श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 14: गुण त्रय विभाग योग | Bhagwat Geeta Chapter 14

श्रीमद्भागवत गीता का चौदहवाँ अध्याय “गुण त्रय विभाग योग” कहलाता है। यह अध्याय मानव स्वभाव को प्रभावित करने वाले तीन प्रमुख गुणों – सत्त्व, रजस और तमस – का विस्तृत वर्णन करता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को इन गुणों के प्रभाव, उनके लक्षण और उनसे ऊपर उठने के मार्ग के बारे में बताते हैं।

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श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 14: गुण त्रय विभाग योग (Bhagwat Geeta Chapter 14)

श्रीमद् भागवत गीता का चौदहवाँ अध्याय, “गुण त्रय विभाग योग” है। यह अध्याय 27 श्लोकों में विभाजित है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह सम्पूर्ण सृष्टि इन तीन गुणों द्वारा नियंत्रित होती है। ये गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और आत्मा को शरीर से बांधे रखते हैं। प्रकृति के तीन गुण—सत्त्व, रजस और तमस—इस संसार के सभी भौतिक और मानसिक गतिविधियों के मूल में हैं।

श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच।
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥1॥

अर्थ: श्रीभगवान ने कहा: “अब मैं तुम्हें पुनः सर्वोच्च ज्ञान बताऊँगा, जो समस्त ज्ञानों में श्रेष्ठ है। इस ज्ञान को जानकर अनेकों मुनि इस संसार से परे परम सिद्धि को प्राप्त हो चुके हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रकृति के तीन गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) के बारे में सर्वोत्तम ज्ञान देने जा रहे हैं, जो जीव को बंधनों से मुक्त कर मोक्ष की ओर ले जाता है, जैसा कि मुनियों ने प्राप्त किया। यह श्लोक इस अध्याय का आधार बनाता है, जो आत्म-जागरूकता और शांति के लिए गुणों को समझने की प्रेरणा देता है।

श्लोक 2

इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥2॥

अर्थ: “इस परम ज्ञान का आश्रय लेकर जो मेरी स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं, वे न तो सृष्टि के समय जन्म लेते हैं और न ही प्रलय के समय दुखी होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि प्रकृति के तीन गुणों का ज्ञान अपनाने से व्यक्ति परमात्मा के स्वरूप के समान हो जाता है, जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होता है, और प्रलय के समय भी भय या दुख से अछूता रहता है। यह श्लोक मुक्ति के लक्ष्य को दर्शाता है, जो आत्म-जागरूकता और शांति प्रदान करता है।

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श्लोक 3

मम योनिर्महद ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥3॥

अर्थ: “हे भारत (अर्जुन)! मेरी प्रकृति (मूल प्रकृति) ही मेरी गर्भधारण की योनिरूपा है। मैं उसमें बीज रूप से गर्भ का आरोपण करता हूँ और उसी से सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रकृति (महद्ब्रह्म) सृष्टि की मूल योनि है, और वे उसमें चेतना का बीज डालते हैं, जिससे सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है। यह श्लोक प्रकृति और पुरुष (परमात्मा) के संयोग से सृष्टि के निर्माण को समझाता है, जो गुणों के प्रभाव का आधार है।

श्लोक 4

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥4॥

अर्थ: “हे कौन्तेय! जितने भी योनियों में प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सबकी आदि प्रकृति (महद्ब्रह्म) उनकी माता है और मैं बीज देने वाला पिता हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि सभी प्राणियों की उत्पत्ति में प्रकृति माता के रूप में और वे स्वयं पिता के रूप में बीज प्रदान करते हैं। यह श्लोक सृष्टि के द्वैत स्वरूप (प्रकृति और पुरुष) को रेखांकित करता है, जो तीन गुणों के प्रभाव से प्राणियों को बांधता है।

श्लोक 5

सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ 5॥

अर्थ: “हे महाबाहो! सत्त्व, रज और तम – ये तीनों गुण प्रकृति से उत्पन्न होते हैं। ये अविनाशी आत्मा को शरीर में बांधते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि सत्त्व, रजस और तमस नामक तीन गुण, जो प्रकृति से उत्पन्न होते हैं, अविनाशी आत्मा को भौतिक देह में बांधते हैं। यह श्लोक गुणों की बंधनकारी प्रकृति को समझाता है, जो जीव को सांसारिक चक्र में फंसाए रखता है।

श्लोक 6

तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसक्रेन चानघ ॥6॥

अर्थ: “इनमें सत्त्व गुण, जो स्वभाव से शुद्ध और प्रकाशस्वरूप है, जो दोष रहित है। यह सुख और ज्ञान के साथ आसक्ति उत्पन्न कर जीव को बांधता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि सत्त्वगुण शुद्धता और ज्ञान का प्रकाश देता है, जिससे मन निरोग और शांत रहता है, लेकिन यह सुख और ज्ञान की आसक्ति से आत्मा को बांधता है। यह श्लोक सत्त्वगुण के सूक्ष्म बंधन को दर्शाता है, जो मुक्ति के मार्ग में भी बाधा बन सकता है।

श्लोक 7

रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम् ॥7॥

अर्थ: “हे कौन्तेय! रजोगुण को तू राग (आसक्ति) से उत्पन्न और तृष्णा तथा संलग्नता का जनक समझ। यह गुण जीव को कर्मों के प्रति आसक्ति के कारण बांधता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि रजोगुण इच्छा और आसक्ति का प्रतीक है, जो तृष्णा से उत्पन्न होता है और जीव को कर्मों में उलझाकर बांधता है। यह श्लोक रजस की गतिशील प्रकृति को दर्शाता है, जो व्यक्ति को सांसारिक कार्यों और इच्छाओं के चक्र में फंसाए रखता है, जिससे मुक्ति कठिन हो जाती है।

श्लोक 8

तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् ।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥8॥

अर्थ: “हे भारत! तमोगुण को तू अज्ञान से उत्पन्न और समस्त प्राणियों को मोहित करने वाला जान। यह प्रमाद (लापरवाही), आलस्य और निद्रा के द्वारा जीव को बांधता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि तमोगुण अज्ञान से उत्पन्न होता है और जीव को भ्रमित करता है, जिससे प्रमाद (लापरवाही), आलस्य और अत्यधिक नींद के कारण वह बंधन में पड़ता है। यह श्लोक तमस की नकारात्मक प्रकृति को उजागर करता है, जो आध्यात्मिक और व्यावहारिक प्रगति में बाधा डालता है।

श्लोक 9

सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥9॥

अर्थ: “हे भारत! सत्त्वगुण व्यक्ति को सुख में बाँधता है, रजोगुण उसे कर्मों में लगाता है, और तमोगुण ज्ञान को ढककर प्रमाद (मूढ़ता) में बाँधता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण तीनों गुणों के बंधनकारी प्रभाव को संक्षेप में बताते हैं: सत्त्व सुख की आसक्ति, रजस कर्म की आसक्ति, और तमस अज्ञान व लापरवाही में बांधता है। यह श्लोक स्पष्ट करता है कि सभी गुण, चाहे सकारात्मक (सत्त्व) हों या नकारात्मक (तमस), जीव को सांसारिक बंधन में रखते हैं।

श्लोक 10

रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत ।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ॥10॥

अर्थ: “हे भारत! कभी सत्त्वगुण रजस और तमस को दबाकर प्रबल होता है, कभी रजस सत्त्व और तमस को, और कभी तमस सत्त्व और रजस को दबाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि सत्त्व, रजस और तमस गुण परस्पर एक-दूसरे पर हावी होते रहते हैं, और समय-समय पर कोई एक गुण प्रमुख हो जाता है। यह श्लोक गुणों की गतिशील और चक्रीय प्रकृति को दर्शाता है, जो व्यक्ति के विचारों, व्यवहार और जीवन की परिस्थितियों को प्रभावित करता है, और आत्म-जागरूकता द्वारा इनके प्रभाव को समझना मुक्ति की ओर ले जाता है।

श्लोक 11

सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत ॥11॥

अर्थ: “जब इस देह में सभी इन्द्रियों के द्वारा प्रकाश (ज्ञान) उत्पन्न होता है, तब समझ लेना चाहिए कि सत्त्वगुण की वृद्धि हुई है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि जब मन और इंद्रियों में शुद्धता, ज्ञान और निर्मलता दिखाई देती है, तब सत्त्वगुण का प्रभुत्व होता है। यह श्लोक सत्त्वगुण के लक्षणों को रेखांकित करता है, जो मन को शांत और प्रबुद्ध बनाता है, लेकिन फिर भी सूक्ष्म बंधन पैदा करता है।

श्लोक 12

लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा ।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ ॥12॥

अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ! जब रजोगुण की वृद्धि होती है, तब लोभ, कर्मों की प्रवृत्ति, कार्यों की आरम्भता, असंयम और इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि रजोगुण के प्रबल होने पर व्यक्ति में लोभ, कर्म में अति सक्रियता, अशांति और सांसारिक इच्छाएँ बढ़ती हैं। यह श्लोक रजस की गतिशील और अस्थिर प्रकृति को दर्शाता है, जो व्यक्ति को सतत कर्म और भौतिक इच्छाओं में उलझाए रखता है, जिससे आध्यात्मिक शांति बाधित होती है।

श्लोक 13

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च ।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन ॥13॥

अर्थ: “हे कुरुनन्दन! तमोगुण की वृद्धि होने पर अंधकार (अज्ञान), निष्क्रियता, प्रमाद (लापरवाही) और मोह उत्पन्न होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि तमोगुण के प्रबल होने पर व्यक्ति अज्ञान, आलस्य, लापरवाही और भ्रम में डूब जाता है। यह श्लोक तमस की नकारात्मक और बाधक प्रकृति को उजागर करता है, जो मन को मंद और आध्यात्मिक प्रगति से दूर रखता है, जिससे आत्म-जागरूकता की आवश्यकता और बढ़ जाती है।

श्लोक 14

यदा सत्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देहभृत् ।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते ॥14॥

अर्थ: “जब कोई व्यक्ति सत्त्वगुण में स्थित होकर शरीर का त्याग करता है, तब वह निष्कलुष (शुद्ध) ज्ञानयुक्त श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि यदि मृत्यु के समय सत्त्वगुण प्रबल हो, तो जीव उच्च और शुद्ध लोकों (जैसे स्वर्ग) को प्राप्त करता है। यह श्लोक सत्त्वगुण के सकारात्मक प्रभाव को दर्शाता है, जो ज्ञान और शुद्धता के कारण व्यक्ति को उच्च गति प्रदान करता है, परंतु पूर्ण मुक्ति के लिए गुणातीत होना आवश्यक है।

श्लोक 15

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥15॥

अर्थ: “जो रजोगुण में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह कर्मों से आसक्त लोगों के बीच जन्म लेता है। और जो तमोगुण में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह मूढ़ (अज्ञानी) योनियों में जन्म लेता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि मृत्यु के समय रजोगुण प्रबल होने पर व्यक्ति कर्म और आसक्ति से भरे जीवन में जन्म लेता है, जबकि तमोगुण प्रबल होने पर वह निम्न योनियों में जन्म लेता है। यह श्लोक गुणों के प्रभाव को दर्शाता है, जो मृत्यु के बाद जीव की गति को निर्धारित करते हैं।

श्लोक 16

कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम् ।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम् ॥16॥

अर्थ: शुभ कर्म का फल सात्त्विक और निर्मल (शुद्ध) कहा गया है; रजोगुण से उत्पन्न कर्मों का फल दुःख होता है, और तमोगुण से उत्पन्न कर्मों का फल अज्ञान होता है।

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि सात्त्विक कर्म शुद्ध और सुखद फल देते हैं, रजस के कर्म दुख लाते हैं, और तमस के कर्म अज्ञान उत्पन्न करते हैं। यह श्लोक कर्म और गुणों के बीच संबंध को स्पष्ट करता है, जो यह दर्शाता है कि हमारे कर्मों का फल हमारे जीवन में गुणों के प्रभुत्व पर निर्भर करता है।

श्लोक 17

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥17॥

अर्थ: “सत्त्वगुण से ज्ञान उत्पन्न होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्न होता है, और तमोगुण से प्रमाद (लापरवाही), मोह तथा अज्ञान की उत्पत्ति होती है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि सत्त्वगुण ज्ञान को जन्म देता है, रजोगुण लोभ को, और तमोगुण प्रमाद, मोह और अज्ञान को। यह श्लोक प्रत्येक गुण के विशिष्ट परिणामों को रेखांकित करता है, जो यह दर्शाता है कि हमारे मन और व्यवहार पर गुणों का प्रभुत्व हमारे जीवन की दिशा निर्धारित करता है।

श्लोक 18

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः ।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः ॥18॥

अर्थ: “सत्त्वगुण में स्थित लोग ऊपर (उच्च लोकों की ओर) जाते हैं, रजोगुण वाले मध्य में रहते हैं, और तामसिक स्वभाव वाले लोग नीचे (निम्न योनियों में) जाते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि सत्त्वगुणी लोग उच्च लोकों को प्राप्त करते हैं, रजोगुणी लोग मानव लोक में रहते हैं, और तमोगुणी लोग निम्न लोकों में जाते हैं। यह श्लोक गुणों के आधार पर जीव की गति को दर्शाता है, जो आत्म-जागरूकता और सात्त्विक जीवन अपनाने का महत्व रेखांकित करता है।

श्लोक 19

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥19॥

अर्थ: “जब ज्ञानी पुरुष यह जान लेता है कि गुणों के अतिरिक्त कोई कर्ता नहीं है, और वह मुझ परमेश्वर को इन गुणों से परे जान लेता है, तब वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि गुण ही कर्मों का कारण हैं और वह गुणों से परे आत्मा को जान लेता है, तब वह परमात्मा के स्वरूप को प्राप्त करता है। यह श्लोक गुणातीत अवस्था और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को दर्शाता है।

श्लोक 20

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् ।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्रुते ॥20॥

अर्थ: “जब आत्मा (देह) इन तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) को पार कर जाती है, जो शरीर की उत्पत्ति का कारण हैं, तब वह जन्म, मृत्यु, जरा और दुःखों से मुक्त होकर अमृत पद (मोक्ष) को प्राप्त होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस) को पार करने वाला जीव जन्म-मृत्यु और दुखों से मुक्त होकर अमरत्व (मोक्ष) प्राप्त करता है। यह श्लोक गुणातीत अवस्था को मुक्ति का मार्ग बताता है, जो आत्म-जागरूकता और भक्ति से संभव है।

श्लोक 21

अर्जुन उवाच।
कैर्लिङ्गैस्त्रीनगुणानेतानतीतो भवति प्रभो ।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीनगुणानतिवर्तते ॥21॥

अर्थ: अर्जुन ने पूछा: “हे प्रभो! जो पुरुष इन तीनों गुणों को पार कर जाता है, उसकी पहचान क्या है? वह किस प्रकार आचरण करता है और इन गुणों को कैसे पार करता है?”

व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण से गुणातीत व्यक्ति के लक्षण, उनके आचरण और गुणों को पार करने की विधि के बारे में प्रश्न करते हैं। यह श्लोक अध्याय के अगले भाग का आधार तैयार करता है, जो गुणातीत अवस्था की व्यावहारिक और आध्यात्मिक समझ को और गहराई से प्रस्तुत करता है।

श्लोक 22

श्रीभगवानुवाच।
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव ।
न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥22॥

अर्थ: श्रीभगवान ने कहा: “हे पाण्डव! जब प्रकाश (सत्त्व), प्रवृत्ति (रज) और मोह (तम) प्रकट होते हैं, तो वह ज्ञानी न तो उनसे द्वेष करता है और न ही उनके लुप्त हो जाने पर उनकी इच्छा करता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि गुणातीत व्यक्ति सत्त्व, रजस और तमस के प्रभावों के प्रति उदासीन रहता है, न तो उनसे घृणा करता है और न ही उनकी अनुपस्थिति की इच्छा रखता है। यह श्लोक गुणातीत अवस्था की समता और तटस्थता को दर्शाता है, जो आत्म-नियंत्रण और आध्यात्मिक जागरूकता से प्राप्त होती है।

श्लोक 23

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येवं योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥23॥

अर्थ: “जो व्यक्ति तटस्थ भाव से रहता है, गुणों द्वारा विचलित नहीं होता, और यह जानता है कि “गुण ही गुणों में कार्य कर रहे हैं”, वह स्थिर रहता है और विचलित नहीं होता।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि गुणातीत व्यक्ति गुणों के प्रभाव से अविचलित रहता है, यह समझकर कि केवल गुण ही कार्य करते हैं, और वह उदासीन और स्थिर रहता है। यह श्लोक गुणों से परे आत्मा की स्थिरता और आत्म-जागरूकता को रेखांकित करता है, जो मुक्ति का आधार है।

श्लोक 24

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥24॥

अर्थ: “जो ज्ञानी सुख-दुःख में समान रहता है, आत्मनियंत्रित है, मिट्टी, पत्थर और सोना – इन सबको समान मानता है, प्रिय और अप्रिय में समभाव रखता है, और निंदा-स्तुति में समान रहता है – वह धीर पुरुष है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण वर्णन करते हैं कि गुणातीत व्यक्ति सुख-दुख, मिट्टी-सोना, प्रिय-अप्रिय और निंदा-स्तुति में समान भाव रखता है। यह श्लोक गुणातीत अवस्था के समदृष्टि और धैर्यपूर्ण स्वभाव को दर्शाता है, जो मन की शांति और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।

श्लोक 25

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरत्यिागी गुणातीतः स उच्यते ॥25॥

अर्थ: “जो मान-अपमान में समान है, मित्र और शत्रु दोनों के प्रति एक सा व्यवहार रखता है, तथा सभी आरंभों (कर्मों) का त्याग कर चुका है – वही व्यक्ति गुणातीत कहा जाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि गुणातीत व्यक्ति सम्मान-अपमान और मित्र-शत्रु के प्रति तटस्थ रहता है, और कर्मों की आसक्ति छोड़ देता है। यह श्लोक गुणातीत अवस्था की निष्कामता और समदृष्टि को उजागर करता है, जो व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त करता है।

श्लोक 26

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥26॥

अर्थ: “जो व्यक्ति अनन्य भक्ति-योग द्वारा मेरी सेवा करता है, वह इन तीनों गुणों को पार करके ब्रह्मस्वरूप (ईश्वरतुल्य स्थिति) को प्राप्त होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि अटल भक्ति योग के माध्यम से उनकी सेवा करने वाला व्यक्ति तीनों गुणों को पार कर ब्रह्म की प्राप्ति के योग्य हो जाता है। यह श्लोक भक्ति को गुणातीत अवस्था और मुक्ति का सर्वोत्तम मार्ग बताता है।

श्लोक 27

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥27॥

अर्थ: “क्योंकि मैं ही उस अविनाशी, अमृत, शाश्वत धर्म और परम सुख स्वरूप ब्रह्म का आधार हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे स्वयं ब्रह्म, अमरत्व, शाश्वत धर्म और परम सुख के आधार हैं। यह श्लोक परमात्मा को अंतिम आश्रय बताता है, जो भक्ति के माध्यम से गुणातीत अवस्था प्राप्त करने वालों को मुक्ति और शाश्वत सुख प्रदान करता है।


श्रीमद् भागवत गीता के चौदहवाँ अध्याय सारांश

श्रीमद्भगवद्गीता का 14वाँ अध्याय, “गुणत्रय विभाग योग”, प्रकृति के तीन गुणों—सत्त्व, रजस, और तमस—के स्वरूप, उनके प्रभाव, और उनसे मुक्ति के मार्ग पर केंद्रित है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि ये गुण प्रकृति से उत्पन्न होकर जीव को देह में बांधते हैं। सत्त्वगुण ज्ञान और सुख देता है, रजोगुण कर्म और आसक्ति में बांधता है, और तमोगुण अज्ञान और आलस्य को बढ़ाता है।

ये गुण समय-समय पर एक-दूसरे पर हावी होते हैं और जीव के विचार, व्यवहार, और मृत्यु के बाद की गति को निर्धारित करते हैं। सत्त्वगुणी उच्च लोकों को, रजोगुणी मध्य लोकों को, और तमोगुणी निम्न योनियों को प्राप्त करते हैं।

श्रीकृष्ण यह भी स्पष्ट करते हैं कि गुणातीत अवस्था—जो सुख-दुख, सम्मान-अपमान, और मित्र-शत्रु में समदृष्टि रखती है—ही सच्ची मुक्ति की ओर ले जाती है। इस अवस्था को अडिग भक्ति योग और आत्म-जागरूकता के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।

अध्याय का अंत इस संदेश के साथ होता है कि श्रीकृष्ण स्वयं ब्रह्म, शाश्वत धर्म, और परम सुख के आधार हैं, और भक्ति द्वारा गुणों को लांघकर जीव उन तक पहुँच सकता है। यह अध्याय आत्म-नियंत्रण, भक्ति, और गुणों से परे जाकर मोक्ष प्राप्त करने की प्रेरणा देता है।

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