श्रीमद्भागवत गीता का तेरहवां अध्याय “क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग” कहलाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण आत्मा (क्षेत्रज्ञ), शरीर (क्षेत्र), परमात्मा और सच्चे ज्ञान के विषय में विस्तार से बताते हैं। यह अध्याय उस सत्य की ओर इशारा करता है, जो हर जीव के भीतर विद्यमान है, परंतु जिसे जानने के लिए विवेक और आत्मचिंतन की आवश्यकता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 13: क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग (Bhagwat Geeta Chapter 13)
श्रीमद् भागवत गीता का तेरहवां अध्याय, “क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग योग” है। यह अध्याय 35 श्लोकों में विभाजित है। अर्जुन इस अध्याय की शुरुआत में श्रीकृष्ण से प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय के बारे में प्रश्न पूछते हैं। श्रीकृष्ण इन प्रश्नों के उत्तर में आत्मा और प्रकृति के स्वरूप को विस्तार से समझाते हैं, जो मानव जीवन को सही दिशा देने में सहायक है।
श्लोक 1
अर्जुन उवाच।
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ॥1॥
अर्थ: अर्जुन बोले: “हे केशव! मैं प्रकृति (सृष्टि की मूल शक्ति), पुरुष (परमात्मा), क्षेत्र (शरीर), क्षेत्रज्ञ (आत्मा), ज्ञान (सच्चा ज्ञान) और ज्ञेय (जिसे जानना चाहिए – परमात्मा) – इन सबको जानना चाहता हूँ।”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से छह प्रश्न पूछते हैं: प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय के बारे में। यह अध्याय का आधार है, जहाँ श्रीकृष्ण इन तत्वों की व्याख्या करते हैं। प्रकृति भौतिक सृष्टि (शरीर, मन, इंद्रियाँ) है, जो परिवर्तनशील है, जबकि पुरुष शाश्वत आत्मा है। क्षेत्र प्रकृति का रूप है, और क्षेत्रज्ञ चेतन आत्मा। ज्ञान आत्म-साक्षात्कार का मार्ग है, और ज्ञेय परमात्मा है। अर्जुन का प्रश्न आत्म-ज्ञान की खोज को दर्शाता है, जो मोक्ष का आधार है। यह श्लोक साधक को अपने सच्चे स्वरूप को समझने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच।
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥2॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण बोले: “हे कौन्तेय! यह शरीर “क्षेत्र” कहलाता है, और जो इस शरीर को जानता है, उसे जानने वाले ज्ञानी जन “क्षेत्रज्ञ” कहते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्न का उत्तर शुरू करते हैं। वे शरीर को क्षेत्र (प्रकृति या भौतिक तत्व) और आत्मा को क्षेत्रज्ञ (चेतन तत्व) के रूप में परिभाषित करते हैं। क्षेत्र नश्वर और परिवर्तनशील है, जबकि क्षेत्रज्ञ शाश्वत और साक्षी है। यह भेद आत्म-ज्ञान का आधार है, जो हमें देह-अभिमान से मुक्त करता है।
श्लोक 3
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥3॥
अर्थ: “हे भारत (अर्जुन)! तू मुझे (श्रीकृष्ण को) सभी शरीरों (क्षेत्रों) में स्थित क्षेत्रज्ञ (परमात्मा) के रूप में जान। क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का जो ज्ञान है, वही मुझे सच्चा ज्ञान प्रतीत होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे स्वयं सभी प्राणियों में क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के रूप में विद्यमान हैं। क्षेत्र (शरीर) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के भेद को समझना सच्चा ज्ञान है। यह ज्ञान साधक को परमात्मा से एकरूप होने और माया से मुक्त होने का मार्ग दिखाता है।
श्लोक 4
तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत्।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥4॥
अर्थ: “वह “क्षेत्र” (शरीर) क्या है, किस प्रकार का है, किस-किस प्रकार के परिवर्तन उसमें होते हैं, वह किस कारण से उत्पन्न होता है और क्षेत्रज्ञ क्या है तथा उसकी क्या शक्ति है – यह सब संक्षेप में मुझसे सुनो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की विस्तृत व्याख्या करने का वचन देते हैं। वे क्षेत्र के स्वरूप, उसके परिवर्तनों, कारणों, और क्षेत्रज्ञ की शक्ति को समझाने का संकल्प करते हैं। यह श्लोक अध्याय के मुख्य विषय का परिचय देता है, जो आत्म-जागरूकता का आधार है।
श्लोक 5
ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥5॥
अर्थ: “उस विषय को अनेक प्रकार से ऋषियों ने कहा है, विभिन्न वैदिक मंत्रों में वर्णन किया गया है और उसे तर्कयुक्त तथा निश्चित रूप से ब्रह्मसूत्रों के वाक्यों द्वारा भी कहा गया है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का ज्ञान नया नहीं है। इसे प्राचीन ऋषियों ने अपने लेखों, वैदिक छंदों, और ब्रह्मसूत्रों में तर्क के साथ स्पष्ट किया है। यह श्लोक इस ज्ञान की प्रामाणिकता और प्राचीनता को रेखांकित करता है, जो सनातन सत्य है।
श्लोक 6
महाभूतान्यहङ्ककारो बुद्धिरव्यक्त मेव च ।
इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥6॥
अर्थ: “पाँच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश), अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त (प्रकृति), दस इन्द्रियाँ और एक मन तथा पाँच इन्द्रियों के विषय – यह सब क्षेत्र (शरीर) के तत्व हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण क्षेत्र के स्वरूप की व्याख्या शुरू करते हैं। क्षेत्र में भौतिक तत्व (पाँच महाभूत), अहंकार, बुद्धि, प्रकृति, दस इंद्रियाँ (पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच ज्ञानेंद्रियाँ), मन, और इंद्रिय-विषय (रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द) शामिल हैं। यह भौतिक सृष्टि का आधार है, जो परिवर्तनशील और नश्वर है।
श्लोक 7
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः ।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥7॥
अर्थ: “इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर की रचना, चेतना और धैर्य – ये सब मिलकर क्षेत्र (शरीर) के विभिन्न विकारों सहित स्वरूप को दर्शाते हैं। ये शरीर के गुण हैं जिन्हें संक्षेप में समझाया गया है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण क्षेत्र की व्याख्या पूरी करते हैं। पिछले श्लोक में भौतिक तत्वों के बाद, यहाँ वे मानसिक और भावनात्मक पहलुओं—इच्छा, द्वेष, सुख, दुख—को शामिल करते हैं। शरीर, चेतना, और धृति (दृढ़ता) भी क्षेत्र का हिस्सा हैं। यह सब प्रकृति से उत्पन्न होता है, जो परिवर्तनशील और नश्वर है।
श्लोक 8
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥8॥
अर्थ: “अहंकार का त्याग (अमानित्व), दिखावे का त्याग (अदम्भित्व), अहिंसा, क्षमा, सरलता, गुरु की सेवा, बाहरी और आंतरिक पवित्रता, स्थिरता और आत्म-संयम – ये सभी ज्ञान के लक्षण माने गए हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ सच्चे ज्ञान के गुणों की व्याख्या शुरू करते हैं। ये गुण साधक के चरित्र को शुद्ध करते हैं। विनम्रता और अहंकार का अभाव माया से मुक्ति दिलाते हैं, जबकि अहिंसा, क्षमा, और आत्म-नियंत्रण मन को शांत और स्थिर करते हैं, जो आत्म-ज्ञान का आधार है।
श्लोक 9
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥9॥
अर्थ: “इन्द्रियों के विषयों में वैराग्य, अहंकार का अभाव और जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा तथा रोग रूपी दुखों में दोष और पीड़ा को निरंतर देखना – ये भी ज्ञान के अंग हैं।”
व्याख्या: यह श्लोक ज्ञान के और गुणों को बताता है। इंद्रिय-विषयों से वैराग्य साधक को सांसारिक मोह से मुक्त करता है। अहंकार का त्याग और जीवन की नश्वरता (जन्म, मृत्यु, रोग) पर चिंतन मन को आत्मा की शाश्वत प्रकृति की ओर ले जाता है।
श्लोक 10
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥10॥
अर्थ: “पुत्र, स्त्री और घर आदि में आसक्ति और मोह का अभाव तथा सुख-दुख, लाभ-हानि आदि में सदा समभाव बनाए रखना – यह भी सच्चे ज्ञान का लक्षण है।”
व्याख्या: यह श्लोक वैराग्य और समता को ज्ञान के गुणों के रूप में रेखांकित करता है। सांसारिक संबंधों में आसक्ति छोड़ना और सुख-दुख में समभाव रखना साधक को मानसिक शांति और आत्म-जागरूकता की ओर ले जाता है, जो मोक्ष का मार्ग है।
श्लोक 11
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥11॥
अर्थ: “मेरे प्रति अनन्य और अविचल भक्ति, एकांत स्थानों में रहने की इच्छा और लोगों की भीड़ से विरक्ति – यह भी ज्ञान के लक्षणों में गिना जाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अनन्य भक्ति को ज्ञान का महत्वपूर्ण गुण बताते हैं। परमात्मा में अटल भक्ति साधक को सत्य की ओर ले जाती है। एकांत में चिंतन और सांसारिक भीड़ से दूरी मन को शुद्ध और केंद्रित करती है, जो आत्म-साक्षात्कार के लिए आवश्यक है।
श्लोक 12
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥12॥
अर्थ: “आत्मा और अध्यात्म संबंधी ज्ञान में स्थिर रहना तथा तत्त्व (परम सत्य) के जानने की इच्छा रखना – यह सब ज्ञान कहा गया है। इसके अतिरिक्त जो कुछ है, वह अज्ञान है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण ज्ञान की परिभाषा को समेटते हैं। आध्यात्मिक ज्ञान में स्थिरता और सत्य के दर्शन को सच्चा ज्ञान कहते हैं। यह साधक को आत्मा और परमात्मा के स्वरूप को समझने में मदद करता है। इसके विपरीत, देह-अभिमान और सांसारिक मोह अज्ञान है।
श्लोक 13
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्रुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥13॥
अर्थ: “मैं उस ज्ञेय (जानने योग्य) तत्व का वर्णन करूँगा, जिसे जानकर अमृत (मोक्ष) प्राप्त होता है। वह अनादि परम ब्रह्म है, जो न सत है, न असत।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण ज्ञेय तत्व—परम ब्रह्म—की व्याख्या शुरू करते हैं। यह अनादि, शाश्वत, और सत-असत से परे है। इसे जानने से साधक मोक्ष प्राप्त करता है, क्योंकि यह आत्मा को माया से मुक्त कर परम सत्य से जोड़ता है।
श्लोक 14
सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥14॥
अर्थ: “उसके हाथ-पैर सर्वत्र हैं, उसकी आँखें, सिर और मुख सर्वत्र हैं। वह विश्व में सर्वत्र श्रवणशक्ति के साथ विद्यमान है और सब कुछ को आवृत करके रहता है।”
व्याख्या: परम ब्रह्म का स्वरूप सर्वव्यापी है। उसके हाथ-पैर, आँखें, और श्रवणशक्ति विश्व में हर जगह हैं। वह समस्त सृष्टि को घेरे हुए है, फिर भी किसी एक स्थान तक सीमित नहीं। यह श्लोक परमात्मा की असीम और सर्वत्र उपस्थित प्रकृति को दर्शाता है।
श्लोक 15
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥15॥
अर्थ: “वह (परमात्मा) सब इन्द्रियों के गुणों (क्रियाओं) का अनुभव करता है, पर स्वयं सब इन्द्रियों से रहित है। वह आसक्त नहीं है, परंतु सबका आधार है। वह निर्गुण है, फिर भी गुणों का भोग करने वाला है।”
व्याख्या: परम ब्रह्म इंद्रियों से परे है, पर उनके गुणों को प्रकट करता है। वह आसक्तिरहित और निर्गुण है, फिर भी सृष्टि का पालक और गुणों का नियंता है। यह श्लोक परमात्मा के विरोधाभास-मुक्त स्वरूप को दर्शाता है।
श्लोक 16
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥16॥
अर्थ: “वह (परब्रह्म) समस्त प्राणियों के बाहर और भीतर भी है। वह चलने वाला भी है और अचल भी। वह इतना सूक्ष्म है कि उसे जाना नहीं जा सकता, वह दूर भी प्रतीत होता है और अत्यंत निकट भी।”
व्याख्या: परम ब्रह्म सभी प्राणियों में व्याप्त है, चाहे वे चर (जीवित) हों या अचर (निर्जन)। उसकी सूक्ष्मता उसे समझने में कठिन बनाती है। वह दूर प्रतीत होता है, पर आत्मा के रूप में निकट भी है। यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता और रहस्यमय प्रकृति को बताता है।
श्लोक 17
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम्।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥17॥
अर्थ: “वह (जानने योग्य ब्रह्म) समस्त प्राणियों में अविभाजित रूप से स्थित है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है मानो वह विभाजित हो। वह समस्त प्राणियों का धारक है, उनका हरण करने वाला (ग्रसिष्णु) है और उत्पन्न करने वाला (प्रभविष्णु) भी।”
व्याख्या: परम ब्रह्म सभी प्राणियों में अखंड रूप में विद्यमान है, पर माया के कारण अलग-अलग प्रतीत होता है। वह सृष्टि का पालन, संहार, और सृजन करता है। यह श्लोक परमात्मा की एकता और उसकी सृष्टि में विविध भूमिकाओं को दर्शाता है।
श्लोक 18
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥18॥
अर्थ: “वह (परमात्मा) समस्त प्रकाशों का भी प्रकाश है और अंधकार (अज्ञान) से परे है। वह स्वयं ज्ञान है, ज्ञेय (जिसे जाना जाना चाहिए) है, और ज्ञान से प्राप्त होने वाला भी है।वह प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित है।”
व्याख्या: परम ब्रह्म सर्वोच्च प्रकाश है, जो अज्ञान के अंधकार को नष्ट करता है। वह ज्ञान का स्रोत, ज्ञान का लक्ष्य, और ज्ञान का मार्ग है। सभी प्राणियों के हृदय में विद्यमान, वह आत्मा के रूप में सदा निकट है।
श्लोक 19
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः ।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते ॥19॥
अर्थ: “इस प्रकार क्षेत्र (शरीर), ज्ञान और ज्ञेय (जानने योग्य वस्तु – परमात्मा) का संक्षेप में वर्णन किया गया। जो मेरा भक्त इन सबको यथार्थ रूप से जान लेता है, वह मेरी ही अवस्था को प्राप्त होता है (मुझमें लीन हो जाता है)।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण क्षेत्र, ज्ञान, और ज्ञेय की व्याख्या का सार प्रस्तुत करते हैं। जो भक्त इस सत्य को समझता है, वह भक्ति और ज्ञान के माध्यम से परमात्मा के साथ एकरूप हो जाता है। यह श्लोक भक्ति और ज्ञान के समन्वय को रेखांकित करता है।
श्लोक 20
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसम्भवान् ॥20॥
अर्थ: “प्रकृति और पुरुष – इन दोनों को अनादि जानो।प्रकृति से उत्पन्न होने वाले विकारों और गुणों को भी समझो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण प्रकृति (भौतिक सृष्टि) और पुरुष (आत्मा) को अनादि बताते हैं। सृष्टि के सभी परिवर्तन (विकार) और गुण (सत्त्व, रजस, तमस) प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, न कि पुरुष से। यह भेद आत्म-ज्ञान के लिए महत्वपूर्ण है।
श्लोक 21
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते ॥21॥
अर्थ: “कार्य और करण (शरीर और इंद्रियाँ) के कर्तृत्व का कारण प्रकृति है। सुख-दुख के भोक्ता होने का कारण पुरुष है।”
व्याख्या: प्रकृति शरीर और इंद्रियाँ के कार्यों का कारण है, जबकि पुरुष (आत्मा) सुख-दुख का अनुभव करता है। यह श्लोक प्रकृति और पुरुष के संबंध को स्पष्ट करता है, जो बंधन का कारण है। आत्मा का प्रकृति से तादात्म्य ही सुख-दुख का आधार है।
श्लोक 22
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ॥22॥
अर्थ: “पुरुष (आत्मा) प्रकृति में स्थित होकर प्रकृति से उत्पन्न गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) का भोग करता है। इन गुणों का संग ही उसके अच्छे-बुरे योनियों में जन्म का कारण है।”
व्याख्या: आत्मा जब प्रकृति के साथ तादात्म्य करता है, तो वह सत्त्व, रजस, और तमस गुणों का भोग करता है। यह गुणों का संग ही सुख-दुख और विभिन्न जन्मों का कारण बनता है। यह श्लोक बंधन के मूल कारण—प्रकृति से तादात्म्य—को स्पष्ट करता है।
श्लोक 23
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥23॥
अर्थ: “यह परम पुरुष (परमात्मा) इस शरीर में स्थित होकर द्रष्टा (साक्षी), अनुमन्ता (अनुमति देने वाला), भर्ता (पालनकर्ता), भोक्ता, महेश्वर (सर्वेश्वर) और परमात्मा कहलाता है।”
व्याख्या: परमात्मा शरीर में आत्मा के साथ साक्षी, अनुमति देने वाला, पालक, और नियंता के रूप में विद्यमान है। यह श्लोक परमात्मा की सर्वोच्च स्थिति को दर्शाता है, जो आत्मा से भिन्न और उसका मार्गदर्शक है।
श्लोक 24
य एवं वेत्ति पुरुष प्रकृतिं च गुणैः सह ।
सर्वथा वर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते ॥24॥
अर्थ: “जो पुरुष (आत्मा) और प्रकृति को उसके गुणों सहित यथार्थ रूप में जान लेता है, वह सभी परिस्थितियों में रहते हुए भी पुनर्जन्म नहीं लेता।”
व्याख्या: आत्मा, प्रकृति, और उसके गुणों का भेद समझने वाला साधक बंधन से मुक्त हो जाता है। यह ज्ञान उसे पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति दिलाता है, क्योंकि वह माया के प्रभाव से परे हो जाता है।
श्लोक 25
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।
अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥25॥
अर्थ: “कुछ लोग ध्यान के द्वारा आत्मा में आत्मा को देखते हैं, अन्य सांख्य योग (ज्ञानयोग) से, और कुछ कर्मयोग से।”
व्याख्या: यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार के विभिन्न मार्ग बताता है। ध्यान (ध्यानयोग), सांख्य (ज्ञानयोग), और कर्मयोग—ये सभी आत्मा को जानने के साधन हैं। साधक अपनी प्रकृति के अनुसार इनमें से कोई मार्ग चुन सकता है।
श्लोक 26
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥26॥
अर्थ: “कुछ लोग, जो स्वयं नहीं जानते, दूसरों से सुनकर उपासना करते हैं। वे भी, जो श्रुति (शास्त्रों) में श्रद्धा रखते हैं, मृत्यु (पुनर्जन्म) को पार कर जाते हैं।”
व्याख्या: जो लोग स्वयं ज्ञान प्राप्त नहीं कर पाते, वे गुरुओं या शास्त्रों से सुनकर भक्ति और श्रद्धा से उपासना करते हैं। यह श्रद्धापूर्ण भक्ति भी उन्हें पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति दिलाती है।
श्लोक 27
यावत्सञ्जायते किञिचत्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम् ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ ॥27॥
अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ! जो कुछ भी स्थावर (अचर) या जंगम (चर) सत्त्व उत्पन्न होता है, वह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के संयोग से होता है, ऐसा जान।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि सृष्टि में सभी चर (जीवित प्राणी) और अचर (निर्जन) वस्तुएँ क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के संयोग से उत्पन्न होती हैं। यह संयोग ही सृष्टि का आधार है। यह श्लोक प्रकृति और पुरुष के मिलन से उत्पन्न होने वाली सृष्टि की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है।
श्लोक 28
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम् ।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति ॥28॥
अर्थ: “जो सभी प्राणियों में समान रूप से स्थित परमेश्वर को देखता है, जो नष्ट होने वालों में भी नष्ट नहीं होता, वही यथार्थ देखता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि सच्चा दृष्टा वही है, जो सभी प्राणियों में परमात्मा को समान रूप से देखता है। परमात्मा नश्वर शरीरों में भी अविनाशी है। यह विवेक साधक को देह-अभिमान से मुक्त कर परम सत्य की ओर ले जाता है।
श्लोक 29
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् ।
न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतम् ॥29॥
अर्थ: “जो सर्वत्र समान रूप से स्थित ईश्वर को देखता है, वह आत्मा से आत्मा का नाश नहीं करता और इस प्रकार परम गति को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: परमात्मा को सभी में समान देखने वाला साधक अहंकार और हिंसा से मुक्त हो जाता है। वह आत्मा को हानि नहीं पहुँचाता, क्योंकि वह सभी में एक ही चेतना देखता है। यह समदृष्टि उसे मोक्ष की ओर ले जाती है।
श्लोक 30
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः ।
यः पश्यति तथात्मानकर्तारं स पश्यति ॥30॥
अर्थ: “जो देखता है कि सभी कर्म प्रकृति द्वारा ही किए जाते हैं और आत्मा अकर्ता है, वही यथार्थ देखता है।”
व्याख्या: यह श्लोक प्रकृति और आत्मा के भेद को रेखांकित करता है। सभी कर्म प्रकृति के गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) द्वारा होते हैं, आत्मा केवल साक्षी है। यह समझ साधक को कर्मों के बंधन से मुक्त करती है।
श्लोक 31
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥31॥
अर्थ: “जब वह सभी प्राणियों की विभिन्नताओं को एक ही स्थान (परमात्मा) में देखता है और उससे ही सृष्टि का विस्तार समझता है, तब वह ब्रह्म को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: साधक जब सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा को देखता है और सृष्टि को उसी से उत्पन्न समझता है, तो वह ब्रह्म के साथ एकरूप हो जाता है। यह श्लोक एकता के दर्शन और मोक्ष की प्राप्ति को दर्शाता है।
श्लोक 32
अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥32॥
अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र! यह परमात्मा अनादि, निर्गुण, और अविनाशी है। शरीर में स्थित होने पर भी वह न कुछ करता है, न लिप्त होता है।”
व्याख्या: परमात्मा अनादि और निर्गुण है, इसलिए वह कर्मों से अछूता रहता है। शरीर में रहते हुए भी वह अकर्ता और अलिप्त रहता है। यह श्लोक आत्मा की शुद्ध और अविनाशी प्रकृति को स्पष्ट करता है।
श्लोक 33
यथा सर्वगतं सौक्ष्यादाकाशं नोपलिप्यते ।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥33॥
अर्थ: “जैसे सर्वत्र व्याप्त आकाश अपनी सूक्ष्मता के कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा कर्मों से लिप्त नहीं होती।”
व्याख्या: आत्मा की तुलना आकाश से की गई है, जो सर्वत्र है, पर सूक्ष्म होने के कारण अछूता रहता है। आत्मा शरीर में रहते हुए भी कर्मों और उनके फलों से मुक्त रहती है, क्योंकि वह प्रकृति से भिन्न है।
श्लोक 34
यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥34॥
अर्थ: “हे भारत! जैसे एक सूर्य इस सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करता है, वैसे ही क्षेत्रज्ञ (आत्मा) सम्पूर्ण क्षेत्र (शरीर) को प्रकाशित करता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आत्मा (क्षेत्रज्ञ) की तुलना सूर्य से करते हैं, जो शरीर (क्षेत्र) को चेतना से प्रकाशित करता है। जैसे सूर्य विश्व को रोशनी देता है, वैसे ही आत्मा शरीर को जीवन और जागरूकता प्रदान करता है, पर स्वयं अलिप्त रहता है। यह श्लोक आत्मा की सर्वोच्च और प्रकाशमान प्रकृति को दर्शाता है।
श्लोक 35
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥35॥
अर्थ: “जो लोग ज्ञान के नेत्रों से क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बीच का अंतर, और प्राणियों को प्रकृति के बंधन से मुक्ति को जान लेते हैं, वे परम तत्व को प्राप्त करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस अध्याय का समापन करते हुए कहते हैं कि जो साधक ज्ञान के द्वारा क्षेत्र (प्रकृति) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) के भेद को समझ लेता है, और प्राणियों को प्रकृति के बंधन से मुक्त होने का मार्ग जान लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त करता है। यह श्लोक ज्ञान और विवेक के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति को रेखांकित करता है।
श्रीमद् भागवत गीता के तेरहवें अध्याय सारांश
इस अध्याय में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कुछ गहरे सवाल पूछते हैं: प्रकृति, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान, और जानने योग्य तत्व क्या हैं? ये सवाल हमारे जीवन के बड़े सवालों जैसे “हम कौन हैं?” और “जीवन का असली मकसद क्या है?” से जुड़े हैं। श्रीकृष्ण इनका जवाब देते हुए बताते हैं कि हमें अपने शरीर और आत्मा के बीच का फर्क समझना जरूरी है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि सच्चाई को जानने से ही हम जिंदगी के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं।
श्रीकृष्ण बताते हैं कि क्षेत्र यानी हमारा शरीर, मन, इंद्रियाँ, और भावनाएँ (जैसे सुख-दुख, इच्छा-नफरत)। ये सब प्रकृति से बने हैं और बदलते रहते हैं। दूसरी ओर, क्षेत्रज्ञ यानी हमारी आत्मा, जो इन सब को देखती और जानती है। आत्मा कभी नहीं बदलती और नष्ट नहीं होती। श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे स्वयं हर प्राणी में आत्मा के रूप में मौजूद हैं। इन दोनों के बीच का फर्क समझना ही सच्चा ज्ञान है, जो हमें भटकाव से बचाता है।
सच्चा ज्ञान कुछ खास गुणों से बनता है, जैसे नम्रता, अहंकार न रखना, दूसरों को नुकसान न पहुँचाना, धैर्य, और सच्चाई। इसके अलावा, दुनिया की चीजों (जैसे धन, रिश्ते) से मोह छोड़ना, जन्म-मृत्यु जैसे सत्य पर विचार करना, और भगवान में सच्ची भक्ति करना भी ज्ञान का हिस्सा है। ये गुण हमारे मन को शुद्ध करते हैं और हमें सही रास्ते पर ले जाते हैं। जो इन गुणों को नहीं अपनाता, वह अज्ञान में रहता है और भौतिक दुनिया में फंस जाता है।
श्रीकृष्ण उस परम तत्व की बात करते हैं, जिसे जानने से हमें मोक्ष मिलता है। यह परम तत्व यानी परमात्मा हर जगह मौजूद है—हर प्राणी के अंदर और बाहर। वह सूरज की तरह है, जो सबको रोशनी देता है, लेकिन खुद किसी चीज से प्रभावित नहीं होता। वह इंद्रियों से परे है, फिर भी हर चीज को संभालता है। उसे समझना मुश्किल है, लेकिन वह हमारे दिल में आत्मा के रूप में हमेशा मौजूद है।
प्रकृति (जो हमारा शरीर और दुनिया बनाती है) और आत्मा (हमारा असली स्वरूप) दोनों हमेशा से हैं। प्रकृति के गुण (सत्त्व, रजस, तमस) हमारे कर्मों और सुख-दुख का कारण बनते हैं। जब आत्मा गलती से खुद को शरीर समझ लेती है, तो वह सुख-दुख में फंस जाती है। इस गलतफहमी की वजह से ही हमें बार-बार जन्म लेना पड़ता है। लेकिन जब हम समझ जाते हैं कि आत्मा अलग और अलिप्त है, तो हम बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
मोक्ष पाने के लिए हमें आत्मा और शरीर का फर्क समझना होगा। यह समझ कई रास्तों से आ सकती है: ध्यान (ध्यानयोग), ज्ञान (सांख्ययोग), कर्म (कर्मयोग), या भगवान में भक्ति (भक्तियोग)। जो लोग सीधे ज्ञान नहीं पा सकते, वे गुरुओं या शास्त्रों से सुनकर और श्रद्धा से भक्ति करके भी मोक्ष पा सकते हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हर प्राणी में परमात्मा को एकसमान देखना और आत्मा को कर्मों से अलग समझना मोक्ष का रास्ता है।
अंत में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि जैसे सूरज पूरी दुनिया को रोशनी देता है, वैसे ही आत्मा शरीर को चेतना देती है। जो इस फर्क को और प्रकृति के बंधनों से मुक्ति को समझ लेता है, वह परमात्मा को पा लेता है। यह अध्याय हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान, भक्ति, और विवेक हमें जिंदगी के भ्रम से निकालकर शांति और मुक्ति की ओर ले जाता है।