनाए रखती है। यह व्यक्ति को अज्ञान और दुख में बांधे रखती है, आध्यात्मिक प्रगति को रोकती है।

श्लोक 36

सुखं त्विदानी त्रिविधं शृणु मे भरतर्षभ।
अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ॥36॥

अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ! अब तुम मुझसे तीन प्रकार के सुखों को सुनो, जिसमें अभ्यास द्वारा आनंद आता है और वह अंततः दुख का अंत करता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अब सुख के सात्विक, राजसिक और तामसिक प्रकारों की चर्चा शुरू करते हैं। यह श्लोक सात्विक सुख का परिचय देता है, जो अभ्यास से प्राप्त होता है और दुख को समाप्त करता है।

श्लोक 37

यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपसम्।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥37॥

अर्थ: “जो सुख प्रारंभ में विष के समान लगता है, किंतु परिणाम में अमृत के समान होता है, वह सात्विक सुख है, जो आत्मा और बुद्धि की शुद्धता से उत्पन्न होता है।”

व्याख्या: सात्विक सुख शुरू में कठिन लगता है, जैसे ध्यान या अनुशासन, लेकिन अंत में शांति और आनंद देता है। यह सुख आत्मा और बुद्धि की शुद्धता से उत्पन्न होता है।

श्लोक 38

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखपं राजसं स्मृतम् ॥38॥

अर्थ: “जो सुख इंद्रियों और विषयों के संयोग से प्रारंभ में अमृत के समान लगता है, किंतु परिणाम में विष के समान होता है, वह राजसिक सुख कहलाता है।”

व्याख्या: राजसिक सुख इंद्रियों के सुखों, जैसे भौतिक सुख, से उत्पन्न होता है। यह शुरू में आनंददायक लगता है, लेकिन बाद में दुख और असंतोष का कारण बनता है।

श्लोक 39

यदने चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥39॥

अर्थ: “जो सुख प्रारंभ और परिणाम दोनों में मोह उत्पन्न करता है,जो निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न होता है – वह तामसिक सुख कहलाता है।”

व्याख्या: तामसिक सुख आलस्य, निद्रा और लापरवाही से उत्पन्न होता है। यह सुख क्षणिक और भ्रामक होता है, जो व्यक्ति को अज्ञान और आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाता है।

श्लोक 40

न तदस्ति पृथिव्याँ वा दिवि देवेषु वा पुनः ।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्रिभर्गुणैः ॥40॥

अर्थ: “न पृथ्वी पर, न स्वर्ग में और न ही देवताओं में कोई भी ऐसा प्राणी है जो इन तीन गुणों – सत्त्व, रज, और तम – से रहित हो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रकृति के तीन गुण (सत्व, रजस, तमस) सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं। कोई भी प्राणी इन गुणों के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त नहीं है, जो जीवन के प्रत्येक पहलू को आकार देते हैं।

श्लोक 41

ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप ।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ॥41॥

अर्थ: “हे परंतप (अर्जुन)! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्मउनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभाजित किए गए हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक वर्ण व्यवस्था की चर्चा शुरू करता है। प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के कर्म उनके स्वाभाविक गुणों के आधार पर निर्धारित होते हैं, जो प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित हैं।

श्लोक 42

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥42॥

अर्थ: “शम (मन का संयम), दम (इंद्रियों का नियंत्रण), तप, शुद्धता, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता—ये ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं।”

व्याख्या: यह श्लोक ब्राह्मणों के स्वाभाविक कर्मों का वर्णन करता है, जो सात्विक गुणों पर आधारित हैं। ये गुण आध्यात्मिक और बौद्धिक विकास को बढ़ावा देते हैं, जो ब्राह्मण वर्ण के कर्तव्यों को दर्शाते हैं।

श्लोक 43

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥43॥

अर्थ: “शौर्य, तेज, धैर्य, दक्षता, युद्ध में न भागना, दान देना और नेतृत्व भावना – ये क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।”

व्याख्या: क्षत्रिय वर्ण के कर्म राजसिक और सात्विक गुणों से प्रेरित हैं। ये गुण साहस, नेतृत्व और समाज की रक्षा से संबंधित हैं, जो क्षत्रिय के कर्तव्यों को परिभाषित करते हैं।

श्लोक 44

कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।
परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥44॥

अर्थ: “कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य (व्यापार)—ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म हैं। सेवा कार्य शूद्र के स्वाभाविक कर्म हैं।”

व्याख्या: वैश्य और शूद्र वर्णों के कर्म उनके स्वभाव के अनुसार निर्धारित हैं। वैश्य के कर्म आर्थिक गतिविधियों से और शूद्र के कर्म सेवा से संबंधित हैं, जो समाज की व्यवस्था को बनाए रखते हैं।

श्लोक 45

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।
स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥45॥

अर्थ: “मनुष्य अपने स्वधर्म में अनुरक्त रहकर सिद्धि प्राप्त करता है। अब सुनो, वह अपने कर्म में स्थित रहकर सिद्धि कैसे प्राप्त करता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने स्वधर्म (कर्तव्य) का पालन करने से मनुष्य आध्यात्मिक और सांसारिक सिद्धि प्राप्त करता है। यह श्लोक अगले श्लोकों में स्वधर्म के महत्व की व्याख्या का आधार बनता है।

श्लोक 46

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥46॥

अर्थ: “जिस परमात्मा से सभी प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिसके द्वारा यह समस्त विश्व व्याप्त है, अपने कर्मों के द्वारा उसकी पूजा करके मनुष्य सिद्धि प्राप्त करता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने स्वधर्म (कर्तव्य) का पालन करके और उसे परमात्मा को समर्पित करके मनुष्य आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त करता है। यह कर्मयोग का सिद्धांत है, जो कर्मों को भगवान की पूजा के रूप में देखता है।

श्लोक 47

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधार्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाजोति किल्बिषम् ॥47॥

अर्थ: “दूसरे के धर्म को अच्छी तरह करने की अपेक्षा अपना धर्म, भले ही वह गुणरहित हो, श्रेष्ठ है। स्वभाव से नियत कर्म करने से पाप नहीं लगता।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण स्वधर्म के महत्व पर जोर देते हैं। अपने स्वाभाविक कर्तव्य का पालन करना, भले ही वह अपूर्ण हो, दूसरों के कर्तव्यों को अपनाने से बेहतर है। स्वधर्म पाप से मुक्त रखता है।

श्लोक 48

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥48॥

अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन), स्वाभाविक कर्म को, भले ही उसमें दोष हों, त्यागना नहीं चाहिए। क्योंकि सभी कर्म दोषों से घिरे होते हैं, जैसे अग्नि धुएँ से।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि कोई भी कर्म पूर्णतः दोषरहित नहीं होता। फिर भी, स्वाभाविक कर्म (स्वधर्म) को नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह आध्यात्मिक प्रगति का मार्ग है।

श्लोक 49

असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥49॥

अर्थ: “जो बुद्धि से सर्वत्र आसक्तिरहित, आत्मसंयमी और इच्छारहित है, वह संन्यास के द्वारा नैष्कर्म्य (कर्मों से मुक्ति) की परम सिद्धि प्राप्त करता है।”

व्याख्या: यह श्लोक संन्यास के उच्चतम लक्ष्य को दर्शाता है। आसक्ति, इच्छा और अहंकार से मुक्त व्यक्ति संन्यास के माध्यम से नैष्कर्म्य सिद्धि प्राप्त करता है, जो मोक्ष की ओर ले जाती है।

श्लोक 50

सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे ।
समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥50॥

अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र, जिसने सिद्धि प्राप्त कर ली, वह ब्रह्म को कैसे प्राप्त करता है, यह संक्षेप में मुझसे सुनो। यह ज्ञान की परम निष्ठा है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अब ब्रह्म की प्राप्ति के मार्ग को समझाने की शुरुआत करते हैं। यह श्लोक ज्ञानयोग की परम निष्ठा का परिचय देता है, जो अगले श्लोकों में विस्तार से बताया जाएगा।

श्लोक 51

बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥51॥

अर्थ: “शुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति (दृढ़ता) से आत्मा को संयमित करके, शब्दादि विषयों (इंद्रिय सुखों) का त्याग करके और राग-द्वेष को छोड़कर।”

व्याख्या: यह श्लोक ब्रह्म प्राप्ति के लिए आवश्यक गुणों का वर्णन करता है। शुद्ध बुद्धि, आत्म-संयम, इंद्रिय सुखों का त्याग और राग-द्वेष से मुक्ति ज्ञानयोग के मार्ग की आधारशिला हैं।

श्लोक 52

विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ॥52॥

अर्थ: “एकांत में रहने वाला, संयमित भोजन करने वाला, वाणी, शरीर और मन को नियंत्रित करने वाला, सदा ध्यानयोग में लीन, और वैराग्य को अपनाने वाला।”

व्याख्या: यह श्लोक ब्रह्म प्राप्ति के लिए और गुणों का वर्णन करता है। एकांत, संयम, ध्यान और वैराग्य (विरक्ति) आध्यात्मिक साधक को सत्य और मोक्ष की ओर ले जाते हैं।

श्लोक 53

अहङ्कारं बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥53॥

अर्थ: “जो अहंकार, बल का गर्व, घमंड, कामना, क्रोध और संग्रहभाव का त्याग करता है, निर्मम और शांत हो जाता है – वह ब्रह्म को प्राप्त करने योग्य बन जाता है।”

व्याख्या: यह श्लोक ब्रह्म प्राप्ति के लिए आवश्यक गुणों को बताता है। अहंकार, काम, क्रोध और ममता से मुक्ति, और शांति का भाव व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से ब्रह्म के योग्य बनाता है।

श्लोक 54

ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ॥54॥

अर्थ: “जो ब्रह्मरूप हो गया है, वह सदा प्रसन्नचित्त रहता है, न शोक करता है, न ही किसी वस्तु की इच्छा करता है। वह सभी प्राणियों में समदृष्टि रखता है और मेरी परम भक्ति को प्राप्त करता है।”

व्याख्या: ब्रह्म में लीन व्यक्ति शोक और इच्छा से मुक्त हो जाता है। वह सभी प्राणियों के प्रति समान दृष्टि रखता है और परम भक्ति के माध्यम से ईश्वर के निकट पहुँचता है।

श्लोक 55

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥55॥

अर्थ: “मेरी भक्ति के द्वारा मनुष्य मुझे जैसे मैं वास्तव में हूँ, वैसे जान सकता है।और मुझे तत्त्व से जानकर वह तत्पश्चात मुझमें प्रवेश करता है।”

व्याख्या: भक्ति के माध्यम से साधक ईश्वर के सत्य स्वरूप को समझता है। यह ज्ञान उसे परमात्मा में लीन होने और मोक्ष प्राप्त करने की ओर ले जाता है।

श्लोक 56

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्यपाश्रयः।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥56॥

अर्थ: “जो सदा सब कर्म करते हुए भी मेरी शरण में रहता है,वह मेरी कृपा से सनातन और अविनाशी पद को प्राप्त करता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति ईश्वर के आश्रय में रहकर कर्म करता है, वह उनकी कृपा से मोक्ष प्राप्त करता है। यह भक्ति और कर्मयोग का समन्वय दर्शाता है, जहाँ कर्म ईश्वर को समर्पित किए जाते हैं।

श्लोक 57

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥57॥

अर्थ: “मन से सभी कर्मों को मुझ में समर्पित करके, मुझे ही परम मानकर, बुद्धियोग का आश्रय लेकर सदा मेरे चित्त में लीन रह।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित करने और बुद्धियोग (विवेक) के साथ सदा ईश्वर में लीन रहने की सलाह देते हैं। यह भक्ति और कर्मयोग का समन्वय है।

श्लोक 58

मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनक्ष्यसि ॥58॥

अर्थ: “यदि तुम मेरे चिंतन में लगे रहोगे तो मेरी कृपा सेसभी बाधाओं को पार कर जाओगे। परंतु यदि अहंकारवश मेरी बात न सुनोगे तो नष्ट हो जाओगे।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि ईश्वर पर पूर्ण समर्पण से सभी कठिनाइयाँ पार हो जाती हैं। लेकिन अहंकार के कारण उनकी सलाह को न मानने वाला व्यक्ति पतन की ओर जाता है।

श्लोक 59

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥59॥

अर्थ: “यदि तुम अहंकार के कारण सोचते हो कि “मैं युद्ध नहीं करूँगा”, तो यह तुम्हारा व्यर्थ संकल्प है –क्योंकि तुम्हारी प्रकृति तुम्हें युद्ध करने के लिए बाध्य करेगी।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को चेतावनी देते हैं कि अहंकार के कारण युद्ध से भागने का निर्णय गलत है। अर्जुन का क्षत्रिय स्वभाव और कर्तव्य उसे युद्ध करने के लिए प्रेरित करेगा।

श्लोक 60

स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥60॥

अर्थ: “हे कौन्तेय! अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्म में तुम बंधे हुए हो,मोहवश यदि तुम “मैं नहीं करूँगा” ऐसा सोचो,तो भी विवश होकर वही कर्म करोगे।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि उनका क्षत्रिय स्वभाव उन्हें युद्ध करने के लिए बाध्य करेगा, भले ही वे अज्ञानवश इससे बचना चाहें। यह स्वधर्म और प्रकृति के प्रभाव को दर्शाता है।

श्लोक 61

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥61॥

अर्थ: “हे अर्जुन! भगवान प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित हैंऔर अपनी माया से उन्हें यंत्र के समान घुमा रहे हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि परमात्मा सभी प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया (प्रकृति) के द्वारा उनके कर्मों को नियंत्रित करता है, जैसे यंत्र पर चढ़े पुतले। यह ईश्वरीय शक्ति और माया के प्रभाव को दर्शाता है।

श्लोक 62

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥62॥

अर्थ: “हे भारत! उस परमेश्वर की ही शरण में सम्पूर्ण भाव से जाओ। उसकी कृपा से तुम परम शांति और शाश्वत पद को प्राप्त करोगे।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को पूर्ण समर्पण के साथ ईश्वर की शरण लेने की सलाह देते हैं। यह भक्ति का मार्ग है, जो परम शांति और मोक्ष की ओर ले जाता है।

श्लोक 63

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥63॥

अर्थ: “मैंने तुम्हें यह अत्यंत गोपनीय ज्ञान बताया है, अब तुम इसे भलीभांति सोच-विचारकर जैसा उचित समझो, वैसा करो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण गीता के उपदेशों को अति गोपनीय ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे अर्जुन को स्वतंत्रता देते हैं कि वे इस ज्ञान पर विचार कर अपना निर्णय लें, जो उनकी स्वतंत्र इच्छा को दर्शाता है।

श्लोक 64

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥64॥

अर्थ: “अब फिर से सुनो – मैं तुम्हें सबसे गोपनीय वचन कहता हूँ, क्योंकि तुम मेरे लिए प्रिय हो, अतः मैं तुम्हारे हित की बात कहता हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करते हैं और सबसे गोपनीय सलाह देने की तैयारी करते हैं। यह श्लोक भक्ति के अंतिम उपदेश का आधार बनता है।

श्लोक 65

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥65।

अर्थ: “मुझमें मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। तब तुम निश्चित ही मुझे प्राप्त करोगे – यह मेरा सत्य वचन है, क्योंकि तुम मेरे प्रिय हो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण भक्ति का सरल और शक्तिशाली मार्ग बताते हैं: ईश्वर में मन लगाना, उनकी भक्ति और पूजा करना। यह पूर्ण समर्पण का मार्ग है, जो ईश्वर प्राप्ति की गारंटी देता है।

श्लोक 66

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥66॥

अर्थ: “सभी धर्मों (कर्तव्यों) को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूँगा – शोक मत करो।”

व्याख्या: यह गीता का सबसे महत्वपूर्ण श्लोक है, जिसमें श्रीकृष्ण पूर्ण समर्पण की सलाह देते हैं। सभी सांसारिक बंधनों को छोड़कर ईश्वर की शरण लेने से मोक्ष प्राप्त होता है। यह भक्ति का परम सिद्धांत है।

श्लोक 67

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥67॥

अर्थ: “यह (गूढ़ ज्ञान) न तो तप न करने वाले को कहना चाहिए, न ही अव्यक्त को, न सुनने की इच्छा न रखने वाले को, और न ही मेरी निंदा करने वाले को।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण इस गोपनीय ज्ञान को सही व्यक्ति को देने की सलाह देते हैं। यह ज्ञान केवल तपस्वी, भक्त, श्रद्धालु और ईश्वर के प्रति सकारात्मक भाव रखने वालों के लिए है।

श्लोक 68

य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥68॥

अर्थ: “जो व्यक्ति मेरे भक्तों को यह परम गुह्य ज्ञान बताएगा,वह मुझमें परम भक्ति करके, निःसंदेह मुझे प्राप्त करेगा।”

व्याख्या: गीता के ज्ञान को भक्तों के साथ बाँटने वाला व्यक्ति परम भक्ति के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त करता है। यह श्लोक ज्ञान के प्रचार और भक्ति के महत्व को रेखांकित करता है।

श्लोक 69

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥69॥

अर्थ: “मनुष्यों में उससे बढ़कर मेरा प्रिय कोई नहीं है, और न ही भविष्य में पृथ्वी पर उससे अधिक प्रिय कोई होगा।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति गीता के ज्ञान को दूसरों तक पहुँचाता है, वह उन्हें सबसे प्रिय है। यह ज्ञान के प्रसार को सर्वोच्च भक्ति का कार्य बताता है।

श्लोक 70

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥70॥

अर्थ: “जो इस धर्मयुक्त संवाद (गीता) का अध्ययन करेगा,वह ज्ञान-यज्ञ द्वारा मुझे पूजित करेगा – ऐसा मेरा मत है।”

व्याख्या: गीता का अध्ययन करना ज्ञानयज्ञ के समान है, जो ईश्वर की पूजा का एक रूप है। यह श्लोक गीता के अध्ययन को आध्यात्मिक साधना के रूप में स्थापित करता है।

श्लोक 71

श्रद्धावाननसूयश्च शृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम् ॥71॥

अर्थ: “जो श्रद्धा और बिना ईर्ष्या के इस संवाद को केवल सुनेगा,वह भी पवित्र कर्मों वाले पुण्य लोकों को प्राप्त करेगा।”

व्याख्या: श्रद्धा और निष्कपट भाव से गीता को सुनने वाला व्यक्ति भी पापों से मुक्त होकर शुभ फल प्राप्त करता है। यह श्लोक गीता के श्रवण की महत्ता को दर्शाता है।

श्लोक 72

कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा।
कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ॥72॥

अर्थ: “हे पार्थ, क्या तुमने एकाग्रचित्त होकर इसे (गीता का उपदेश) सुना? हे धनंजय, क्या तुम्हारा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया?”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन से पूछते हैं कि क्या उन्होंने गीता का उपदेश ध्यान से सुना और क्या उनका अज्ञान और भ्रम दूर हो गया। यह श्लोक अर्जुन के आत्म-जागरण की पुष्टि का आधार बनता है।

श्लोक 73

अर्जुन उवाच।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥73॥

अर्थ: अर्जुन ने कहा: “हे अच्युत, आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति (ज्ञान) प्राप्त हो गई। मैं संदेहरहित हो गया हूँ और आपके वचन का पालन करूँगा।”

व्याख्या: अर्जुन पुष्टि करते हैं कि श्रीकृष्ण के उपदेशों से उनका भ्रम दूर हो गया और वे अपने कर्तव्य (युद्ध) के लिए तैयार हैं। यह श्लोक गीता के उपदेशों की सफलता और अर्जुन के आत्म-जागरण को दर्शाता है।

श्लोक 74

सञ्जय उवाच।
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ॥74॥

अर्थ: संजय ने कहा: “इस प्रकार मैंने वासुदेव (श्रीकृष्ण) और महात्मा पार्थ (अर्जुन) के इस अद्भुत और रोमांचकारी संवाद को सुना।”

व्याख्या: संजय, जो धृतराष्ट्र को गीता का संवाद सुना रहे हैं, इसे अद्भुत और रोमांचकारी बताते हैं। यह श्लोक गीता के उपदेशों की महत्ता और उनके प्रभाव को रेखांकित करता है।

श्लोक 75

व्यासप्रसादाच्छ्रतवानेतद्गुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ॥75॥

अर्थ: “व्यासजी की कृपा से मैंने यह परम गोपनीय योग (ज्ञान) स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण से साक्षात् कहते हुए सुना।”

व्याख्या: संजय कहते हैं कि व्यासजी की कृपा से उन्हें श्रीकृष्ण के इस गोपनीय योग-उपदेश को सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह श्लोक गीता के दैवीय और आध्यात्मिक महत्व को दर्शाता है।

श्लोक 76

राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ॥76॥

अर्थ: “हे राजन् (धृतराष्ट्र), इस श्रीकृष्ण और अर्जुन के पवित्र और अद्भुत संवाद को बार-बार स्मरण करके मैं बार-बार हर्षित होता हूँ।”

व्याख्या: संजय व्यक्त करते हैं कि गीता का यह संवाद इतना पवित्र और प्रभावशाली है कि इसे स्मरण करने से वे बार-बार आनंदित होते हैं। यह गीता की प्रेरणादायक शक्ति को दर्शाता है।

श्लोक 77

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः।
विस्मयो मे महाराजन्हष्यामि च पुनः पुनः ॥77॥

अर्थ: “हे राजन्, श्रीहरि (श्रीकृष्ण) के अति अद्भुत विश्वरूप को बार-बार स्मरण करके मेरा विस्मय बढ़ता है और मैं बार-बार हर्षित होता हूँ।”

व्याख्या: संजय श्रीकृष्ण के विश्वरूप (जो गीता के अध्याय 11 में वर्णित है) को स्मरण करते हैं, जो उन्हें आश्चर्य और आनंद से भर देता है। यह श्रीकृष्ण की दैवीय महिमा को रेखांकित करता है।

श्लोक 78

यत्र योगश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीविजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥78॥

अर्थ: “जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी पार्थ (अर्जुन) हैं, वहाँ श्री (समृद्धि), विजय, भूति (ऐश्वर्य) और दृढ़ नीति निश्चित रूप से हैं—ऐसा मेरा मत है।”

व्याख्या: यह गीता का अंतिम श्लोक है। संजय कहते हैं कि श्रीकृष्ण और अर्जुन के संयोग से विजय, समृद्धि और नीति की जीत निश्चित है। यह गीता के उपदेशों की सफलता और उनके सकारात्मक परिणाम को दर्शाता है।


श्रीमद् भागवत गीता के अठारहवें अध्याय सारांश

श्रीमद्भगवद्गीता का अठारहवाँ अध्याय, मोक्षसंन्यासयोग, गीता के समस्त उपदेशों का समन्वय और समापन करता है।इस अंतिम अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने त्याग (सन्यास), कर्तव्य, धर्म, गुणों के अनुसार कर्म, ज्ञान, भक्ति, मोक्ष और गीता का उपदेश क्यों और किसे देना चाहिए — इन सबका संपूर्ण निष्कर्ष के साथ वर्णन किया है। नीचे इसका संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत है:

संन्यास और त्याग का अंतर

अर्जुन के प्रश्न के जवाब में श्रीकृष्ण संन्यास (कर्मों का पूर्ण परित्याग) और त्याग (कर्मफल की इच्छा का परित्याग) के बीच अंतर स्पष्ट करते हैं। वे सात्विक, राजसिक, और तामसिक त्याग की व्याख्या करते हैं। सात्विक त्याग, जिसमें कर्म कर्तव्य के रूप में बिना फल की इच्छा के किए जाते हैं, को श्रेष्ठ बताया गया है। यज्ञ, दान, और तप जैसे शास्त्रविहित कर्मों को नहीं छोड़ना चाहिए।

कर्म के कारण और गुण

श्रीकृष्ण कर्म की सिद्धि के पाँच कारणों (अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा, दैव) का वर्णन करते हैं। वे ज्ञान, कर्म, और कर्ता को प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) के आधार पर तीन प्रकारों में वर्गीकृत करते हैं। सात्विक ज्ञान एकता को देखता है, सात्विक कर्म निःस्वार्थ होता है, और सात्विक कर्ता आसक्तिरहित और संदेहरहित होता है।

बुद्धि, धृति, और सुख

बुद्धि और धृति (दृढ़ता) को भी सात्विक, राजसिक, और तामसिक रूपों में वर्गीकृत किया गया है। सात्विक बुद्धि सही-गलत का भेद करती है, और सात्विक धृति मन-इंद्रियों को संयमित करती है। सुख के तीन प्रकारों का वर्णन है: सात्विक सुख शांति देता है, राजसिक सुख इंद्रिय सुखों से शुरू होकर दुख देता है, और तामसिक सुख आलस्य व अज्ञान से उत्पन्न होता है।

वर्ण और स्वधर्म

सभी प्राणी प्रकृति के तीन गुणों से प्रभावित हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र के कर्म उनके स्वभाव और गुणों के आधार पर निर्धारित हैं। श्रीकृष्ण स्वधर्म के पालन पर जोर देते हैं, भले ही वह दोषयुक्त हो, क्योंकि यह पाप से मुक्त रखता है और सिद्धि की ओर ले जाता है।

ब्रह्म प्राप्ति और भक्ति

आसक्ति, अहंकार, और इच्छा से मुक्त होकर, ध्यान और वैराग्य के माध्यम से व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति के योग्य बनता है। भक्ति के द्वारा परमात्मा को यथार्थ रूप में जाना जाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित करके और उनकी शरण में आकर व्यक्ति सभी संकटों को पार कर मोक्ष प्राप्त करता है।

उपसंहार

श्रीकृष्ण इस ज्ञान को केवल श्रद्धालु और भक्तों को देने की सलाह देते हैं। गीता का अध्ययन और प्रचार करना ज्ञानयज्ञ है। संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद सुनकर वे हर्षित हैं। अंत में, अर्जुन कहते हैं कि श्रीकृष्ण की कृपा से उनका मोह नष्ट हो गया और वे कर्तव्य के लिए तैयार हैं। संजय समापन में कहते हैं कि जहाँ श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, वहाँ विजय और समृद्धि निश्चित है।

WhatsApp Channel Join Now
Telegram Channel Join Now