श्रीमद्भागवत गीता का पहला अध्याय “अर्जुन विषाद योग” कहलाता है। यह अध्याय महाभारत के युद्ध के ठीक पहले की स्थिति का वर्णन करता है, जिसमें अर्जुन अपने कर्तव्य को लेकर गहरे विषाद में पड़ जाते हैं। यह अध्याय न केवल महाभारत के युद्ध की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि जीवन में जब व्यक्ति मानसिक संघर्ष और धर्म-संकट में पड़ता है, तो उसे कैसे सही निर्णय लेना चाहिए?
यह अध्याय कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में शुरू होता है, जहाँ अर्जुन अपने कर्तव्य और भावनाओं के बीच फँस जाता है। यह गीता के शेष उपदेशों की नींव रखता है, जो श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन से अर्जुन को संशय से मुक्ति की ओर ले जाता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 1: अर्जुन विषाद योग (Bhagwat Geeta Chapter 1)
श्रीमद् भागवत गीता का पहला अध्याय “अर्जुन विषाद योग” है। युद्ध की पृष्ठभूमि में अर्जुन के संकट और संशय को प्रस्तुत करता है। यह अध्याय 47 श्लोकों में विभाजित है, जो कुरुक्षेत्र की स्थिति से लेकर अर्जुन के विषाद और श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन की याचना तक को चित्रित करता है। यह गीता की आध्यात्मिक और दार्शनिक यात्रा की नींव रखता है। इन श्लोकों के माध्यम से हम इस अध्याय की गहराई से समझेंगे।
श्लोक 1
धृतराष्ट्र उवाच:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥1॥
अर्थ: राजा धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं— “हे संजय! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित होकर युद्ध के इच्छुक मेरे और पांडवों के पुत्रों ने क्या किया?”
व्याख्या: यह गीता का पहला श्लोक है। धृतराष्ट्र संजय से कुरुक्षेत्र में युद्ध की स्थिति के बारे में पूछते हैं। “धर्मक्षेत्र” युद्ध के नैतिक महत्व को दर्शाता है। “मामकाः” से उनका कौरवों के प्रति लगाव झलकता है। यह श्लोक संवाद की शुरुआत और धृतराष्ट्र की चिंता को प्रकट करता है।
श्लोक 2
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥2॥
अर्थ: संजय बोले— “हे राजन्! जब दुर्योधन ने पांडवों की सेना को व्यूहरचना में व्यवस्थित देखा, तब वह अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास गया और यह वचन कहा।”
व्याख्या: इस श्लोक में बताया गया है कि दुर्योधन ने पांडवों की सेना को व्यवस्थित देखकर चिंता महसूस की और वह अपने गुरु द्रोणाचार्य के पास जाता है, जो कौरव सेना के सेनापति हैं, और उनसे बात करता है।
श्लोक 3
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥3॥
अर्थ: “हे आचार्य! पांडवों की इस विशाल सेना को देखिए, जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न ने व्यवस्थित किया है।”
व्याख्या: दुर्योधन, द्रोणाचार्य को यह याद दिला रहे हैं कि जिस योद्धा ने पांडवों की सेना को तैयार किया है, वह स्वयं उनके शिष्य रह चुके हैं। यह उनके लिए चिंता का विषय हो सकता है।
श्लोक 4
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥4॥
अर्थ: “इस सेना में कई महान धनुर्धारी और युद्ध में भीम एवं अर्जुन के समान योद्धा हैं, जैसे— युयुधान (सात्यकि), विराट, और महान रथी द्रुपद।”
व्याख्या: दुर्योधन अपने गुरु द्रोणाचार्य को पांडव सेना की शक्ति और उसमें शामिल वीर योद्धाओं के बारे में बता रहा है, ताकि वे सतर्क रहें।
श्लोक 5
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ॥5॥
अर्थ: “इस सेना में धृष्टकेतु, चेकितान, वीर काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और श्रेष्ठ योद्धा शैब्य भी हैं।”
व्याख्या: दुर्योधन पांडव सेना के अन्य प्रमुख योद्धाओं का उल्लेख करता है। वह धृष्टकेतु (चेदि का राजा), चेकितान (एक कुशल योद्धा), और काशी के शक्तिशाली राजा का नाम लेता है। फिर पुरुजित और कुन्तिभोज, जो कुंति के रिश्तेदार हैं, और शैब्य, जो शिवि देश का राजा और नरों में श्रेष्ठ है, का वर्णन करता है।
श्लोक 6
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥6॥
अर्थ: “पराक्रमी युधामन्यु, शक्तिशाली उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र (अभिमन्यु), और द्रौपदी के सभी पुत्र – ये सभी महारथी हैं।”
व्याख्या: दुर्योधन पांडव सेना के और योद्धाओं का उल्लेख करता है। वह युधामन्यु (पांचाल का साहसी योद्धा) और उत्तमौजा (शक्तिशाली योद्धा) का नाम लेता है। फिर सौभद्र (अभिमन्यु, अर्जुन और सुभद्रा का पुत्र) और द्रौपदी के पाँच पुत्रों (प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, शतानीक, और श्रुतसेन) का जिक्र करता है।
श्लोक 7
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥7॥
अर्थ: “हे द्विजश्रेष्ठ (द्रोणाचार्य)! अब मैं आपको अपनी सेना के उन महान योद्धाओं के बारे में बताता हूँ, जो हमारी ओर से इस युद्ध में नेतृत्व कर रहे हैं।”
व्याख्या: दुर्योधन ने पहले पांडवों की सेना का विवरण दिया, अब वह अपनी ओर के प्रमुख योद्धाओं के बारे में बताने लगता है। वह द्रोणाचार्य से कहता है कि हमारे पक्ष में भी विख्यात योद्धा हैं, जिनका नाम सुनकर उसका मन उत्साहित या प्रभावित होता है। वह अपनी सेना के नायकों का परिचय देने की तैयारी करता है ताकि गुरु द्रोण को उनकी शक्ति का आभास हो।
श्लोक 8
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिंञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥8॥
अर्थ: “आप स्वयं (द्रोणाचार्य), भीष्म, कर्ण, युद्ध में विजयी कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और सौमदत्ति (भूरिश्रवा) भी हमारी ओर से युद्ध में भाग ले रहे हैं।”
व्याख्या: दुर्योधन अपनी सेना के प्रमुख योद्धाओं का उल्लेख शुरू करता है। वह द्रोणाचार्य को संबोधित कर कहता है कि आप स्वयं, भीष्म (कौरवों का महान सेनापति), कर्ण (प्रसिद्ध धनुर्धर), और कृपाचार्य (जो युद्ध में अजेय हैं) उनकी सेना में हैं। फिर वह अश्वत्थामा (द्रोण का पुत्र), विकर्ण (उसका भाई), और सौमदत्ति (भूरिश्रवा, एक शक्तिशाली योद्धा) का नाम लेता है। “समितिञ्जयः” कृपाचार्य की युद्ध कौशल को दर्शाता है। यह श्लोक दुर्योधन के आत्मविश्वास को दिखाता है, क्योंकि वह अपनी सेना के शीर्ष योद्धाओं पर गर्व करता है। यह पांडव सेना की ताकत के जवाब में उसकी रणनीति का हिस्सा भी है।
श्लोक 9
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः॥9॥
अर्थ: “इसके अलावा भी अनेक वीर योद्धा हैं, जो मेरे लिए अपने प्राणों को त्यागने के लिए तैयार हैं। वे विभिन्न शस्त्रों से सुसज्जित हैं और युद्ध में निपुण हैं।”
व्याख्या: दुर्योधन अपनी सेना के प्रति आत्मविश्वास दिखाते हुए कहता है कि उसकी सेना में कई अन्य योद्धा भी हैं, जो कुशल हैं और बलिदान के लिए तैयार हैं।
श्लोक 10
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥10॥
अर्थ: “हमारी सेना, भीष्म के नेतृत्व में अपार (असीमित) है, जबकि पांडवों की सेना, भीम के नेतृत्व में पर्याप्त (सीमित) है।”
व्याख्या: दुर्योधन अपनी सेना की श्रेष्ठता जताने की कोशिश करता है, लेकिन भीतर से उसे यह डर भी है कि पांडवों की सेना भले ही छोटी हो, लेकिन वह रणनीति और वीरता में कम नहीं है।
श्लोक 11
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥11॥
अर्थ: “युद्ध के सभी मोर्चों पर अपनी-अपनी स्थिति को बनाए रखते हुए आप सभी महान योद्धा, पितामह भीष्म की रक्षा करें।”
व्याख्या: दुर्योधन अब अपनी सेना को निर्देश देता है। वह कहता है कि सभी योद्धा अपने निर्धारित स्थानों पर रहें और भीष्म की सुरक्षा करें। भीष्म कौरव सेना के सेनापति और सबसे शक्तिशाली योद्धा हैं, इसलिए उनकी रक्षा सर्वोपरि है। यह श्लोक दुर्योधन की रणनीति और भीष्म पर उसकी निर्भरता को दर्शाता है। वह पांडवों की ताकत से चिंतित है और भीष्म को सुरक्षित रखने पर जोर देता है।
श्लोक 12
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान्॥12॥
अर्थ: “कौरवों के वृद्ध पितामह भीष्म, दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए सिंह के समान गर्जना करते हुए उच्च स्वर में शंख ध्वनि करते हैं।”
व्याख्या: दुर्योधन के वचनों के बाद, भीष्म उसका उत्साह बढ़ाने के लिए कदम उठाते हैं। यह श्लोक दुर्योधन को आश्वस्त करने और कौरव सेना का मनोबल बढ़ाने का प्रयास दिखाता है। भीष्म का शंखनाद युद्ध के भव्य और भयावह माहौल को रेखांकित करता है, जो आगे के घटनाक्रम का आधार बनता है।
श्लोक 13
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्॥13॥
अर्थ: “इसके बाद, शंख, नगाड़े, ढोल और तुरहियाँ एक साथ बज उठीं और इनकी ध्वनि अत्यंत गगनभेदी हो गई।”
व्याख्या: यह श्लोक युद्ध के माहौल को दर्शाता है। कौरवों की ओर से भीष्म ने युद्ध की घोषणा कर दी, जिसके बाद पूरे युद्धक्षेत्र में नगाड़ों और शंखों की गूंज उठी।
श्लोक 14
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः॥14॥
अर्थ: “इसके बाद, सफेद घोड़ों से युक्त अपने भव्य रथ में विराजमान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने दिव्य शंख बजाए।”
व्याख्या: कौरवों के शंखनाद के जवाब में पांडव पक्ष सक्रिय होता है। अब पांडवों की ओर से भी युद्ध की औपचारिक घोषणा हो रही है। अर्जुन और श्रीकृष्ण अपने रथ में खड़े होकर अपने-अपने दिव्य शंख बजाते हैं। यह शंखनाद पांडव सेना की शक्ति और आत्मविश्वास को दर्शाता है।
श्लोक 15
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः॥15॥
अर्थ: “हृषीकेश (श्रीकृष्ण) ने पांचजन्य, धनंजय (अर्जुन) ने देवदत्त और भयानक कर्म करने वाले वृकोदर (भीम) ने अपने महान शंख पौंड्र को बजाया।”
व्याख्या: यह श्लोक पांडव पक्ष के प्रमुख योद्धाओं के शंखनाद का वर्णन करता है। श्रीकृष्ण (“हृषीकेश”) अपने शंख “पाञ्चजन्य” को बजाते हैं, जो उन्होंने समुद्र से प्राप्त किया था। अर्जुन (“धनञ्जय”) अपने शंख “देवदत्त” को बजाता है, जो उसकी विजयी प्रकृति को दर्शाता है। भीम, जो “भीमकर्मा” (भयंकर युद्ध कौशल) और “वृकोदर” (असीम शक्ति) के लिए जाना जाता है, अपने “पौण्ड्र” नामक महाशंख को बजाता है। यह शंखनाद पांडव सेना की शक्ति और संकल्प को प्रदर्शित करता है, जो कौरवों के शंखनाद का जवाब है। यह युद्ध के माहौल को और भी तीव्र और भव्य बनाता है।
श्लोक 16
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥16॥
अर्थ: “कुंति-पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय शंख बजाया, और नकुल तथा सहदेव ने अपने सुघोष और मणिपुष्पक शंख बजाए।”
व्याख्या: यह श्लोक पांडव भाइयों के शंखनाद का वर्णन करता है। युधिष्ठिर, जो “कुन्तीपुत्र” और “राजा” कहलाते हैं, अपने शंख “अनन्तविजयम्” को बजाते हैं, जो उनकी धर्मनिष्ठा और विजय की प्रतीक है। नकुल अपने शंख “सुघोष” और सहदेव अपने शंख “मणिपुष्पक” को बजाते हैं। पिछले श्लोकों के बाद यहाँ सभी प्रमुख पांडवों का शंखनाद युद्ध की शुरुआत को और भव्य बनाता है।
श्लोक 17
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥17॥
अर्थ: “काशी का श्रेष्ठ धनुर्धर राजा, महारथी शिखंडी, धृष्टद्युम्न, विराट और अजेय सात्यकि (ने भी अपने शंख बजाए)।”
व्याख्या: यह श्लोक पांडव सेना के अन्य प्रमुख योद्धाओं के शंखनाद का वर्णन करता है। यहाँ कुछ प्रमुख योद्धाओं का उल्लेख किया गया है –
- सात्यकि – यह यादव कुल के एक वीर योद्धा थे और श्रीकृष्ण के परम भक्त तथा अर्जुन के मित्र थे। इनकी गिनती अपराजेय योद्धाओं में होती थी।
- काशीराज (काश्य) – वे काशी देश के राजा थे और अत्यंत कुशल धनुर्धर माने जाते थे। वे पांडवों के पक्ष में थे।
- शिखण्डी – वे द्रुपद के पुत्र थे और महाभारत युद्ध में भीष्म को परास्त करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- धृष्टद्युम्न – यह राजा द्रुपद के पुत्र और द्रौपदी के भाई थे। इनका जन्म ही द्रोणाचार्य का वध करने के लिए हुआ था।
- विराट – यह मत्स्य देश के राजा थे, जिन्होंने अज्ञातवास के दौरान पांडवों को शरण दी थी।
यह श्लोक पांडव पक्ष के सहयोगियों की शक्ति और विविधता को उजागर करता है, जो कौरवों के शंखनाद का जवाब दे रहे हैं।
श्लोक 18
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्॥18॥
अर्थ: “द्रुपद, द्रौपदी के पुत्रों और महाबाहु सौभद्र (अभिमन्यु) ने, हे पृथ्वी के स्वामी, सभी ओर से अपने-अपने शंख अलग-अलग बजाए।”
व्याख्या: संजय धृतराष्ट्र को संबोधित करते हुए पांडव पक्ष के शंखनाद का वर्णन जारी रखता है। द्रुपद (पांचाल का राजा और पांडवों का ससुर), द्रौपदी के पुत्रों और सौभद्र (अभिमन्यु) अपने शंख से युद्ध में शामिल होते है। “सर्वशः” और “पृथक् पृथक्” से पता चलता है कि ये शंखनाद सभी दिशाओं से अलग-अलग हुए, जो पांडव सेना की व्यापकता और उत्साह को दर्शाता है। यह श्लोक युद्ध के माहौल को और तीव्र करता है।
श्लोक 19
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन्॥19॥
अर्थ: “यह शंखध्वनि कौरवों के हृदयों को चीरने लगी और उसकी गूंज आकाश और पृथ्वी तक फैल गई।”
व्याख्या: संजय वर्णन करता है कि पांडवों के शंखनाद और युद्ध वाद्यों की संयुक्त ध्वनि कितनी प्रबल थी। यह “तुमुलः” (कोलाहलपूर्ण) शोर कौरवों के हृदयों को “व्यदारत्” (चीर देता है), अर्थात् उनके मन में भय और अस्थिरता पैदा करता है। यह ध्वनि इतनी शक्तिशाली थी कि आकाश और पृथ्वी दोनों में गूँज रही थी। यह श्लोक पांडव सेना की प्रभावशाली उपस्थिति को दर्शाता है, जो कौरवों के आत्मविश्वास को चुनौती देती है।
श्लोक 20
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥20॥
अर्थ: “तब, कपिध्वज (अर्जुन) ने तैनात धृतराष्ट्र के पुत्रों को देखकर, जब शस्त्रों का संनाद शुरू हुआ, अपने धनुष को उठाया।”
व्याख्या: यह श्लोक अर्जुन के दृष्टिकोण से युद्ध की शुरुआत को चिह्नित करता है। “कपिध्वजः” अर्जुन को संदर्भित करता है, जिसके रथ पर हनुमान का ध्वज है। उसने कौरव सेना को संगठित रूप में तैनात देखा। शंखनाद के बाद अब युद्ध का शस्त्र संनाद शुरू हो गया है। अर्जुन धनुष उठाकर युद्ध के लिए तैयार होता है। यह श्लोक अर्जुन की सक्रियता को दर्शाता है, लेकिन अगले श्लोकों में उसका संशय प्रकट होगा। यह युद्ध के निर्णायक क्षण की ओर बढ़ता है।
श्लोक 21
हृषिकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥21॥
अर्थ: “तब अर्जुन ने हृषीकेश (श्रीकृष्ण) से यह वचन कहा, हे पृथ्वी के स्वामी: ‘हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा करो।”
व्याख्या: अर्जुन ने श्रीकृष्ण (“हृषीकेशम्”) से बात की। “हृषीकेश” श्रीकृष्ण का नाम है, जो उनकी इंद्रियों पर नियंत्रण को दर्शाता है। अर्जुन कहता है, वह अपने रथ को दोनों सेनाओं (कौरव और पांडव) के बीच में रखना चाहता है। “अच्युत” से वह श्रीकृष्ण को संबोधित करता है, जिसका अर्थ है “अडिग” या “अचूक,”, जो उनकी विश्वसनीयता को दर्शाता है। यह श्लोक अर्जुन की युद्ध के मैदान को करीब से देखने की इच्छा को दिखाता है, जो उसके आगामी संशय और विषाद का आधार बनेगा। यह युद्ध के परिदृश्य में उसकी मानसिक तैयारी को चिह्नित करता है।
श्लोक 22
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्ध्रुकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥22॥
अर्थ: “जब तक मैं इन युद्ध करने के इच्छुक और तैनात योद्धाओं को देख न लूँ, कि इस युद्ध में मुझे किनके साथ लड़ना है।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से अपनी बात जारी रखता है। वह कहता है कि वह दोनों सेनाओं के बीच रथ को इसलिए रखना चाहता है ताकि वह युद्ध के लिए तैयार और तैनात योद्धाओं को देख सके। वह यह जानना चाहता है कि इस युद्ध में उसके प्रतिद्वंद्वी कौन-कौन हैं। यह श्लोक अर्जुन की जिज्ञासा और युद्ध की स्थिति को समझने की इच्छा को दर्शाता है। वह अभी युद्ध के लिए मानसिक रूप से तैयार होने की प्रक्रिया में है, लेकिन यह निरीक्षण आगे चलकर उसके संशय और विषाद का कारण बनेगा। यह युद्ध के मैदान का एक महत्वपूर्ण क्षण है।
श्लोक 23
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥23॥
अर्थ: “मैं उन युद्ध करने वालों को देखूँगा, जो यहाँ एकत्रित हुए हैं और दुर्बुद्धि धृतराष्ट्र-पुत्र (दुर्योधन) के लिए युद्ध में उसका प्रिय करने के इच्छुक हैं।”
व्याख्या: अर्जुन अपनी बात को आगे बढ़ाता है। वह कहता है कि वह युद्ध करने वालों को देखना चाहता है, जो यहाँ एकत्रित हैं। वह इन्हें “धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेः” (दुर्योधन, धृतराष्ट्र के मूर्ख पुत्र) के समर्थक के रूप में देखता है, जो दुर्योधन का प्रिय करने के लिए युद्ध में आए हैं। “दुर्बुद्धेः” शब्द से अर्जुन का दुर्योधन के प्रति तिरस्कार और इस युद्ध को उसके अधर्म का परिणाम मानने की भावना झलकती है। यह श्लोक अर्जुन की इच्छा को दर्शाता है कि वह अपने शत्रुओं को समझे, लेकिन यह भी संकेत देता है कि वह कौरव पक्ष को नैतिक रूप से गलत मानता है। यह उसके आगामी संशय का आधार बनता है।
श्लोक 24
संजयउवाच
एवमुक्तो हृषिकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्॥24॥
अर्थ: संजय ने कहा: “हे भारत (धृतराष्ट्र)! गुडाकेश (अर्जुन) द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृषीकेश (श्रीकृष्ण) ने श्रेष्ठ रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कर दिया।”
व्याख्या: संजय धृतराष्ट्र को बताता है कि अर्जुन (“गुडाकेश”, जो नींद पर विजय पाने वाला है) के अनुरोध पर श्रीकृष्ण (“हृषीकेश”) ने कार्य किया। अर्जुन के पिछले श्लोकों (21-23) में कहे गए वचनों के जवाब में यह हुआ। श्रीकृष्ण श्रेष्ठ रथ को दोनों सेनाओं के बीच खड़ा कर देते हैं। यह श्लोक अर्जुन की इच्छा के अनुसार युद्ध के मैदान का परिदृश्य बदलने को दर्शाता है। अब अर्जुन दोनों सेनाओं को स्पष्ट रूप से देख सकेगा, जो उसके आगामी संशय और विषाद का कारण बनेगा। यह श्रीकृष्ण की आज्ञाकारिता और मार्गदर्शक भूमिका को भी दिखाता है।
श्लोक 25
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरुनिति॥25॥
अर्थ: “श्रीकृष्ण ने भीष्म, द्रोण और अन्य राजाओं के सामने रथ को खड़ा कर अर्जुन से कहा – हे पार्थ! देखो, ये सब कुरु वंश के योद्धा यहाँ एकत्रित हुए हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण ने रथ को विशेष रूप से भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने खड़ा किया। उन्होंने अर्जुन को संकेत दिया कि ये वे लोग हैं जिनसे तुम्हें युद्ध करना है। यह श्लोक अर्जुन को युद्ध के मैदान का अवलोकन करने के लिए तैयार करता है, जो उसके मन में संशय और भावनात्मक उथल-पुथल पैदा करेगा।
श्लोक 26
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥26॥
अर्थ: “वहाँ अर्जुन ने अपने पिताओं, पितामहों, आचार्यों, मामा, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों और मित्रों को खड़ा देखा।”
व्याख्या: जब अर्जुन ने सेनाओं की ओर देखा, तो उन्होंने अपने ही परिवार के सदस्यों को युद्ध के लिए तैयार देखा। यहाँ पहली बार अर्जुन को यह अहसास होता है कि यह युद्ध केवल एक राजनीतिक संघर्ष नहीं, बल्कि एक परिवार के भीतर का विनाश है। अर्जुन शत्रु सेना में अपने प्रियजनों को देखता है, जो उसके मन में संशय और दुख को जन्म देगा। यह उसके विषाद की शुरुआत है।
श्लोक 27
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान्॥27॥
अर्थ: “जब अर्जुन ने दोनों सेनाओं में अपने श्वसुरों और मित्रों को भी खड़ा देखा, तो वे अत्यधिक करुणा से भर गए और दुखी होकर कहने लगे।”
व्याख्या: अर्जुन दोनों सेनाओं में अपने ससुरों (जैसे द्रुपद) और दोस्तों को देखता है। “कौन्तेयः” यानी कुन्ती का बेटा अर्जुन, सभी रिश्तेदारों को ध्यान से देखता है। ये लोग युद्ध के लिए तैयार खड़े हैं। इससे अर्जुन का मन और परेशान होने वाला है, क्योंकि उसे अपने ही अपनों से लड़ना है।
श्लोक 28
अर्जुन उवाच
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥28॥
अर्थ: “अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! जब मैं अपने इस स्वजन समूह को युद्ध के लिए तैयार खड़ा देख रहा हूँ”
व्याख्या: अर्जुन अपने रिश्तेदारों को देखकर दया और दुख से भर जाता है। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि ये अपने लोग (“स्वजनम्”) जो युद्ध के लिए तैयार हैं, उसे देखकर मेरा मन परेशान हो रहा है। यहाँ से अर्जुन का दुख शुरू होता है।
श्लोक 29
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते॥29॥
अर्थ: “मेरे शरीर के सभी अंग काँप रहे हैं और मुँह सूखा जा रहा है, और मेरे शरीर के कम्पन से रोमांच उत्पन्न हो रहा है।”
व्याख्या:
- अर्जुन के शरीर में भय और चिंता के लक्षण दिखने लगे।
- युद्ध से पहले ही वे अत्यधिक भावुक और कमजोर महसूस कर रहे हैं।
श्लोक 30
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥30॥
अर्थ: “मेरे हाथ से गांडीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है, मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा भी नही रह पा रहा हूँ।”
व्याख्या: अर्जुन कहता है कि उसका धनुष “गांडीव” हाथ से छूट रहा है। उसकी त्वचा जल रही है, वह खड़ा नहीं रह पा रहा, और उसका दिमाग घूम रहा है। वह बहुत डरा हुआ और परेशान है। अर्जुन शारीरिक और मानसिक रूप से अस्थिर हो गए हैं।
श्लोक 31
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥31॥
अर्थ: “हे कृष्ण! मैं इस युद्ध में अपने स्वजनों को मारकर कोई भलाई नहीं देख रहा हूँ। न ही मुझे विजय, राज्य या सुख की कोई इच्छा है।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण (“केशव”) से कहता है कि अपने लोगों को युद्ध में मारने से कुछ अच्छा नहीं होगा। यह उनके धर्म संकट की शुरुआत है।
श्लोक 32
न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा॥32॥
अर्थ: “हे कृष्ण! मैं न जीत चाहता हूँ, न राज्य, न सुख। हे गोविंद! हमें राज्य से क्या, भोगों से क्या, या जीवन से क्या?”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है कि उसे न जीत चाहिए, न राज्य, न सुख। वह “गोविंद” कहकर पूछता है कि जब अपने लोग मर जाएँगे, तो राज्य, सुख या जीवन का क्या फायदा? वह बहुत दुखी है।
श्लोक 33
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥33॥
अर्थ: “जिनके लिए हमने राज्य, भोग और सुख चाहे, वे ही यहाँ युद्ध में अपने प्राण और धन छोड़ने को तैयार खड़े हैं।”
व्याख्या: अर्जुन कहता है कि जिन लोगों के लिए वह राज्य और सुख चाहता था, वही अब युद्ध में उससे लड़ने और अपनी जान-माल गँवाने को तैयार हैं। उसे यह सब बेकार लग रहा है।
श्लोक 34
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा॥34॥
अर्थ: “गुरु, पिता, पुत्र, दादा, मामा, ससुर, नाती, साले और अन्य रिश्तेदार भी (यहाँ युद्ध में खड़े हैं)।”
व्याख्या: अर्जुन कहता है कि युद्ध में उसके गुरु (जैसे द्रोण), पिता जैसे लोग, बेटे, दादा (जैसे भीष्म), मामा, ससुर, नाती, साले और बाकी रिश्तेदार भी हैं। उसे अपने ही अपनों से लड़ना मुश्किल लग रहा है।
श्लोक 35
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥35॥
अर्थ: “हे मधुसूदन! मैं इन्हें मारना नहीं चाहता, भले ही वे मुझे मार दें। तीनों लोकों के राज्य के लिए भी नहीं, फिर पृथ्वी के लिए क्या?”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण (“मधुसूदन”) से कहता है कि वह अपने लोगों को नहीं मारना चाहता, चाहे वे उसे मार दें। वह कहता है कि तीन लोकों का राज्य भी मिले तो नहीं, फिर सिर्फ पृथ्वी के लिए क्यों मारे?
श्लोक 36
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः॥36॥
अर्थ: “हे जनार्दन! दुर्योधन और उसके भाइयों को मारकर हमें क्या खुशी मिलेगी? हमें तो केवल पाप ही लगेगा, भले ही वे आक्रमणकारी हों।”
व्याख्या: अर्जुन धर्म और अधर्म के बीच दुविधा में हैं। वे अपने भाइयों को मारना अधर्म मान रहे हैं, जबकि वे “आततायी” (अत्याचारी) भी हैं।
श्लोक 37
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥37॥
अर्थ: “इसलिए हम धृतराष्ट्र के पुत्रों, अपने बंधुओं को मारने के योग्य नहीं हैं। हे माधव! अपने लोगों को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण (“माधव”) से कहता है कि हमें अपने रिश्तेदार कौरवों को नहीं मारना चाहिए। वह पूछता है कि अपने लोगों को मारने के बाद हम सुखी कैसे रह पाएँगे? उसका मन दुखी है।
श्लोक 38
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥38॥
अर्थ: “हालाँकि ये लोग लोभ से भ्रष्ट मन के कारण कुल के नाश और मित्रों से विश्वासघात में दोष व पाप नहीं देखते।”
व्याख्या: अर्जुन कहता है कि कौरव लोभ के कारण अंधे हो गए हैं। वे नहीं देखते कि कुल को नष्ट करना और दोस्तों से धोखा देना पाप है। वह इसे गलत मानता है।
श्लोक 39
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥39॥
अर्थ: “हे जनार्दन! जब हम कुल के नाश से होने वाले दोष को देखते हैं, तो हमें इस पाप से बचने के लिए कैसे नहीं जानना चाहिए?”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण (“जनार्दन”) से कहता है कि जब हम समझते हैं कि कुल को नष्ट करना गलत है, तो हमें इस पाप से बचना चाहिए। वह पूछता है कि ऐसा क्यों न करें।
श्लोक 40
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥40॥
अर्थ: “कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं। धर्म के नष्ट होने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म हावी हो जाता है।”
व्याख्या: अर्जुन कहता है कि कुल के खत्म होने से पुरानी परंपराएँ मर जाती हैं। जब धर्म चला जाता है, तो पूरे परिवार में बुराई फैल जाती है। उसे यह चिंता सता रही है।
श्लोक 41
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥41॥
अर्थ: “हे कृष्ण! जब अधर्म का प्रबल प्रभाव होता है, तो कुल की स्त्रियाँ भ्रष्ट हो जाती हैं, और स्त्रियों के भ्रष्ट होने से वर्णसंकर (अशुद्ध संतति) उत्पन्न होती है।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से कहता है कि अधर्म फैलने से परिवार की औरतें बिगड़ जाती हैं। जब ऐसा होता है, तो समाज में वर्णों का मिश्रण हो जाता है। उसे यह डर है।
श्लोक 42
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥42॥
अर्थ: “वर्णसंकर संपूर्ण कुल और उसके नाश करने वालों को नरक में ले जाता है। उनके पितर (पूर्वज) भी तर्पण और जल अर्पण की क्रियाओं के नष्ट हो जाने से अधोगति को प्राप्त होते हैं।”
व्याख्या: जब वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं, तो कुल की परंपराएँ और धार्मिक कर्तव्य नष्ट हो जाते हैं। पूर्वजों का श्राद्ध और तर्पण समाप्त होने से वे भी कष्ट पाते हैं। यह हिंदू धर्म में पितृ तर्पण और कर्मकांडों के महत्व को दर्शाता है।
श्लोक 43
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥43॥
अर्थ: “ऐसे कुलनाशकों के इन पापों के कारण वर्णसंकर उत्पन्न होते हैं, जिससे जाति और कुल के सनातन धर्म नष्ट हो जाते हैं।”
व्याख्या: अर्जुन सनातन धर्म की रक्षा की बात कर रहे हैं। जब कुलधर्म और जातिधर्म समाप्त होते हैं, तो समाज में धार्मिक और नैतिक पतन शुरू हो जाता है।
श्लोक 44
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥44॥
अर्थ: “हे जनार्दन! जिनका कुलधर्म नष्ट हो जाता है, वे लोग निश्चित रूप से नरकगामी होते हैं। मैंने ऐसा श्रुतियों में सुना है।”
व्याख्या: अर्जुन अपने विचारों की पुष्टि करने के लिए शास्त्रों का हवाला देते हैं। वे कहते हैं कि जो लोग धर्म का नाश करते हैं, वे स्वयं नरक में जाते हैं। यह अर्जुन के मन में युद्ध के प्रति और अधिक भय और संकोच पैदा करता है।
श्लोक 45
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥45॥
अर्थ: “हाय! कितना बड़ा पाप करने के लिए हम तैयार हो गए हैं। हम राज्य और सुख के लोभ में अपने ही स्वजनों को मारने जा रहे हैं।”
व्याख्या: अर्जुन को अब लग रहा है कि यह युद्ध एक भयंकर पाप है। उन्हें लग रहा है कि सिर्फ राज्य और सुख के लिए वे स्वजनों की हत्या करने जा रहे हैं। “अहो बत” – यह शब्द उनके गहरे दुख और पछतावे को प्रकट करता है।
श्लोक 46
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥46॥
अर्थ: “यदि कौरव मुझे निःशस्त्र और प्रतिकार न करने वाला जानकर युद्ध में मार दें, तो भी यह मेरे लिए अधिक कल्याणकारी होगा।”
व्याख्या: अर्जुन अब युद्ध में लड़ने की बजाय मरना बेहतर मान रहे हैं। वे स्वयं को अहिंसा और करुणा के पक्ष में खड़ा कर रहे हैं। यह दर्शाता है कि उनका युद्ध लड़ने का संकल्प पूरी तरह समाप्त हो गया है।
श्लोक 47
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥47॥
अर्थ: “संजय ने कहा – ऐसा कहकर अर्जुन युद्धभूमि में अपने रथ के भीतर बैठ गए। उन्होंने धनुष-बाण त्याग दिए और अत्यधिक शोक से व्याकुल मन से बैठ गए।”
व्याख्या: अर्जुन ने युद्ध करने से इनकार कर दिया और अपने धनुष-बाण त्याग दिए। वे शोक और करुणा से पूर्ण रूप से व्याकुल हो गए।
यह पहला अध्याय “अर्जुन विषाद योग” (अर्जुन का दुख)” के रूप में समाप्त होता है।
श्रीमद् भागवत गीता के पहले अध्याय सारांश
प्रथम अध्याय की शुरुआत कुरुक्षेत्र में युद्ध की तैयारी से होती है। धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि युद्ध के मैदान में क्या हो रहा है। संजय वर्णन करता है कि कौरव और पांडव सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हैं। शंखनाद और युद्ध के उपकरणों की ध्वनि से वातावरण गूँज उठता है।
अर्जुन अपने रथ से दोनों सेनाओं को देखता है और उसे अपने रिश्तेदार, गुरुजन जैसे द्रोणाचार्य और भीष्म, और भाई-बंधु दिखाई देते हैं। यह दृश्य उसके मन में गहरा संकट पैदा करता है। वह सोचता है कि अपने ही लोगों को मारने से क्या लाभ होगा। उसका मन दुख और भय से भर जाता है, और वह धनुष-बाण छोड़कर रथ पर बैठ जाता है।
वह श्रीकृष्ण से कहता है कि वह युद्ध नहीं लड़ सकता, क्योंकि यह पाप और परिवार के विनाश का कारण बनेगा। यहाँ अर्जुन का विषाद पूर्ण रूप से प्रकट होता है, और वह मार्गदर्शन की माँग करता है।