श्रीमद्भागवत गीता का तीसरा अध्याय “कर्म योग” कहलाता है। यह मानव जीवन में कर्म के महत्व और निष्काम कर्म की अवधारणा को स्पष्ट करता है। यह अध्याय अर्जुन के मन में उठे संदेहों का समाधान करता है और कर्म को जीवन का आधार बनाकर आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है। आधुनिक संदर्भ में कर्मयोग न केवल व्यक्तिगत विकास के लिए, बल्कि सामाजिक और व्यावसायिक जीवन में भी प्रासंगिक है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3: कर्मयोग (Bhagwat Geeta Chapter 3)
श्रीमद् भागवत गीता का तीसरा अध्याय, “कर्मयोग” है। यह अध्याय 43 श्लोकों में विभाजित है। श्रीमद्भगवद्गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग के माध्यम से हमें जीवन का एक गहन दर्शन प्रदान करता है। यह सिखाता है कि कर्म अनिवार्य है, किंतु उसे निष्काम भाव से करना ही आध्यात्मिक और व्यावहारिक सफलता का मार्ग है। कर्मयोग न केवल व्यक्तिगत जीवन को संतुलित करता है, बल्कि समाज और प्रकृति के प्रति भी उत्तरदायित्व की भावना जागृत करता है।
आधुनिक युग में, जहां तनाव और अहंकार जीवन को जटिल बनाते हैं, कर्मयोग एक प्रकाशस्तंभ की तरह मार्गदर्शन करता है। गीता का यह अध्याय हमें प्रेरित करता है कि हम अपने कर्तव्यों का पालन निस्वार्थ भाव से करें और जीवन को एक सार्थक साधना बनाएं। इन श्लोकों के माध्यम से हम इस अध्याय की गहराई से समझेंगे।
श्लोक 1
अर्जुन उवाच।
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥1॥
अर्थ: “हे जनार्दन! यदि आपकी दृष्टि में ज्ञान (बुद्धि या संन्यास) कर्म से श्रेष्ठ है, तो फिर हे केशव! आप मुझे इस भयानक कर्म (युद्ध) में क्यों लगाते हैं?”
व्याख्या: यह श्लोक अर्जुन के मन में उत्पन्न द्वंद्व और भ्रम को प्रकट करता है। दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने ज्ञानयोग और सांख्य दर्शन के माध्यम से आत्मा की अमरता, कर्तव्य, और समबुद्धि का उपदेश दिया था। अर्जुन को यह प्रतीत हुआ कि श्रीकृष्ण ज्ञान को कर्म से श्रेष्ठ बता रहे हैं। इस भ्रम के कारण वह प्रश्न उठाता है कि यदि ज्ञान ही श्रेष्ठ है, तो उसे युद्ध जैसे हिंसक और भयावह कर्म में क्यों लगाया जा रहा है। यह श्लोक कर्म और ज्ञान के बीच के कथित विरोधाभास को उजागर करता है, जो तीसरे अध्याय का केंद्रीय विषय बनता है।
श्लोक 2
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ॥2॥
अर्थ: अर्जुन ने कहा: “आपके वचन मानो परस्पर विरोधाभासी (व्यामिश्र) लग रहे हैं, जिससे मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। इसलिए कृपा करके मुझे एक ही मार्ग स्पष्ट रूप से बताइए, जिससे मैं परम कल्याण (मोक्ष) प्राप्त कर सकूँ।”
व्याख्या: अर्जुन श्रीकृष्ण के ज्ञानयोग और कर्मयोग के उपदेशों से भ्रमित हैं। वह एक स्पष्ट मार्ग की माँग करते हैं जो उन्हें आध्यात्मिक कल्याण तक ले जाए। यह श्लोक अर्जुन की मानसिक उलझन और स्पष्टता की चाह को दर्शाता है, जो कर्मयोग के विस्तृत विवरण की नींव रखता है। यह श्लोक जीवन में दुविधाओं, जैसे कर्तव्य और आध्यात्मिकता के बीच संतुलन, को दर्शाता है। कर्मयोग हमें सिखाता है कि निस्वार्थ कर्तव्य पालन ही कल्याण का मार्ग है।
श्लोक 3
श्रीभगवानुवाच।
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥3॥
अर्थ: श्रीभगवान ने कहा: “हे निष्पाप अर्जुन! इस संसार में मैंने पहले दो प्रकार की निष्ठाएं (मार्ग) बताई थीं – एक ज्ञानयोग (संन्यास मार्ग) है जो सांख्य योगियों के लिए है, और दूसरी कर्मयोग (कर्म के द्वारा योग) है जो कर्म करने वाले योगियों के लिए है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन के भ्रम का समाधान शुरू करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि मोक्ष के दो मार्ग हैं: ज्ञानयोग, जो चिंतनशील और आत्मनिष्ठ व्यक्तियों के लिए उपयुक्त है, और कर्मयोग, जो सक्रिय और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तियों के लिए है। यह श्लोक कर्मयोग और ज्ञानयोग को परस्पर विरोधी न मानकर, व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार पूरक मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है।
श्लोक 4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥4॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: “मनुष्य केवल कर्मों को न करने से निष्क्रियता (नैष्कर्म्य) को प्राप्त नहीं होता,और न ही केवल कर्मों का त्याग (संन्यास) कर देने से सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि कर्मों से पूर्णतः बचना या केवल बाहरी संन्यास लेना आध्यात्मिक सिद्धि का मार्ग नहीं है। नैष्कर्म्य, अर्थात् कर्म के बंधन से मुक्ति, केवल कर्म छोड़ने से नहीं, बल्कि निष्काम कर्म के माध्यम से प्राप्त होती है। यह श्लोक कर्मयोग के मूल सिद्धांत को रेखांकित करता है कि सक्रियता और कर्तव्य पालन ही सही दिशा है।
श्लोक 5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥5॥
अर्थ: “कोई भी व्यक्ति एक क्षण के लिए भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता, क्योंकि सभी लोग प्रकृति से उत्पन्न गुणों के कारण अनायास ही कर्म करने के लिए प्रेरित होते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्म की अनिवार्यता पर बल देते हैं। प्रकृति के तीन गुण (सत्व, रजस, तमस) प्रत्येक व्यक्ति को कर्म के लिए प्रेरित करते हैं, चाहे वह शारीरिक, मानसिक, या भावनात्मक कर्म हो। यह श्लोक बताता है कि कर्म से बचना असंभव है; इसलिए, कर्म को निष्काम भाव से करना ही कर्मयोग का आधार है।
श्लोक 6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥6॥
अर्थ: “जो व्यक्ति अपने कर्मेन्द्रियों (हाथ, पैर आदि बाहरी अंगों) को वश में करके बाह्य रूप से तो कर्म नहीं करता, लेकिन मन से इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मूढ़ आत्मा (मूर्खचित्त) है, और उसे पाखंडी (मिथ्याचारि) कहा जाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बाहरी संयम और आंतरिक इच्छाओं के बीच के विरोधाभास को उजागर करते हैं। केवल शारीरिक कर्मों को छोड़ देना पर्याप्त नहीं है, यदि मन इंद्रिय-सुखों में लिप्त है। यह पाखंड है, क्योंकि सच्चा कर्मयोगी मन और कर्म में एकरूपता रखता है। यह श्लोक कर्मयोग के सिद्धांत को मजबूत करता है कि सच्चा संयम मन के नियंत्रण से आता है।
श्लोक 7
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥7॥
अर्थ: “परंतु हे अर्जुन! जो व्यक्ति मन द्वारा इन्द्रियों को वश में करके कर्मेन्द्रियों से आसक्ति रहित होकर कर्मयोग का आचरण करता है, वह दूसरों से श्रेष्ठ होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्मयोग की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हैं। जो व्यक्ति अपने मन को वश में रखकर, फल की इच्छा के बिना कर्म करता है, वह सच्चा कर्मयोगी है। यह श्लोक पिछले श्लोक के विपरीत, सकारात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जहाँ मन का संयम और निष्काम कर्म को आदर्श बताया गया है।
श्लोक 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥8॥
अर्थ: “तू अपना नियत कर्म (कर्तव्य कर्म) कर, क्योंकि कर्म करना कर्म न करने से श्रेष्ठ है। यहाँ तक कि तेरी शरीर यात्रा (जीवन निर्वाह) भी कर्म न करने से नहीं हो सकती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने कर्तव्यों का पालन करने का निर्देश देते हैं, यह बताते हुए कि कर्म न करना कोई विकल्प नहीं है। नियत कर्म, अर्थात् व्यक्ति की स्थिति और प्रकृति के अनुसार कर्तव्य, जीवन का आधार है। यह श्लोक कर्म की अनिवार्यता और निष्क्रियता के दुष्परिणामों पर बल देता है।
श्लोक 9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ॥9॥
अर्थ: “हे कौन्तेय (अर्जुन)! यज्ञ (ईश्वर) के लिए किए गए कर्म को छोड़कर जो अन्य कर्म किए जाते हैं, वे इस संसार में कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं। इसलिए तू आसक्ति से मुक्त होकर, उसी यज्ञ भाव से कर्म कर।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्म को यज्ञ के रूप में करने की सलाह देते हैं। यज्ञ का अर्थ है कर्म को निस्वार्थ भाव से, ईश्वर को समर्पित करना। केवल ऐसे कर्म ही बंधन से मुक्त करते हैं, जबकि स्वार्थी कर्म बंधन का कारण बनते हैं। यह श्लोक कर्मयोग के मूल सिद्धांत को रेखांकित करता है कि कर्म को अनासक्ति और समर्पण के साथ करना चाहिए।
श्लोक 10
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥10॥
अर्थ: “श्री भगवान ने कहा: प्रारंभ में प्रजापति (ब्रह्मा) ने यज्ञ के साथ प्रजाओं की सृष्टि की और कहा, “इस यज्ञ के द्वारा तुम समृद्धि प्राप्त करो; यह यज्ञ तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाला हो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति ने यज्ञ को जीवन का आधार बनाया। यज्ञ का अर्थ केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि निस्वार्थ कर्म है, जो समाज और प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखता है। यह श्लोक कर्म को यज्ञ के रूप में प्रस्तुत करता है, जो समृद्धि और कल्याण का स्रोत है।
श्लोक 11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥11॥
अर्थ: “तुम इस यज्ञ के द्वारा देवताओं को संतुष्ट करो, और देवता तुम्हें संतुष्ट करेंगे। इस प्रकार परस्पर संतुलन बनाए रखते हुए, तुम परम कल्याण (मोक्ष/श्रेयो मार्ग) को प्राप्त करोगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण यज्ञ के माध्यम से परस्पर सहयोग और संतुलन की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं। यहाँ “देवता” प्रकृति और विश्व की शक्तियों का प्रतीक हैं। यज्ञ (निस्वार्थ कर्म) के द्वारा मानव प्रकृति का पोषण करता है, और बदले में प्रकृति मानव को समृद्धि प्रदान करती है। यह श्लोक सामाजिक और पर्यावरणीय सामंजस्य पर बल देता है।
श्लोक 12
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुतस्तेन एव सः ॥12॥
अर्थ: “यज्ञ से संतुष्ट हुए देवता तुम्हें प्रिय भोग (संपत्ति, सुख) प्रदान करते हैं। परंतु जो व्यक्ति उन भोगों को स्वयं भोगता है,
और देवताओं (या समाज) को कुछ वापस नहीं देता, वह वास्तव में चोर है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में यज्ञ के महत्व को और गहराई से समझाते हैं। “देवता” यहाँ प्रकृति और विश्व की शक्तियों का प्रतीक हैं, जो यज्ञ (निस्वार्थ कर्म) से संतुष्ट होकर जीवन के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करते हैं। जो व्यक्ति इन संसाधनों का उपभोग करता है, लेकिन समाज या प्रकृति को कुछ वापस नहीं देता, वह “स्तेन” (चोर) कहलाता है।
श्लोक 13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥13॥
अर्थ: “जो संत पुरुष यज्ञ के बाद बचे हुए अन्न (यज्ञशेष) को खाते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो लोग केवल अपने लिए भोजन पकाते हैं, वे वास्तव में पाप का ही भक्षण करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में यज्ञ के महत्व को और स्पष्ट करते हैं। यज्ञ के शेष (प्रसाद) का अर्थ है निस्वार्थ कर्म का फल, जो समाज और ईश्वर को समर्पित करने के बाद प्राप्त होता है। जो लोग यज्ञ के भाव से कार्य करते और उसका फल ग्रहण करते हैं, वे पापों से मुक्त रहते हैं। इसके विपरीत, स्वार्थी कर्म करने वाले पाप के भागी बनते हैं। यह श्लोक कर्म को निस्वार्थ भाव से करने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 14
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥14॥
अर्थ: “अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं, वर्षा (पर्जन्य) से अन्न उत्पन्न होता है। यज्ञ से वर्षा होती है, और यज्ञ कर्म (कर्तव्य) से उत्पन्न होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में विश्व के चक्रीय संतुलन को दर्शाते हैं। यज्ञ (निस्वार्थ कर्म) वर्षा को प्रेरित करता है, जो अन्न उत्पन्न करती है, और अन्न से प्राणियों का पोषण होता है। यह श्लोक कर्म की महत्ता को रेखांकित करता है, जो प्रकृति और जीवन के चक्र का आधार है।
श्लोक 15
कर्म ब्रह्योद्भवं विद्धि बह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं। ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥15॥
अर्थ: “कर्म ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है, ब्रह्म अक्षर (अद्वितीय और अनश्वर तत्व) से उत्पन्न होता है। इसलिए सर्वव्यापी ब्रह्म नित्य रूप से यज्ञ में प्रतिष्ठित होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्म और यज्ञ की आध्यात्मिक उत्पत्ति को स्पष्ट करते हैं। कर्म वेदों (दिव्य ज्ञान) से प्रेरित है, और वेद परमात्मा से उत्पन्न हुए हैं। यज्ञ (निस्वार्थ कर्म) में ब्रह्म की उपस्थिति दर्शाती है कि कर्म केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना है। यह श्लोक कर्मयोग को ब्रह्म के साथ जोड़ता है।
श्लोक 16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥16॥
अर्थ: “जो व्यक्ति कर्म के मार्ग (यज्ञ और धर्म) का पालन नहीं करता, वह संसार के चक्र को चालू नहीं कर पाता। ऐसे व्यक्ति के लिए कर्मों में अव्यवस्था और विकार आ जाते हैं, और वह पाप के परिणाम का भागी बनता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में विश्व के चक्रीय संतुलन का अनुसरण करने की आवश्यकता पर बल देते हैं, जो यज्ञ (निस्वार्थ कर्म) पर आधारित है। जो व्यक्ति केवल इंद्रिय-सुख की खोज में अपने कर्तव्यों से विमुख होता है, वह प्रकृति और समाज के प्रति अपने दायित्वों को नजरअंदाज करता है, जिससे उसका जीवन निरर्थक हो जाता है।
श्लोक 17
यस्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥17॥
अर्थ: “भगवान श्री कृष्ण कहते है: जो व्यक्ति आत्मा में ही रमण करने वाला, आत्मा में तृप्त और आत्मा में ही संतुष्ट है, उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मनिष्ठ व्यक्ति की अवस्था का वर्णन करते हैं, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुका है। ऐसा व्यक्ति आत्मा में पूर्णतः संतुष्ट होता है और उसे सांसारिक कर्मों की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वह कर्म के बंधन से मुक्त हो चुका है। यह श्लोक कर्मयोग के अंतिम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार को दर्शाता है।
श्लोक 18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥18॥
अर्थ: “आत्मनिष्ठ व्यक्ति के लिए न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन है, न कर्म न करने से कोई हानि। उसे किसी प्राणी पर किसी उद्देश्य के लिए निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में आत्मज्ञानी की अवस्था को और स्पष्ट करते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्म और अकर्म के बंधन से परे होता है, क्योंकि वह आत्मा में पूर्णतः संतुष्ट है। उसे न तो कर्म से कुछ प्राप्त करना है, न ही किसी प्राणी पर निर्भर रहना है। यह श्लोक आत्मनिर्भरता और आध्यात्मिक स्वतंत्रता की अवस्था को दर्शाता है।
श्लोक 19
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमानोति पुरुषः ॥19॥
अर्थ: “इसलिए तू आसक्ति रहित होकर सदैव कर्तव्य कर्म करता रह, क्योंकि ऐसा व्यक्ति, जो फल की इच्छा के बिना कर्म करता है, वह परम सिद्धि को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्मयोग के मूल सिद्धांत को दोहराते हैं। अनासक्ति, अर्थात् फल की इच्छा के बिना कर्म करना, आध्यात्मिक सिद्धि का मार्ग है। यह श्लोक सामान्य व्यक्तियों को आत्मनिष्ठ अवस्था तक पहुँचने के लिए निस्वार्थ कर्म का अभ्यास करने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 20
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥20॥
अर्थ: “जनक जैसे राजर्षियों ने केवल कर्म द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की थी। तुम्हें भी लोकसंग्रह (लोक कल्याण) के लिए कर्म करना चाहिए।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में राजा जनक जैसे कर्मयोगियों का उदाहरण देते हैं, जिन्होंने निस्वार्थ कर्म द्वारा आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की। वे अर्जुन को लोकसंग्रह, अर्थात् समाज के हित के लिए कर्म करने की सलाह देते हैं। यह श्लोक कर्मयोग को सामाजिक उत्तरदायित्व से जोड़ता है।
श्लोक 21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥21॥
अर्थ: “श्रेष्ठ पुरुष जैसा आचरण करता है, अन्य लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं। वह जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सारा समाज उसी मार्ग पर चलता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में नेतृत्व की जिम्मेदारी पर बल देते हैं। श्रेष्ठ व्यक्ति (जैसे राजा, विद्वान) के कर्म समाज के लिए आदर्श बनते हैं। यह श्लोक कर्मयोगियों को अपने कार्यों में सावधानी और निस्वार्थता बरतने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 22
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥22॥
अर्थ: “हे अर्जुन! तीनों लोकों में मेरा कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है, मुझे कुछ भी प्राप्त करना बाकी नहीं है, फिर भी मैं निरंतर कर्म में लगा रहता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्वयं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि यद्यपि उन्हें कर्म की आवश्यकता नहीं, फिर भी वे लोकसंग्रह के लिए कर्म करते हैं। यह कर्मयोग का आदर्श है।
श्लोक 23
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥23॥
अर्थ: “हे पार्थ! यदि मैं कभी भी कर्म में सतत तत्पर न रहूं, तो मनुष्य हर प्रकार से मेरे मार्ग का ही अनुसरण करेंगे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि यदि वे कर्म न करें, तो लोग भी निष्क्रियता अपनाएँगे, जिससे सामाजिक व्यवस्था भंग होगी। यह श्लोक कर्म की निरंतरता और नेतृत्व की जिम्मेदारी पर बल देता है।
श्लोक 24
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् ।
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥24॥
अर्थ: “यदि मैं कर्म न करूं तो ये सब लोग नष्ट हो जाएंगे, और मैं संकर (धर्महीन मिश्रित जातियों) का कारण बनूंगा, जिससे ये प्रजा नष्ट हो जाएगी।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्म न करने के गंभीर परिणामों को दर्शाते हैं। उनके कर्म न करने से सामाजिक और नैतिक व्यवस्था भंग होगी। यह श्लोक कर्मयोग की सामाजिक प्रासंगिकता को रेखांकित करता है।
श्लोक 25
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ॥25॥
अर्थ: “हे अर्जुन, जैसे अज्ञानी लोग फल की आसक्ति से कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति को भी, परंतु आसक्ति रहित होकर, लोक कल्याण की भावना से कर्म करना चाहिए।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण विद्वान और अज्ञानी के कर्मों में अंतर स्पष्ट करते हैं। विद्वान को अनासक्त होकर, समाज के कल्याण के लिए कर्म करना चाहिए, ताकि वह दूसरों के लिए आदर्श बने। यह श्लोक कर्मयोग को सामाजिक नेतृत्व से जोड़ता है।
श्लोक 26
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वानयुक्तः समाचरन् ॥26॥
अर्थ: “ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि वह कर्म में आसक्त अज्ञानियों की बुद्धि में विचलन न उत्पन्न करे, बल्कि स्वयं युक्त होकर कर्म करते हुए, उन्हें भी कर्म में प्रवृत्त रहने दे।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण सलाह देते हैं कि विद्वान को अज्ञानियों को उनके कर्मों से विमुख नहीं करना चाहिए, बल्कि स्वयं कर्मयोग का पालन करके उन्हें सही दिशा दिखानी चाहिए। यह श्लोक शिक्षा और प्रेरणा के महत्व को दर्शाता है।
श्लोक 27
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥27॥
अर्थ: “प्रकृति के गुणों के द्वारा ही सभी कर्म स्वतः होते हैं, लेकिन अहंकार से मोहित व्यक्ति सोचता है— “मैं ही कर्ता हूँ”।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अहंकार को कर्म के बंधन का कारण बताते हैं। वास्तव में, कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा संचालित होते हैं, लेकिन अहंकार के कारण व्यक्ति स्वयं को कर्ता समझता है। यह श्लोक निष्काम कर्म की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
श्लोक 28
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ॥28॥
अर्थ: “हे महाबाहो (अर्जुन)! तत्त्व को जानने वाला व्यक्ति जानता है कि गुण ही गुणों में प्रवृत्त होते हैं, इसलिए वह कर्मों में आसक्त नहीं होता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति प्रकृति के गुणों और कर्मों की वास्तविकता को समझ लेता है, वह यह जान लेता है कि सभी कर्म गुणों के संयोग से होते हैं, न कि आत्मा द्वारा। ऐसा व्यक्ति कर्मों में आसक्त नहीं होता। यह श्लोक ज्ञान और कर्मयोग के समन्वय को दर्शाता है।
श्लोक 29
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् ॥29॥
अर्थ: “प्रकृति के गुणों से मोहित होकर लोग गुणों के अनुसार कर्मों में आसक्त हो जाते हैं, लेकिन सम्पूर्ण तत्व को जानने वाला ज्ञानी व्यक्ति, ऐसे अल्पबुद्धि लोगों को विचलित नहीं करता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि अज्ञानी लोग प्रकृति के गुणों (सत्व, रजस, तमस) के प्रभाव से कर्मों में आसक्त रहते हैं। ज्ञानी को उन्हें उनके कर्मपथ से भटकाने के बजाय, स्वयं कर्मयोग का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए। यह श्लोक सहानुभूति और मार्गदर्शन पर बल देता है।
श्लोक 30
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥30॥
अर्थ: “अपने सभी कर्मों को मुझमें अर्पित करके, आत्मा में स्थिर चित्त, निःस्वार्थ, निरमम और चिंता रहित होकर तू युद्ध कर, हे अर्जुन!”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्मयोग का सार सिखाते हैं: कर्म को ईश्वर को समर्पित करना, निस्वार्थ भाव से कार्य करना, और मानसिक तनाव (ज्वर) से मुक्त रहना। यह श्लोक कर्मयोग की आध्यात्मिक और व्यावहारिक प्रकृति को दर्शाता है।
श्लोक 31
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥31॥
अर्थ: “जो मनुष्य मेरे इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, जो ईर्ष्या और आलोचना से रहित होते हैं, वे भी संसार के कर्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग कर्मयोग के उपदेश को श्रद्धा और निष्ठा से अपनाते हैं, वे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। यह श्लोक श्रद्धा और समर्पण के महत्व को रेखांकित करता है।
श्लोक 32
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः ॥32॥
अर्थ: “जो लोग मेरे इस उपदेश की निंदा करते हैं और इसका पालन नहीं करते, उन्हें तू ज्ञान से विमूढ़ (मूर्ख) और नष्ट बुद्धि वाले समझ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में उपदेश की अवहेलना करने वालों के परिणाम बताते हैं। जो लोग कर्मयोग के मार्ग को नकारते हैं, वे अज्ञान के कारण अपने आध्यात्मिक और व्यावहारिक विकास को रोक लेते हैं। यह श्लोक उपदेश के प्रति गंभीरता की माँग करता है।
श्लोक 33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥33॥
अर्थ: “ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी स्वभावजन्य प्रकृति के अनुसार ही आचरण करता है, सभी प्राणी अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं, फिर दमन (निग्रह) करने से क्या लाभ?”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में मानव स्वभाव की प्राकृतिक प्रवृत्तियों को स्वीकार करने की बात कहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करता है, और इसे बलपूर्वक दबाना उचित नहीं। कर्मयोग में प्रकृति के अनुरूप कर्म को निस्वार्थ भाव से करना चाहिए।
श्लोक 34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥34॥
अर्थ: “हर इन्द्रिय के विषय में राग (आकर्षण) और द्वेष (विकर्षण) स्थित होते हैं, मनुष्य को चाहिए कि वह उनके वश में न हो, क्योंकि ये दोनों ही आत्मा के मार्ग में बाधक हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में राग (आसक्ति) और द्वेष (विरक्ति) को कर्मयोग के मार्ग में बाधा बताते हैं। इंद्रिय-सुखों के प्रति राग और उनसे घृणा दोनों ही मन को विचलित करते हैं। कर्मयोगी को इनसे मुक्त होकर संतुलित रहना चाहिए।
श्लोक 35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥35॥
अर्थ: “स्वधर्म (अपना कर्तव्य) दोषयुक्त होते हुए भी, परधर्म (दूसरे का कर्तव्य) से श्रेष्ठ है। स्वधर्म में मर जाना भी कल्याणकारी है, जबकि परधर्म अत्यंत भयकारक होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्वधर्म (अपने कर्तव्य) के पालन पर बल देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति और स्थिति के अनुसार कर्तव्यों का निर्वहन करना चाहिए, न कि दूसरों की नकल करनी चाहिए। यह श्लोक व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारी को रेखांकित करता है।
श्लोक 36
अर्जुन उवाच।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥36॥
अर्थ: “हे वार्ष्णेय (कृष्ण)! मनुष्य किसके प्रभाव से पाप करता है, जबकि वह इच्छा न रखने पर भी बलपूर्वक जैसे कोई उसे कराता है?”
व्याख्या: अर्जुन इस श्लोक में मानव स्वभाव की कमजोरी पर प्रश्न उठाते हैं। वे जानना चाहते हैं कि मनुष्य क्यों पाप की ओर प्रवृत्त होता है, भले ही वह ऐसा नहीं करना चाहता। यह प्रश्न कर्मयोग के संदर्भ में मन के नियंत्रण और आंतरिक संघर्ष को रेखांकित करता है।
श्लोक 37
श्रीभगवानुवाच।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥37॥
अर्थ: श्री भगवान ने कहा: “यह काम (इच्छा) और क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। ये अतृप्त और महापापी हैं; इन्हें ही यहाँ शत्रु समझो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण काम और क्रोध को पाप का मूल कारण बताते हैं, जो रजोगुण (जुनून) से उत्पन्न होते हैं। ये मनुष्य को गलत कार्यों की ओर धकेलते हैं। यह श्लोक कर्मयोग में आत्म-नियंत्रण के महत्व को दर्शाता है।
श्लोक 38
धूमेनावियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥38॥
अर्थ: “जैसे धुएं से अग्नि ढक जाती है, और जैसे दर्पण में मैल से उसकी छवि अस्पष्ट हो जाती है, वैसे ही रजोगुण से ढके हुए मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को मैल (अज्ञान) से ढका हुआ होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में काम को ज्ञान का आवरण बताते हैं। जैसे विभिन्न आवरण वस्तुओं को ढक लेते हैं, वैसे ही काम मनुष्य के विवेक को ढक देता है, जिससे वह सही-गलत का निर्णय नहीं कर पाता। यह श्लोक काम के प्रभाव को दर्शाता है।
श्लोक 39
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥39॥
अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र! कामरूप नामक यह अग्नि, जो ज्ञान को ढककर उसे नष्ट कर देती है, यह ज्ञानियों के लिए हमेशा से ही वशीकरण करने वाली होती है और न तो यह कभी शांत होती है और न ही पूरी होती है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण काम को ज्ञान का शत्रु बताते हैं, जो एक अतृप्त अग्नि की तरह है। यह श्लोक काम की अतृप्त प्रकृति और इसके विनाशकारी प्रभाव को रेखांकित करता है, जो कर्मयोग में बाधा डालता है।
श्लोक 40
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥40॥
अर्थ: “श्री भगवान ने कहा: इंद्रियाँ, मन और बुद्धि काम के निवास स्थान हैं। ये काम के द्वारा जीव के ज्ञान को ढककर उसे मोहित करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में काम के ठिकानों—इंद्रियाँ, मन, और बुद्धि—को बताते हैं। ये अंग काम के प्रभाव में आकर व्यक्ति के विवेक को भ्रमित करते हैं। यह श्लोक कर्मयोग में इनका नियंत्रण करने की आवश्यकता को दर्शाता है।
श्लोक 41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ॥41॥
अर्थ: “श्री भगवान ने कहा: इसलिए, हे भरतश्रेष्ठ, तुम पहले इंद्रियों को नियंत्रित कर और इस पापी काम को, जो ज्ञान और विज्ञान का नाशक है, नष्ट कर।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को काम पर विजय पाने के लिए सबसे पहले इंद्रियों को नियंत्रित करने की सलाह देते हैं। काम को ज्ञान और विवेक का नाशक बताकर वे इसके विनाशकारी स्वरूप पर बल देते हैं। यह श्लोक कर्मयोग में आत्म-नियंत्रण के महत्व को रेखांकित करता है।
श्लोक 42
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥42॥
अर्थ: “श्री भगवान ने कहा: इंद्रियाँ शरीर से श्रेष्ठ हैं, इंद्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है, और बुद्धि से भी परे आत्मा है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में मानव चेतना की श्रेणी बताते हैं। आत्मा सर्वोच्च है, जो इंद्रियों, मन, और बुद्धि से ऊपर है। यह श्लोक कर्मयोगी को आत्मा की शक्ति को पहचानने और उसका उपयोग कर काम पर विजय पाने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 43
एवं बुद्धः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥43॥
अर्थ: श्री भगवान ने कहा: “हे महाबाहो, इस प्रकार आत्मा को बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर, आत्मा द्वारा आत्मा को संयमित कर, और कामरूपी इस दुर्जेय शत्रु को नष्ट कर।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कर्मयोग के चरम उपदेश के साथ अध्याय का समापन करते हैं। वे अर्जुन को आत्मा की शक्ति से काम पर विजय पाने की सलाह देते हैं। आत्म-नियंत्रण और आत्म-जागरूकता के द्वारा कर्मयोगी अपने शत्रु (काम) को परास्त कर सकता है।
श्रीमद् भागवत गीता के तीसरे अध्याय सारांश
श्रीमद्भगवद्गीता का तीसरा अध्याय, जिसे “कर्मयोग” के नाम से जाना जाता है, कर्म की अनिवार्यता और निष्काम कर्म के महत्व पर केंद्रित है। यह अध्याय अर्जुन के भ्रम का समाधान करता है, जो ज्ञान और कर्म के बीच द्वंद्व में फँसा है। श्रीकृष्ण कर्मयोग के सिद्धांतों को स्पष्ट करते हुए निम्नलिखित प्रमुख बिंदुओं पर प्रकाश डालते हैं:
- कर्म की अनिवार्यता: कोई भी व्यक्ति क्षण भर के लिए भी कर्म से मुक्त नहीं रह सकता, क्योंकि प्रकृति के गुण (सत्व, रजस, तमस) सभी को कर्म करने के लिए बाध्य करते हैं। निष्क्रियता कोई समाधान नहीं है; कर्तव्यों का पालन आवश्यक है।
- निष्काम कर्म: कर्म को फल की इच्छा के बिना, अनासक्त और ईश्वर को समर्पित भाव से करना चाहिए। यज्ञ के लिए किया गया कर्म बंधन से मुक्त करता है, जबकि स्वार्थी कर्म बंधन का कारण बनता है।
- स्वधर्म का पालन: प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति और स्थिति के अनुसार अपने कर्तव्यों (स्वधर्म) का पालन करना चाहिए। स्वधर्म का पालन, भले ही वह गुणहीन हो, परधर्म से श्रेष्ठ है।
- लोकसंग्रह: कर्मयोगी को समाज के कल्याण (लोकसंग्रह) के लिए कार्य करना चाहिए। श्रेष्ठ व्यक्ति के कर्म समाज के लिए आदर्श बनते हैं, जैसा कि जनक जैसे राजर्षियों और स्वयं श्रीकृष्ण के उदाहरण से स्पष्ट है।
- काम और क्रोध का नियंत्रण: काम और क्रोध, जो रजोगुण से उत्पन्न होते हैं, कर्मयोग के मार्ग में प्रमुख बाधाएँ हैं। इंद्रियों, मन, और बुद्धि पर नियंत्रण द्वारा इन पर विजय प्राप्त की जा सकती है। आत्मा की शक्ति से काम को परास्त करना कर्मयोग का चरम लक्ष्य है।
- ज्ञान और कर्म का समन्वय: कर्मयोग और ज्ञानयोग परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। ज्ञानी व्यक्ति प्रकृति के गुणों को समझकर कर्मों में आसक्त नहीं होता, जबकि सामान्य व्यक्ति को निस्वार्थ कर्म के माध्यम से प्रगति करनी चाहिए।