श्रीमद्भागवत गीता का दूसरा अध्याय “सांख्य योग” कहलाता है। यह गीता का आधारभूत अध्याय माना जाता है। “सांख्य” शब्द का अर्थ है ज्ञान या विवेक, और यहाँ यह आत्मा की प्रकृति और जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझने की ओर संकेत करता है।
कुरुक्षेत्र के मैदान में जब अर्जुन अपने सामने गुरुओं, भाइयों और प्रियजनों को युद्ध के लिए तैयार देखता है, तो उसका मन संदेह और शोक से भर जाता है। वह सोचता है कि अपने ही लोगों को मारकर जीत हासिल करने का क्या लाभ? उसका धनुष “गाण्डीव” उसके हाथ से फिसल जाता है, और वह श्रीकृष्ण से कहता है, “मैं युद्ध नहीं करूँगा।”
यह स्थिति केवल एक योद्धा की कमजोरी नहीं, बल्कि मानव मन की स्वाभाविक दुविधा को दर्शाती है। हम सभी जीवन में कभी न कभी ऐसे मोड़ पर आते हैं, जहाँ कर्तव्य और भावनाओं के बीच संघर्ष होता है। अर्जुन श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन माँगता है, और यहीं से सांख्य योग की शुरुआत होती है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2: सांख्य योग (Bhagwat Geeta Chapter 2)
श्रीमद् भागवत गीता का दूसरा अध्याय, “सांख्य योग” है। यह अध्याय 72 श्लोकों में विभाजित है। सांख्य ज्ञान और समझ के माध्यम से वास्तविकता को समझने के विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण को संदर्भित करता है। योग एक मार्ग या अनुशासन का प्रतीक है। भगवद गीता के संदर्भ में, सांख्य योग ज्ञान, आत्म-साक्षात्कार और वास्तविकता की प्रकृति को समझने के मार्ग को संदर्भित करता है। सांख्य योग में, कृष्ण अर्जुन को गहन ज्ञान प्रदान करते हैं, तथा उसे उसकी नैतिक और अस्तित्वगत दुविधाओं से बाहर निकालने में मार्गदर्शन करते हैं। इन श्लोकों के माध्यम से हम इस अध्याय की गहराई से समझेंगे।
श्लोक 1
सञ्जय उवाच।
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥1॥
अर्थ: संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं – “उस समय अर्जुन को करुणा से व्याप्त, आँसुओं से भरी और व्याकुल आँखों के साथ शोक में डूबे हुए देखकर, भगवान श्रीकृष्ण (मधुसूदन) ने यह वचन कहा।”
व्याख्या: यह श्लोक गीता के दूसरे अध्याय की शुरुआत है और संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र की स्थिति का वर्णन करता है। यहाँ संजय अर्जुन की मानसिक और भावनात्मक अवस्था का चित्रण करते हैं। पहले अध्याय में अर्जुन अपने कर्तव्य और प्रियजनों के प्रति लगाव के बीच फँसकर “विषाद योग” में डूब गया था। वह युद्ध करने से इनकार करता है और अपने धनुष को नीचे रख देता है। अब दूसरे अध्याय में, यह श्लोक उस क्षण को दर्शाता है जब श्रीकृष्ण उसकी इस स्थिति को देखकर उसे उपदेश देना शुरू करते हैं।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच।
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वय॑मकीर्तिकरमर्जुन॥2॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण बोले – “हे अर्जुन! यह मोह (कश्मल) तुझे इस संकट के समय में कैसे आ गया? यह न तो आर्यों के योग्य है, न स्वर्ग प्राप्ति का कारण है और न ही यश बढ़ाने वाला है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को जागृत करने का प्रयास कर रहे हैं। वे पूछते हैं कि तुम्हें यह दुर्बलता और मोह इस युद्धभूमि में कैसे आ गया? यह आचरण योद्धा और आर्य संस्कृति के विरुद्ध है। इस तरह की सोच न तो स्वर्ग प्राप्ति में सहायक है और न ही तुम्हें यश दिलाएगी बल्कि यह तुम्हारी कीर्ति को नष्ट कर देगी। यह श्लोक श्रीकृष्ण के मार्गदर्शन की शुरुआत है, जहाँ वे अर्जुन को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि उनकी यह स्थिति उचित नहीं है।
श्लोक 3
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥3॥
अर्थ: “भगवान श्रीकृष्ण बोले – “हे अर्जुन! इस कायरता को मत अपनाओ, यह तुम्हारे लिए शोभनीय नहीं है। हे परंतप (शत्रुओं का दमन करने वाले), इस तुच्छ हृदय की दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ!”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को उसकी कमजोरी से बाहर निकालने के लिए कठोर शब्दों का प्रयोग करते हैं। “क्लैब्यं” (कायरता) एक योद्धा के लिए अपमानजनक शब्द है, और श्रीकृष्ण इसे जानबूझकर कहते हैं ताकि अर्जुन अपने आत्म-सम्मान को जागृत करे। “पार्थ” (पृथा का पुत्र) और “परन्तप” (शत्रुओं को ताप देने वाला) जैसे संबोधन अर्जुन की वीरता और मूल्य को याद दिलाते हैं। वे कहते हैं कि यह हृदय की क्षुद्र (तुच्छ) कमजोरी है, जो अस्थायी भावनाओं से उत्पन्न हुई है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि संकट में भी हमें अपने कर्तव्य के प्रति दृढ़ रहना चाहिए।
श्लोक 4
अर्जुन उवाच।
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजाह्नवरिसूदन ॥4॥
अर्थ: अर्जुन बोले – “हे मधुसूदन! मैं युद्धभूमि में भीष्म पितामह और आचार्य द्रोण पर बाण कैसे चलाऊँ? वे तो पूजनीय हैं, हे अरिसूदन (शत्रुओं के संहारक), मैं इन पर अस्त्र-शस्त्र कैसे उठाऊँ?”
व्याख्या: अर्जुन यहाँ अपनी दुविधा व्यक्त करता है। वह श्रीकृष्ण को “मधुसूदन” और “अरिसूदन” कहकर उनके दैवीय स्वरूप को स्वीकार करता है, लेकिन फिर भी अपने संदेह को रखता है। भीष्म उसके दादा और द्रोण उसके गुरु हैं, जिनका वह सम्मान करता है। यह श्लोक मानव मन की भावनात्मक जटिलता को दर्शाता है- कर्तव्य और प्रेम के बीच का संघर्ष। यह हमें दिखाता है कि अर्जुन अभी भी भावनाओं में उलझा हुआ है और उसे मार्गदर्शन की आवश्यकता है।
श्लोक 5
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥5॥
अर्थ: अर्जुन बोले – “पूज्यनीय गुरुओं को मारकर मैं इस संसार में कैसे रह सकता हूँ? भिक्षा मांगकर जीवनयापन करना उनसे युद्ध करने से कहीं बेहतर है। यदि मैं इन्हें मारकर राजसुख भोगूं, तो वह सुख भी उनके रक्त से सना होगा।”
व्याख्या: अर्जुन यहाँ अतिशयोक्ति का प्रयोग करता है। वह कहता है कि गुरुओं को मारने से बेहतर है कि वह भिक्षा माँगे। वह यह भी कहता है कि यदि वह युद्ध जीतता है, तो उसकी जीत और सुख उसके प्रियजनों के खून से रंगे होंगे, जो उसे अस्वीकार्य है। यह श्लोक अर्जुन के नैतिक संकट को और गहरा करता है, लेकिन साथ ही उसकी संवेदनशीलता को भी उजागर करता है। यह जीवन में उन क्षणों का प्रतीक है जब सही और गलत का निर्णय लेना कठिन हो जाता है।
श्लोक 6
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥6॥
अर्थ: अर्जुन बोला – “मुझे यह भी नहीं पता कि हमारे लिए क्या बेहतर है- कि हम जीतें या वे हमें हरा दें। जिन्हें मारकर हम जीना नहीं चाहते, वे धृतराष्ट्र के पुत्र मेरे सामने खड़े हैं।”
व्याख्या: अर्जुन की अनिश्चितता यहाँ चरम पर है। वह कहता है कि वह नहीं जानता कि जीतना बेहतर है या हारना, क्योंकि दोनों ही स्थितियों में उसे दुख होगा। यह श्लोक उसके मन के भ्रम और निराशा को दर्शाता है। वह कौरवों को मारना नहीं चाहता, क्योंकि वे उसके रिश्तेदार हैं, लेकिन युद्ध से पीछे हटना भी उसके लिए असंभव है। यह मानव जीवन में दुविधा का एक उदाहरण है।
श्लोक 7
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यानिश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥7॥
अर्थ: “मैं कायरता (कर्पण्य दोष) से ग्रसित हो गया हूँ और मेरा स्वभाव दुर्बल हो गया है। मैं धर्म के संबंध में भ्रमित हूँ और आपसे पूछता हूँ – मेरे लिए जो निश्चित रूप से श्रेयस्कर (कल्याणकारी) हो, वह मुझे बताइए। मैं आपका शिष्य हूँ और आपकी शरण में आया हूँ, कृपया मेरा मार्गदर्शन कीजिए।”
व्याख्या: यह श्लोक अर्जुन के आत्म-समर्पण का प्रतीक है। वह अपनी कमजोरी स्वीकार करता है और श्रीकृष्ण को गुरु मानकर उनसे मार्गदर्शन माँगता है। “कार्पण्यदोष” (कायरता) और “धर्मसम्मूढचेताः” (धर्म के प्रति भ्रम) उसके मन की स्थिति को स्पष्ट करते हैं। यह श्लोक गीता के दार्शनिक संवाद का आधार बनता है, क्योंकि यहाँ से अर्जुन शिष्य और श्रीकृष्ण गुरु की भूमिका में आते हैं।
श्लोक 8
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्य-च्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥8॥
अर्थ: “मैं इस शोक को दूर करने वाला कोई उपाय नहीं देख रहा, जो मेरे समस्त इंद्रियों को सुखा रहा है। भले ही मुझे पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य मिल जाए या देवताओं का भी अधिपत्य प्राप्त हो जाए, फिर भी मेरा यह शोक दूर नहीं होगा।”
व्याख्या: अर्जुन कहता है कि उसका शोक इतना गहरा है कि उसे कोई सांसारिक उपलब्धि (राज्य या स्वर्ग) भी राहत नहीं दे सकती। यह श्लोक उसके भावनात्मक संकट की गहराई को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि जब मन अशांत होता है, तो बाहरी सुख व्यर्थ लगते हैं।
श्लोक 9
सञ्जय उवाच।
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥9॥
अर्थ: संजय बोले: “इस प्रकार हृषीकेश (श्रीकृष्ण) से कहकर, गुडाकेश (अर्जुन), जो शत्रुओं को संताप देने वाला है, गोविंद से “मैं युद्ध नहीं करूँगा” कहकर चुप हो गया।”
अर्थ: यहाँ संजय अर्जुन के संवाद का समापन बताता है। अर्जुन अपनी बात रखकर श्रीकृष्ण को “हृषीकेश” (इंद्रियों का स्वामी) और “गोविंद” (गायों का रक्षक, परम रक्षक) कहता है, और फिर चुप हो जाता है। यह श्लोक अर्जुन की हार और श्रीकृष्ण के उपदेश की प्रतीक्षा को दर्शाता है।
श्लोक 10
तमुवाच हृषीकेशं प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः ॥10॥
अर्थ: संजय बोले: “हे भारत! दोनों सेनाओं के बीच शोक में डूबे अर्जुन से हृषीकेश (श्रीकृष्ण) हल्के से मुस्कुराते हुए ये वचन बोले।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण की मुस्कान यहाँ उनके आत्मविश्वास और दैवीय शांति को दर्शाती है। वे अर्जुन के शोक को गंभीरता से नहीं लेते, क्योंकि वे जानते हैं कि यह अज्ञान से उत्पन्न है। यह श्लोक उपदेश की शुरुआत का संकेत देता है।
श्लोक 11
श्री भगवानुवाच।
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासुंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥11॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण बोले – “तुम उन लोगों के लिए शोक कर रहे हो, जो शोक के योग्य नहीं हैं, और साथ ही तुम पंडितों (ज्ञानी पुरुषों) की तरह बात कर रहे हो। लेकिन बुद्धिमान व्यक्ति ना जीवितों के लिए शोक करते हैं, ना मृतकों के लिए।”
व्याख्या: यहाँ से श्रीकृष्ण का सांख्य योग शुरू होता है। वे अर्जुन को आत्मा की अमरता का ज्ञान देना शुरू करते हैं। यह श्लोक कहता है कि शोक अज्ञान से उत्पन्न होता है, और जो आत्मा के स्वरूप को जानते हैं, वे शोक नहीं करते।
श्लोक 12
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥12॥
अर्थ: “कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं (श्रीकृष्ण) नहीं था, तुम (अर्जुन) नहीं थे, या ये सभी राजा नहीं थे। और आगे भी हम सभी कभी नहीं मिटेंगे, बल्कि सदा रहेंगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आत्मा की शाश्वतता का सिद्धांत समझाते हैं। वे कहते हैं कि आत्मा का न जन्म होता है, न मृत्यु। यह श्लोक गीता के दर्शन का मूल है, जो हमें सिखाता है कि हमारा असली स्वरूप यह शरीर नहीं, बल्कि अविनाशी आत्मा है।
श्लोक 13
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति ॥13॥
अर्थ: “जिस प्रकार इस शरीर में आत्मा बाल्यावस्था से युवावस्था और फिर वृद्धावस्था को प्राप्त होती है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद आत्मा नए शरीर को प्राप्त करती है। ज्ञानी व्यक्ति (धीर पुरुष) इस परिवर्तन से विचलित नहीं होते।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ आत्मा की निरंतरता और शरीर की अस्थायी प्रकृति को समझाते हैं। जैसे एक ही जीवन में शरीर बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक बदलता है, वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा नया शरीर धारण करती है। “धीर” (विवेकशील व्यक्ति) इसे स्वाभाविक प्रक्रिया मानकर शोक या भ्रम में नहीं पड़ता है। यह श्लोक हमें जीवन के चक्र को स्वीकार करने और मृत्यु से न डरने की शिक्षा देता है।
श्लोक 14
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥14॥
अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र (अर्जुन)! इंद्रियों और बाहरी विषयों के संपर्क से ही सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख उत्पन्न होते हैं। ये सब आते-जाते रहते हैं और स्थायी नहीं होते, इसलिए हे भारत! इनका धैर्यपूर्वक सहन करो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को सांसारिक अनुभवों की अस्थायी प्रकृति समझाते हैं। सुख और दुख इंद्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं और ये स्थायी नहीं हैं। “तितिक्षस्व” (सहन करो) का अर्थ है कि हमें इन परिस्थितियों से विचलित नहीं होना चाहिए। यह श्लोक जीवन में संतुलन बनाए रखने और भावनाओं के उतार-चढ़ाव से प्रभावित न होने की सीख देता है।
श्लोक 15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥15॥
अर्थ: “हे अर्जुन! जो व्यक्ति सुख-दुःख से विचलित नहीं होता, जो धैर्यवान (धीर) रहता है, वही मोक्ष (अमृतत्व) को प्राप्त करने के योग्य होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ “स्थिरप्रज्ञ” व्यक्ति के लक्षण बताते हैं। जो सुख-दुख में समभाव रखता है, वह मोक्ष या आत्मिक शांति के लिए उपयुक्त बनता है। “अमृतत्व” यहाँ शारीरिक अमरता नहीं, बल्कि जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति का प्रतीक है। यह हमें मानसिक संतुलन और धैर्य की महत्ता सिखाता है।
श्लोक 16
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥16॥
अर्थ: “असत्य (नाशवान) का कभी अस्तित्व नहीं होता, और सत्य (शाश्वत) का कभी अभाव नहीं होता। इस सत्य को तत्वदर्शी ज्ञानीजन समझते हैं।”
व्याख्या: यह श्लोक सांख्य दर्शन का मूल सिद्धांत है। “सत्” (आत्मा) शाश्वत है, जबकि “असत्” (शरीर और संसार) नाशवान है। तत्त्वदर्शी (ज्ञानी) इस अंतर को समझते हैं। यह हमें सिखाता है कि हमें अनित्य चीजों में आसक्ति छोड़कर शाश्वत सत्य पर ध्यान देना चाहिए।
श्लोक 17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥17॥
अर्थ: “जिस तत्व (आत्मा) से संपूर्ण सृष्टि व्याप्त है, वह अविनाशी (अमर) है। उस नाशरहित आत्मा का विनाश कोई नहीं कर सकता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ आत्मा को सर्वव्यापी और अविनाशी बताते हैं। यह आत्मा ही वह तत्त्व है जो सभी में मौजूद है और जिसका कोई नाश नहीं कर सकता। यह श्लोक हमें आत्मा की दिव्यता और उसकी सर्वोच्चता को समझने के लिए प्रेरित करता है।
श्लोक 18
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥18॥
अर्थ: “हे भारत (अर्जुन)! ये शरीर नाशवान हैं, लेकिन शरीर में स्थित आत्मा नित्य (शाश्वत), अविनाशी और असीमित (अनिर्वचनीय) है। इसलिए, तुम युद्ध करो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्तव्य की ओर लौटाते हैं। वे कहते हैं कि शरीर का अंत होगा, लेकिन आत्मा अक्षय है। अतः मृत्यु के भय से युद्ध छोड़ना उचित नहीं। यह श्लोक हमें जीवन के अस्थायी और स्थायी पहलुओं को अलग करने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 19
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥19॥
अर्थ: “जो व्यक्ति यह सोचता है कि वह आत्मा को मार सकता है या मारा जा सकता है, वह वास्तव में अज्ञानता में है। आत्मा न तो किसी को मारती है, न ही इसे कोई मार सकता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आत्मा की अहिंसक और अविनाशी प्रकृति को स्पष्ट करते हैं। आत्मा न हत्यारा है, न हत्या का शिकार। यह अज्ञान है जो हमें मृत्यु से डराता है। यह श्लोक हमें मृत्यु के भ्रम से मुक्त करता है।
श्लोक 20
न जायते म्रियते वा कदाचिन्ना यं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥20॥
अर्थ: “यह आत्मा न तो कभी जन्म लेती है, न ही इसकी कभी मृत्यु होती है। यह कभी अस्तित्व में आई हो और फिर नष्ट हो जाए, ऐसा भी नहीं है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और सनातन है। शरीर के नष्ट होने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती है।”
व्याख्या: यह श्लोक आत्मा के गुणों का विस्तार करता है- यह जन्म-मृत्यु से परे, शाश्वत और प्राचीन है। यह हमें सिखाता है कि हमारा असली स्वरूप यह नश्वर शरीर नहीं, बल्कि अमर आत्मा है।
श्लोक 21
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥21॥
अर्थ: “हे पार्थ (अर्जुन)! जो व्यक्ति यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, नित्य, अजन्मा और अचल (न बदलने वाली) है, वह न तो किसी को मार सकता है और न ही किसी के मारे जाने की कल्पना कर सकता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो आत्मा की सच्चाई जानता है, वह हिंसा या मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। यह श्लोक अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करता है, यह समझाते हुए कि मृत्यु केवल शरीर की है, आत्मा की नहीं।
श्लोक 22
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥22॥
अर्थ: “जिस प्रकार एक मनुष्य पुराने कपड़ों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने और जर्जर शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण कर लेती है।”
व्याख्या: यह श्लोक एक सरल उपमा के माध्यम से आत्मा के पुनर्जन्म को समझाता है। जैसे कपड़े बदलना स्वाभाविक है, वैसे ही शरीर बदलना आत्मा के लिए सामान्य है। यह हमें मृत्यु को स्वीकार करने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 23
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥23॥
अर्थ: “इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, इसे अग्नि जला नहीं सकती, इसे जल गीला नहीं कर सकता, और इसे वायु सुखा नहीं सकती।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आत्मा की अजेयता को रेखांकित करते हैं। यह श्लोक आत्मा की भौतिक तत्वों से परे होने वाली प्रकृति को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि हमारा असली स्वरूप अडिग और अविनाशी है।
श्लोक 24
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥24॥
अर्थ: “यह आत्मा न काटी जा सकती है, न जलाई जा सकती है, न गीली की जा सकती है, और न सुखाई जा सकती है। यह सदैव नित्य, सर्वव्यापक, अडिग, अचल और सनातन है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण पिछले श्लोक के विचार को आगे बढ़ाते हुए आत्मा के गुणों का और विस्तार करते हैं। यह अजेय, सर्वत्र मौजूद, स्थिर और शाश्वत है। “सनातन” शब्द आत्मा की प्राचीनता और अनादि प्रकृति को दर्शाता है। यह श्लोक हमें आत्मा की दिव्य और अभेद्य प्रकृति पर विश्वास करने की प्रेरणा देता है, जिससे मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
श्लोक 25
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥25॥
अर्थ: “यह आत्मा अव्यक्त (इंद्रियों से परे), अचिंत्य (मानव बुद्धि से परे) और अविकार (जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता) मानी गई है। इसलिए, इसे इस प्रकार जानकर तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आत्मा के सूक्ष्म स्वरूप को बताते हैं। यह इंद्रियों से परे, मन से अकल्पनीय और कभी बदलता नहीं। यह श्लोक अर्जुन को शोक छोड़ने के लिए कहता है, क्योंकि आत्मा का नाश नहीं होता। यह हमें सिखाता है कि जो समझ से परे है, उसके लिए व्यर्थ चिंता न करें।
श्लोक 26
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥26॥
अर्थ: “हे महाबाहु (शक्तिशाली अर्जुन)! यदि तुम यह मानते हो कि आत्मा बार-बार जन्म लेती है और बार-बार मरती है, तब भी तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। यदि अर्जुन आत्मा को नित्य न मानकर जन्म-मृत्यु के चक्र में विश्वास करता है, तब भी शोक अनुचित है, क्योंकि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह श्लोक हमें हर स्थिति में शोक से ऊपर उठने की सीख देता है।
श्लोक 27
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्बुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥27॥
अर्थ: “जो जन्म ले चुका है उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मर चुका है उसका पुनर्जन्म भी निश्चित है। इसलिए, जो बदला नहीं जा सकता, उस पर शोक करना उचित नहीं है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण जीवन के चक्र की अनिवार्यता बताते हैं। जन्म और मृत्यु प्रकृति के नियम हैं, जिन्हें कोई बदल नहीं सकता। यह श्लोक अर्जुन को युद्ध के लिए तैयार करता है, यह समझाते हुए कि मृत्यु को रोकना असंभव है। यह हमें जीवन की स्वाभाविक प्रक्रियाओं को स्वीकार करने की शिक्षा देता है।
श्लोक 28
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥28॥
अर्थ: “हे भारत (अर्जुन)! सभी प्राणियों की उत्पत्ति अव्यक्त (अदृश्य) से होती है, फिर वे मध्य में व्यक्त (दृश्यमान) होते हैं, और अंत में फिर से अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं। तो फिर शोक करने का क्या कारण है?”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ प्राणियों के जीवन चक्र को समझाते हैं। जन्म से पहले और मृत्यु के बाद प्राणी अदृश्य रहते हैं, केवल जीवन के मध्य में ही वे दिखाई देते हैं। यह श्लोक शोक की व्यर्थता को दर्शाता है, क्योंकि यह एक प्राकृतिक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन मात्र है।
श्लोक 29
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥29॥
अर्थ: “कोई इसे आश्चर्य की तरह देखता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह बताता है, कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, और कोई इसे सुनकर भी समझ नहीं पाता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आत्मा के रहस्यमयी स्वरूप को बताते हैं। यह इतना गहन है कि लोग इसे आश्चर्य मानते हैं, लेकिन इसे पूर्ण रूप से समझना दुर्लभ है। यह श्लोक आत्मा की जटिलता और उसकी समझ के लिए गहन चिंतन की आवश्यकता को दर्शाता है।
श्लोक 30
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत ।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥30॥
अर्थ: “हे भारत (अर्जुन)! यह आत्मा सभी शरीरों में सदा के लिए अवध्य (अविनाशी) है। इसलिए, तुम किसी भी प्राणी के लिए शोक करने के योग्य नहीं हो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आत्मा की अविनाशिता पर जोर देते हैं और अर्जुन को शोक त्यागने के लिए कहते हैं। यह श्लोक पिछले विचारों का निष्कर्ष है और अर्जुन को युद्ध के लिए मानसिक रूप से तैयार करता है। यह हमें सिखाता है कि शोक का कारण अज्ञान है।
श्लोक 31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥31॥
अर्थ: “अपने स्वधर्म (कर्तव्य) को देखकर भी तुम्हें विचलित नहीं होना चाहिए। क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर कोई श्रेष्ठ कर्तव्य नहीं होता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अब आत्मा के ज्ञान से आगे बढ़कर अर्जुन के क्षत्रिय धर्म की बात करते हैं। वे कहते हैं कि युद्ध उसका कर्तव्य है, और इसमें संकोच नहीं करना चाहिए। यह श्लोक हमें अपने उत्तरदायित्व को निभाने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 32
यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥32॥
अर्थ: “हे पार्थ (अर्जुन)! यह युद्ध स्वयं तुम्हारे सामने आया है, जो स्वर्ग के द्वार को खोलने वाला है। ऐसे धर्मयुक्त युद्ध को केवल सौभाग्यशाली क्षत्रिय ही प्राप्त करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण युद्ध को एक अवसर के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह धर्मयुद्ध स्वर्ग (मोक्ष या सम्मान) का मार्ग है। यह श्लोक अर्जुन को प्रोत्साहित करता है कि वह इस संधी को न छोड़े। यह हमें जीवन में चुनौतियों को अवसर के रूप में देखने की सीख देता है।
श्लोक 33
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥33॥
अर्थ: “यदि तुम इस धर्मयुद्ध को नहीं करोगे, तो अपने स्वधर्म (कर्तव्य) और कीर्ति को खो दोगे, और इससे पाप को प्राप्त करोगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि युद्ध से पीछे हटना अर्जुन के कर्तव्य और सम्मान को नष्ट करेगा, साथ ही उसे पाप लगेगा। यह श्लोक कर्तव्य से विमुख होने के परिणामों को दर्शाता है और हमें अपने दायित्वों से न भागने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 34
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥34॥
अर्थ: “लोग तुम्हारी अविनाशी अपकीर्ति (बदनामी) की चर्चा करेंगे, और सम्मानित व्यक्ति के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि अर्जुन युद्ध से भागेगा, तो लोग उसे कायर कहेंगे, और यह अपयश उसकी मृत्यु से भी बदतर होगा। यह श्लोक सामाजिक सम्मान और आत्म-सम्मान के महत्व को रेखांकित करता है। यह हमें सिखाता है कि कायरता से बचना चाहिए।
श्लोक 35
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥35॥
अर्थ: “महायोद्धा (महारथी) लोग सोचेंगे कि तुम भय के कारण युद्ध से पीछे हट गए हो, और जिन लोगों ने तुम्हारा सम्मान किया था, वे तुम्हें तुच्छ समझने लगेंगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को उसकी प्रतिष्ठा की याद दिलाते हैं। वे कहते हैं कि यदि वह युद्ध से भागेगा, तो अन्य योद्धा उसे कायर मानेंगे, और उसका सम्मान नष्ट हो जाएगा। यह श्लोक सामाजिक दृष्टिकोण और आत्म-सम्मान के महत्व को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि अपने कर्तव्य से विमुख होने से सम्मान और विश्वास खो जाता है।
श्लोक 36
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्य ततो दुःखतरं नु किम् ॥36॥
अर्थ: “तुम्हारे शत्रु (दुश्मन) बहुत से अपशब्द कहेंगे और तुम्हारी निंदा करेंगे। वे तुम्हारी शक्ति का उपहास उड़ाएंगे। इससे अधिक दुखदायी क्या हो सकता है?”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन के शत्रु उसकी कमजोरी का मजाक उड़ाएँगे और उसकी वीरता पर सवाल उठाएँगे। यह उसके लिए असहनीय होगा। यह श्लोक हमें प्रेरित करता है कि हमें ऐसी स्थिति से बचना चाहिए जहाँ हमारी क्षमता पर संदेह हो। यह आत्मविश्वास बनाए रखने की सीख देता है।
श्लोक 37
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥37॥
अर्थ: “यदि तुम युद्ध में मारे गए, तो स्वर्ग प्राप्त करोगे, और यदि तुम विजयी हुए, तो पृथ्वी पर राज्य भोगोगे। इसलिए, हे कौन्तेय (अर्जुन)! युद्ध के लिए दृढ़ संकल्प करके खड़े हो जाओ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध के दो संभावित परिणाम बताते हैं- दोनों ही लाभकारी हैं। मृत्यु होने पर स्वर्ग और विजय होने पर राज्य मिलेगा। यह श्लोक उसे संकोच छोड़कर कर्तव्य निभाने के लिए प्रेरित करता है। यह हमें सिखाता है कि सही कार्य में परिणाम की चिंता नहीं करनी चाहिए।
श्लोक 38
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥38॥
अर्थ: “सुख-दुःख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान समझकर युद्ध करो। ऐसा करने से तुम पाप के भागी नहीं बनोगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ समता (संतुलन) का सिद्धांत सिखाते हैं। युद्ध को निष्काम भाव से करना चाहिए, बिना परिणाम की आसक्ति के। यह कर्मयोग का प्रारंभिक रूप है। यह श्लोक हमें जीवन में संतुलन और निस्वार्थ कर्म की शिक्षा देता है।
श्लोक 39
एषा तेऽभिहिता साङ्ये बुद्धिोंगे त्विमां शृणु।
बुद्ध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥39॥
अर्थ: “हे पार्थ (अर्जुन)! अब तक मैंने तुम्हें सांख्य योग की बुद्धि से उपदेश दिया। अब इसे कर्मयोग की दृष्टि से सुनो। इस बुद्धि से युक्त होकर तुम कर्म के बंधन से मुक्त हो जाओगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ सांख्य योग (आत्मा का ज्ञान) से कर्मयोग की ओर बढ़ते हैं। वे कहते हैं कि इस योग से अर्जुन कर्म के फल के बंधन से मुक्त होगा। यह श्लोक गीता के दो मुख्य दर्शनों- ज्ञान और कर्म- के संयोजन को दर्शाता है। यह हमें निष्काम कर्म की ओर प्रेरित करता है।
श्लोक 40
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥40॥
अर्थ: “इस कर्मयोग में न तो कोई प्रयास व्यर्थ जाता है और न ही कोई हानि होती है। इस धर्म का थोड़ा-सा भी पालन मनुष्य को महान भय (अर्थात् जन्म-मृत्यु के चक्र) से बचा सकता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कर्मयोग की महिमा बताते हैं। इसमें असफलता का डर नहीं, और थोड़ा-सा प्रयास भी लाभ देता है। यह श्लोक हमें सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है, यह विश्वास दिलाते हुए कि छोटे कदम भी हमें संकट से बचा सकते हैं।
श्लोक 41
व्यवसायत्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥41॥
अर्थ: “हे कुरुनन्दन (अर्जुन)! इस योग में दृढ़ संकल्प वाली बुद्धि एक ही होती है, लेकिन संकल्पहीन लोगों की बुद्धि अनेक शाखाओं में विभक्त और अनंत होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मयोग में मन एकाग्र रहता है, जबकि संदेह करने वालों का मन भटकता है। यह श्लोक एकाग्रता और दृढ़ संकल्प के महत्व को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में सफलता के लिए एक लक्ष्य पर ध्यान देना चाहिए।
श्लोक 42
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ॥42॥
अर्थ: “हे पार्थ (अर्जुन)! अल्पज्ञानी लोग वेदों की पुष्पित (मोहक) वाणी में आसक्त रहते हैं और कहते हैं कि इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ उन लोगों की आलोचना करते हैं जो वेदों के बाहरी अर्थों में उलझे रहते हैं और सांसारिक सुखों को ही सर्वोच्च मानते हैं। यह श्लोक हमें गहरे आध्यात्मिक सत्य की खोज करने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 43
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुला भोगैश्वर्यगति प्रति ॥43॥
अर्थ: “वे स्वर्ग-सुख को ही जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते हैं, कामनाओं से भरे रहते हैं, और उन कर्मों में लगे रहते हैं जो भोग और ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाले हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण ऐसे लोगों का वर्णन करते हैं जो केवल भौतिक सुख और स्वर्ग की चाह में कर्मकांड करते हैं। यह श्लोक हमें सांसारिक लालच से ऊपर उठकर आत्मिक लक्ष्य पर ध्यान देने की सीख देता है।
श्लोक 44
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् |
व्यवसायात्मिका बुद्धि: समाधौ न विधीयते || 44||
अर्थ: “जो लोग भोग और ऐश्वर्य में अत्यधिक आसक्त होते हैं और जिनकी बुद्धि इन सुखों से मोहित हो चुकी होती है, उनकी निश्चयात्मक बुद्धि (स्थिर चित्त) समाधि में नहीं लगती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि सांसारिक आसक्ति मन को अस्थिर करती है और ईश्वर में एकाग्रता असंभव बना देती है। यह श्लोक हमें आसक्ति छोड़कर स्थिरता की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 45
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥45॥
अर्थ: “वेद मुख्य रूप से तीन गुणों (सत्त्व, रजस, और तमस) से संबंधित होते हैं। हे अर्जुन! तुम इन तीनों गुणों से परे हो जाओ, द्वंद्वों से मुक्त रहो, नित्य सत्य में स्थित रहो, लाभ-हानि की चिंता से ऊपर उठो, और आत्म-साक्षात्कार में स्थिर रहो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को गुणों के प्रभाव से ऊपर उठने के लिए कहते हैं। “निर्द्वन्द्व” (सुख-दुख से मुक्त), “नित्यसत्त्वस्थ” (सात्विकता में स्थिर), और “निर्योगक्षेम” (प्राप्ति और रक्षा की चिंता से मुक्त) होने से आत्म-साक्षात्कार संभव है। यह श्लोक हमें आध्यात्मिक स्वतंत्रता की ओर ले जाता है।
श्लोक 46
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥46॥
अर्थ: “जिस प्रकार एक छोटे कुएँ से उतना ही जल प्राप्त होता है जितना आवश्यक होता है, लेकिन जब चारों ओर जल से भरा विशाल सरोवर उपलब्ध हो, तब छोटे कुएँ की कोई विशेष आवश्यकता नहीं रहती है। उसी प्रकार जो व्यक्ति आत्मज्ञान को प्राप्त कर चुका है, उसके लिए समस्त वेदों का प्रयोजन उसी तरह समाप्त हो जाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं कि जो आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेता है, उसके लिए वेदों का सारा ज्ञान उस जलाशय की तरह है जिसमें छोटे कुण्ड का महत्व गौण हो जाता है। यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार की सर्वोच्चता को दर्शाता है और हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान सांसारिक विद्या से परे है।
श्लोक 47
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥47॥
अर्थ: “तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, परंतु उसके फलों में कभी नहीं। अतः तुम कर्म के फल की इच्छा से प्रेरित न हो जाओ और न ही कर्म न करने (अकर्म) में आसक्त हो।”
व्याख्या: यह गीता का सबसे प्रसिद्ध श्लोक है, जो कर्मयोग का मूल सिद्धांत बताता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म की शिक्षा देते हैं- कर्म करो, लेकिन फल की चिंता मत करो। यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्तव्य पर ध्यान देना चाहिए, न कि परिणाम पर, और न ही निष्क्रियता में लिप्त होना चाहिए।
श्लोक 48
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48॥
अर्थ: “हे धनंजय (अर्जुन)! योग में स्थित होकर, आसक्ति को त्यागकर अपने कर्तव्य का पालन करो। सफलता और असफलता को समान समझते हुए कर्म करो, क्योंकि यह समत्व (समभाव) ही योग कहलाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण योग को समता के रूप में परिभाषित करते हैं। कर्म करते समय मन को संतुलित रखना, बिना आसक्ति और परिणाम की चिंता के, योग की अवस्था है। यह श्लोक हमें जीवन में संतुलन और निष्पक्षता बनाए रखने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 49
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ॥49॥
अर्थ: “हे धनंजय (अर्जुन)! कर्म फल की इच्छा से किया गया कर्म (सकाम कर्म) बहुत ही निम्न कोटि का है। इसलिए तुम बुद्धियोग (निष्काम कर्मयोग) का आश्रय लो। जो लोग कर्म के फल के लिए कार्य करते हैं, वे कृपण (छोटे मन वाले) होते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि फल की इच्छा से किया गया कर्म निम्न है, जबकि बुद्धियोग (निष्काम कर्म) श्रेष्ठ है। “कृपण” वे हैं जो संकीर्ण सोच के कारण फल की चाह रखते हैं। यह श्लोक हमें उदार और निस्वार्थ दृष्टिकोण अपनाने की सीख देता है।
श्लोक 50
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥50॥
अर्थ: “जिस व्यक्ति की बुद्धि योग में स्थित होती है, वह इस संसार में अच्छे और बुरे दोनों कर्मों को त्याग देता है। इसलिए तुम योग में स्थित होकर कर्म करो, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि योगी पुण्य-पाप के बंधन से मुक्त हो जाता है। योग को “कर्मसु कौशलम्” (कर्मों में कुशलता) कहकर वे इसे व्यावहारिक बनाते हैं। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सही तरीके से कर्म करना ही जीवन की कला है।
श्लोक 51
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥51॥
अर्थ: “जो बुद्धियोग से युक्त ज्ञानीजन (मनीषी) हैं, वे अपने कर्मों के फलों को त्याग देते हैं। इस प्रकार वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त होकर, उस पद को प्राप्त करते हैं जो समस्त कष्टों से रहित है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि निष्काम कर्म करने वाले ज्ञानी जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। “अनामय पद” शांति और मुक्ति का प्रतीक है। यह श्लोक हमें निस्वार्थ कर्म के परम लक्ष्य की ओर प्रेरित करता है।
श्लोक 52
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥52॥
अर्थ: “जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी दलदल को पार कर जाएगी, तब तुम सुने हुए और सुनने योग्य (शास्त्रों) के प्रति उदासीन हो जाओगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब अर्जुन का भ्रम दूर होगा, तो वह सांसारिक चीजों से उदासीन हो जाएगा। यह श्लोक आत्म-ज्ञान की ओर बढ़ने और माया से मुक्ति की प्रक्रिया को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान ही भ्रम को खत्म करता है।
श्लोक 53
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥53॥
अर्थ: “जब तुम्हारी बुद्धि वेदों की विविध शिक्षाओं से विचलित हुए बिना, अचल और समाधि में स्थिर हो जाएगी, तब तुम परम योग (आध्यात्मिक स्थिति) को प्राप्त कर लोगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यहाँ योग की उच्च अवस्था- समाधि- की बात करते हैं। जब मन संदेहों से मुक्त होकर एकाग्र और स्थिर हो जाता है, तब सच्चा योग प्राप्त होता है। यह श्लोक हमें मानसिक स्थिरता और ध्यान की महत्ता सिखाता है।
श्लोक 54
अर्जुन उवाच।
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥54॥
अर्थ: अर्जुन ने कहा – “हे केशव! स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति) की क्या पहचान होती है? समाधि में स्थित पुरुष कैसे बोलता है? कैसे बैठता है और कैसे चलता है?”
व्याख्या: अर्जुन अब श्रीकृष्ण से “स्थितप्रज्ञ” (स्थिर बुद्धि वाले) के लक्षण पूछता है। यह प्रश्न दर्शाता है कि वह श्रीकृष्ण के उपदेश से प्रभावित है और इस अवस्था को समझना चाहता है। यह श्लोक हमें ज्ञानी के व्यवहार की जिज्ञासा की ओर ले जाता है।
श्लोक 55
श्रीभगवानुवाच।
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥55॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – “हे पार्थ! जब कोई व्यक्ति अपने मन में उठने वाली समस्त इच्छाओं को त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ (स्थिर बुद्धि वाला) कहा जाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ का पहला लक्षण बताते हैं- वह इच्छाओं से मुक्त होकर आत्म-संतुष्ट रहता है। यह श्लोक आत्मनिर्भरता और भीतरी शांति की शिक्षा देता है, जो सच्चे योगी की पहचान है।
श्लोक 56
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥56॥
अर्थ: “जिस व्यक्ति का मन दुखों में विचलित नहीं होता, सुख की इच्छा से मुक्त होता है, जो राग, भय और क्रोध से रहित है, उसे स्थिर बुद्धि वाला मुनि कहा जाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्थितप्रज्ञ के और गुण बताते हैं- वह सुख-दुख में संतुलित, और नकारात्मक भावनाओं से मुक्त रहता है। यह श्लोक हमें भावनात्मक स्थिरता और मानसिक शांति की ओर ले जाता है, जो आध्यात्मिक उन्नति का आधार है।
श्लोक 57
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥57॥
अर्थ: “जो व्यक्ति प्रत्येक स्थिति में आसक्त नहीं होता, और शुभ (अच्छी) या अशुभ (बुरी) परिस्थितियों को प्राप्त करके, न तो हर्षित होता है और न ही द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर (स्थितप्रज्ञ) होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण “स्थितप्रज्ञ” के एक और लक्षण को बताते हैं। ऐसा व्यक्ति जीवन की अच्छी-बुरी घटनाओं में न आसक्त होता है, न उनसे घृणा करता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्ची स्थिरता तटस्थता और संतुलन से आती है, जो बाहरी परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती।
श्लोक 58
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥58॥
अर्थ: “जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को चारों ओर से संकुचित कर लेता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति अपने इंद्रियों को उनके विषयों से हटा लेता है, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण एक सुंदर उपमा देते हैं। जैसे कछुआ खतरे में अपने अंगों को खोल में छिपा लेता है, वैसे ही ज्ञानी अपनी इंद्रियों को वश में रखता है। यह श्लोक इंद्रिय-संयम की महत्ता को दर्शाता है और हमें सिखाता है कि मन की शांति के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण आवश्यक है।
श्लोक 59
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥59॥
अर्थ: “संयमी व्यक्ति के लिए इंद्रियों के विषय (भौतिक सुख-सामग्री) तो छूट जाते हैं, लेकिन उनमें आसक्ति बनी रहती है। परंतु जब वह परम तत्व (ईश्वर) का साक्षात्कार कर लेता है, तो उसकी वह आसक्ति भी समाप्त हो जाती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि इंद्रियों को रोकने से विषयों से दूरी हो सकती है, लेकिन मन में उनकी चाह बनी रहती है। केवल परम तत्त्व का साक्षात्कार ही इस चाह को पूरी तरह मिटा सकता है। यह श्लोक हमें आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 60
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरूषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥60॥
अर्थ: “हे अर्जुन! यद्यपि विवेकवान (ज्ञानी) व्यक्ति प्रयास करता है, तथापि उसकी चंचल और बलवान इंद्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक अपनी ओर खींच लेती हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि इंद्रियाँ इतनी शक्तिशाली हैं कि वे ज्ञानी के मन को भी भटका सकती हैं। यह श्लोक इंद्रिय-निग्रह की कठिनाई को दर्शाता है और हमें सतर्क रहने की सीख देता है। यह आत्म-नियंत्रण के संघर्ष को रेखांकित करता है।
श्लोक 61
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥61॥
अर्थ: “जो व्यक्ति अपनी समस्त इंद्रियों को वश में रखकर, पूर्णतः मेरे (भगवान) में तल्लीन रहता है, और जिसकी इंद्रियाँ पूरी तरह नियंत्रण में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर (स्थितप्रज्ञ) होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण समाधान देते हैं कि इंद्रियों को नियंत्रित कर ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करने से स्थिरता मिलती है। यह श्लोक भक्ति और संयम के संयोजन को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि ईश्वर में लीन होने से मन शांत होता है।
श्लोक 62
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गत्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥62॥
अर्थ: “जब कोई व्यक्ति इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता है, तो उन विषयों में उसकी आसक्ति (संग) उत्पन्न हो जाती है। आसक्ति से इच्छा (काम) जन्म लेती है, और इच्छा में बाधा आने पर क्रोध उत्पन्न होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण मन के पतन की प्रक्रिया बताते हैं। यह श्लोक एक श्रृंखला की तरह है- विषयों का विचार आसक्ति, फिर कामना, और असफल होने पर क्रोध को जन्म देता है। यह हमें सिखाता है कि मन को अनियंत्रित विचारों से बचाना चाहिए।
श्लोक 63
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥63॥
अर्थ: “क्रोध से भ्रम उत्पन्न होता है, भ्रम से स्मृति (सद्बुद्धि) नष्ट हो जाती है, स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है, और जब बुद्धि नष्ट हो जाती है, तो व्यक्ति का पतन हो जाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण पिछले श्लोक को आगे बढ़ाते हैं। यह पतन की पूरी शृंखला है- क्रोध से भ्रम, भ्रम से स्मृति का लोप, फिर बुद्धि का नाश, और अंत में सर्वनाश। यह श्लोक हमें क्रोध और नकारात्मक भावनाओं से बचने की चेतावनी देता है।
श्लोक 64
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥64॥
अर्थ: “जो व्यक्ति राग (आसक्ति) और द्वेष (घृणा) से मुक्त होकर इंद्रियों के विषयों का उपयोग करता है, और जिसकी आत्मा संयमित है, वह परम शांति (प्रसाद) को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण सकारात्मक मार्ग बताते हैं। राग-द्वेष से मुक्त और संयमित व्यक्ति शांति पाता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि संतुलित जीवन और आत्म-नियंत्रण से सच्चा सुख मिलता है।
श्लोक 65
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥65॥
अर्थ: “जब व्यक्ति ईश्वर की कृपा (प्रसाद) को प्राप्त कर लेता है, तो उसके सभी दुख नष्ट हो जाते हैं। जिसका चित्त प्रसन्न रहता है, उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि शांति से दुख समाप्त होते हैं और बुद्धि स्थिर होती है। यह श्लोक मानसिक शांति को स्थिरता का आधार बताता है। यह हमें सिखाता है कि शांत मन ही सही निर्णय ले सकता है।
श्लोक 66
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥66॥
अर्थ: “जिस व्यक्ति का मन अस्थिर (असंयमित) होता है, उसकी बुद्धि स्थिर नहीं होती। जिसका मन स्थिर नहीं, उसकी भावना (ध्यान) सही नहीं होती। जिसे शांति नहीं मिलती, उसे सुख भी नहीं मिल सकता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि योग से रहित व्यक्ति की बुद्धि अस्थिर रहती है, जिससे शांति और सुख असंभव है। यह श्लोक योग और ध्यान के महत्व को रेखांकित करता है। यह हमें सिखाता है कि सुख का आधार शांति है, जो योग से आती है।
श्लोक 67
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥67॥
अर्थ: “जैसे वायु जल में नाव को इधर-उधर बहा ले जाती है, वैसे ही चंचल इंद्रियों के पीछे भागने वाला मन व्यक्ति की बुद्धि को नष्ट कर देता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण एक उपमा के माध्यम से बताते हैं कि अनियंत्रित इंद्रियाँ मन को भटकाती हैं और बुद्धि को नष्ट कर देती हैं, जैसे तेज हवा नाव को दिशाहीन कर देती है। यह श्लोक हमें इंद्रिय-संयम और मन पर नियंत्रण की आवश्यकता सिखाता है। यह चेतावनी देता है कि बिना संयम के स्थिरता असंभव है।
श्लोक 68
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥68॥
अर्थ: “इसलिए, हे महाबली अर्जुन! जिस व्यक्ति ने अपनी इंद्रियों को पूरी तरह वश में कर लिया है, और उन्हें इंद्रिय-विषयों (भौतिक इच्छाओं) से दूर रखा है, उसी की बुद्धि स्थिर होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण पिछले श्लोक के विपरीत सकारात्मक पक्ष बताते हैं। जो अपनी इंद्रियों को वश में रखता है, उसकी बुद्धि स्थिर रहती है। यह श्लोक “स्थितप्रज्ञ” की विशेषता को दोहराता है और हमें आत्म-नियंत्रण की प्रेरणा देता है। यह संयम को शांति का आधार बनाता है।
श्लोक 69
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥69॥
अर्थ: “जो बात सभी प्राणियों के लिए रात के समान अज्ञानमय है, उसमें एक संयमी पुरुष (योगी) जागरूक रहता है। और जिस चीज में साधारण लोग जागते हैं (आसक्ति रखते हैं), वह एक ज्ञानी पुरुष के लिए रात (निरर्थक) के समान होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण एक गहन दार्शनिक विचार प्रस्तुत करते हैं। साधारण लोग सांसारिक सुखों में जागते हैं, पर ज्ञानी के लिए यह अज्ञान की रात्रि है। वहीं, ज्ञानी आत्म-चिंतन में जागता है, जो दूसरों के लिए अंधेरा है। यह श्लोक ज्ञानी और अज्ञानी के दृष्टिकोण के अंतर को दर्शाता है और हमें आध्यात्मिक जागृति की ओर प्रेरित करता है।
श्लोक 70
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाजोति न कामकामी ॥70॥
अर्थ: “जिस प्रकार अनेक नदियाँ समुद्र में गिरती हैं, फिर भी वह अडिग और स्थिर रहता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति संसार की इच्छाओं से प्रभावित नहीं होता, वही शांति को प्राप्त करता है, न कि इच्छाओं का दास।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण समुद्र की उपमा देते हैं, जो नदियों के जल से अचल रहता है। “स्थितप्रज्ञ” भी कामनाओं से प्रभावित नहीं होता और शांत रहता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि शांति तभी मिलती है जब हम इच्छाओं से मुक्त हों, न कि उन्हें पूरा करने की चाह में।
श्लोक 71
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥71॥
अर्थ: “जो पुरुष सभी इच्छाओं को त्यागकर, आसक्ति से मुक्त होकर विचरण करता है, जो ‘मेरा’ और ‘मैं’ के अहंकार से मुक्त है, वही परम शांति को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण “स्थितप्रज्ञ” के अंतिम लक्षण बताते हैं- वह इच्छाओं, ममता और अहंकार से मुक्त होता है। यह श्लोक शांति के लिए वैराग्य और आत्म-नियंत्रण को आवश्यक बताता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा सुख भीतर से आता है, बाहरी चीजों से नहीं।
श्लोक 72
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥72॥
अर्थ: “हे अर्जुन! यह जो स्थिति है, इसे ही ब्राह्मी अवस्था कहते हैं। इसे प्राप्त करने के बाद मनुष्य कभी मोह में नहीं पड़ता। और यदि इस अवस्था में रहते हुए मृत्यु को प्राप्त होता है, तो वह परम मोक्ष (ब्रह्मनिर्वाण) को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: यह द्वितीय अध्याय का अंतिम श्लोक है। श्रीकृष्ण “स्थितप्रज्ञ” की अवस्था को “ब्राह्मी स्थिति” कहते हैं, जो ब्रह्म के साथ एकता है। यह मोक्ष का मार्ग है। यह श्लोक हमें जीवन का परम लक्ष्य- ईश्वर में लीन होना- बताता है और आश्वासन देता है कि यह स्थिति मृत्यु के समय भी मुक्ति देती है।
श्रीमद् भागवत गीता के दूसरे अध्याय सारांश
“सांख्य योग” के रूप में प्रसिद्ध यह अध्याय गीता का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय माना जाता है। इसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा का ज्ञान, कर्मयोग, स्थिरबुद्धि, और सच्ची शांति का मार्ग समझाया है। यह अध्याय अर्जुन के शोक से शुरू होकर उसे आध्यात्मिक शांति और कर्तव्य की ओर ले जाता है।
इस अध्याय की मुख्य शिक्षाएँ:
- आत्मा अमर है – शरीर नश्वर है, लेकिन आत्मा अजर-अमर और शाश्वत है।
- कर्मयोग – बिना फल की चिंता किए अपने कर्तव्यों का पालन करना ही सच्चा योग है।
- इंद्रिय संयम – जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखता है, वही वास्तविक ज्ञान और शांति प्राप्त करता है।
- स्थिरबुद्धि योगी – जो मोह, इच्छाओं और अहंकार से मुक्त होता है, वही सच्ची बुद्धिमत्ता को प्राप्त करता है।
- मोक्ष का मार्ग – जो व्यक्ति ब्राह्मी स्थिति में स्थिर रहता है, वह अंततः मोक्ष को प्राप्त करता है।