श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 4: ज्ञान कर्म संन्यास योग | Bhagwat Geeta Chapter 4

श्रीमद्भागवत गीता का चौथा अध्याय “ज्ञान कर्म संन्यास योग” कहलाता है। यह अध्याय कर्मयोग और ज्ञानयोग के बीच संतुलन स्थापित करते हुए यह सिखाता है कि सही ज्ञान के साथ किया गया कर्म ही मुक्ति का मार्ग है। चौथा अध्याय संन्यास के सही अर्थ को स्पष्ट करता है। सच्चा संन्यास बाह्य वैराग्य में नहीं, बल्कि मन और इंद्रियों के संयम में निहित है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म और ज्ञान परस्पर विरोधी नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। जो व्यक्ति ज्ञान के साथ कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी दोनों है। यह समन्वय जीवन को संतुलित और सार्थक बनाता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 4: ज्ञान कर्म संन्यास योग (Bhagwat Geeta Chapter 4)

श्रीमद् भागवत गीता का चौथा अध्याय, “ज्ञान कर्म संन्यास योग” है। यह अध्याय 42 श्लोकों में विभाजित है। चौथे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को योग की प्राचीन परंपरा का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि यह ज्ञान सूर्यदेव विवस्वान से शुरू होकर मनु, इक्ष्वाकु और अन्य राजर्षियों तक पहुँचा, किंतु समय के साथ यह लुप्त हो गया।

श्रीकृष्ण इस ज्ञान को अर्जुन के समक्ष पुनः प्रकट करते हैं। यह अध्याय कर्मयोग और ज्ञानयोग के एकीकरण पर बल देता है, जहाँ निष्काम कर्म और आत्मज्ञान को जीवन का आधार बताया गया है। साथ ही, यह संन्यास के सही स्वरूप को समझाता है, जिसमें बाह्य त्याग से अधिक मन और इंद्रियों के संयम को महत्व दिया गया है।

श्लोक 1

श्रीभगवानुवाच।
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥1॥

अर्थ: “भगवान श्रीकृष्ण ने कहा मैंने यह अविनाशी योग (ज्ञान) पहले विवस्वान (सूर्यदेव) को बताया था। विवस्वान ने इसे मनु को कहा और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग की प्राचीन परंपरा का वर्णन करते हैं, जो ज्ञान कर्म संन्यास योग का आधार है। वे बताते हैं कि यह योग अविनाशी है, अर्थात् इसका सत्य शाश्वत है। श्रीकृष्ण ने इसे सृष्टि के प्रारंभ में सूर्यदेव विवस्वान को प्रदान किया, जिन्होंने इसे मनु और फिर इक्ष्वाकु तक पहुँचाया। यह परंपरा गुरु-शिष्य के माध्यम से चली आ रही है, जो ज्ञान के संरक्षण और प्रसार का महत्व दर्शाती है। यह श्लोक गीता के दैवीय और प्राचीन स्वरूप को स्थापित करता है, जो मानवता के लिए मार्गदर्शन का स्रोत है। यह हमें सिखाता है कि सत्य का ज्ञान समय के साथ संरक्षित किया जाना चाहिए।

श्लोक 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥2॥

अर्थ: “इस प्रकार यह योग (ज्ञान) परंपरा के द्वारा राजर्षियों ने जाना था। परंतु, हे परंतप (अर्जुन)! काल के प्रभाव से यह योग (ज्ञान) इस संसार में नष्ट हो गया।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग की प्राचीन परंपरा की निरंतरता और उसके लुप्त होने की बात स्पष्ट करते हैं। यह योग, जो विवस्वान से मनु और इक्ष्वाकु तक गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा संरक्षित था, राजर्षियों (ऋषि और राजा दोनों की गुणवत्ता वाले व्यक्तियों) द्वारा ग्रहण किया गया। किंतु समय के प्रभाव और मानव की अज्ञानता के कारण यह ज्ञान धीरे-धीरे लुप्त हो गया। यह श्लोक सत्य के संरक्षण की चुनौती और ज्ञान के पुनर्जनन की आवश्यकता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि आध्यात्मिक ज्ञान को जीवित रखने के लिए सतत प्रयास और समर्पण जरूरी है।

श्लोक 3

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥3॥

अर्थ: “वही पुरातन योग आज मैंने तुमसे कहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह योग अत्यंत गूढ़ रहस्य है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को इस प्राचीन योग को पुनः प्रकट करने का कारण बताते हैं। अर्जुन को उनका भक्त और मित्र होने के कारण यह गहन ज्ञान प्रदान किया गया। यह योग, जो समय के साथ लुप्त हो गया था, एक उत्तम रहस्य है, जिसे केवल समर्पित और योग्य शिष्य ही ग्रहण कर सकता है। यह श्लोक गुरु-शिष्य संबंध की पवित्रता और विश्वास को दर्शाता है। साथ ही, यह सिखाता है कि आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए भक्ति, विश्वास और सच्चाई आवश्यक हैं। अर्जुन का चयन इस ज्ञान के प्रति उसकी योग्यता को दर्शाता है।

श्लोक 4

अर्जुन उवाच।
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः ।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥4॥

अर्थ: “अर्जुन ने पूछा: आपका जन्म तो अभी हुआ है और विवस्वान (सूर्य) का जन्म बहुत पहले हुआ था, फिर आपने पहले यह ज्ञान उन्हें कैसे दिया? यह मैं कैसे समझूं?”

व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण के कथन पर संदेह व्यक्त करते हैं। उन्हें आश्चर्य है कि श्रीकृष्ण, जो उनके समकालीन हैं, ने सृष्टि के प्रारंभ में विवस्वान को योग कैसे सिखाया। यह प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और तर्क का प्रतीक है। अर्जुन का संदेह स्वाभाविक है, क्योंकि वे श्रीकृष्ण को केवल मानव रूप में देख रहे हैं। यह प्रश्न श्रीकृष्ण को उनके दैवीय स्वरूप और अवतार सिद्धांत को स्पष्ट करने का अवसर देता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सत्य को समझने के लिए खुले मन से प्रश्न करना और गुरु से मार्गदर्शन लेना आवश्यक है।

श्लोक 5

श्रीभगवानुवाच।
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥5॥

अर्थ: “श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म हो चुके हैं। मुझे वे सभी स्मरण हैं, परन्तु तुम उन्हें नहीं जानते।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन के संदेह का समाधान करते हुए अपने दैवीय स्वरूप को प्रकट करते हैं। वे बताते हैं कि उनकी और अर्जुन की आत्माएँ कई जन्मों से चली आ रही हैं, किंतु श्रीकृष्ण को अपने सभी जन्मों का ज्ञान है, जबकि अर्जुन को नहीं। यह उनके ईश्वरीय चेतना और सर्वज्ञता को दर्शाता है। यह श्लोक आत्मा की अमरता और पुनर्जनन के सिद्धांत को भी स्पष्ट करता है। यह हमें सिखाता है कि ईश्वर की लीलाएँ मानव बुद्धि से परे हैं, और विश्वास के साथ उनके मार्गदर्शन को स्वीकार करना चाहिए।

श्लोक 6

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥6॥

अर्थ: “यद्यपि मैं अजन्मा, अविनाशी और समस्त जीवों का स्वामी हूँ, फिर भी मैं अपनी प्रकृति (माया) के माध्यम से प्रकट होता हूँ।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने अवतार के रहस्य को और गहराई से समझाते हैं। वे अजन्मा, अविनाशी और सभी प्राणियों के नियंता हैं, किंतु अपनी दैवीय माया के द्वारा मानव रूप में प्रकट होते हैं। यह प्रकट होना उनकी इच्छा और प्रकृति के अधीन है, जो उनकी सर्वशक्तिमत्ता को दर्शाता है। यह श्लोक अवतार सिद्धांत को स्पष्ट करता है, जिसमें ईश्वर मानव कल्याण के लिए स्वेच्छा से सांसारिक रूप धारण करता है। यह हमें सिखाता है कि ईश्वरीय शक्ति और माया के सामने मानव की बुद्धि सीमित है, और विश्वास ही सत्य को समझने का मार्ग है।

श्लोक 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥7॥

अर्थ: “हे भारत (अर्जुन)! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं प्रकट होता हूँ।”

व्याख्या: यह श्लोक श्रीकृष्ण के अवतार के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। वे बताते हैं कि जब संसार में धर्म (नैतिकता, सत्य, और न्याय) का पतन होता है और अधर्म (अन्याय, पाप) बढ़ता है, तब वे अवतार लेकर संतुलन स्थापित करते हैं। यह श्लोक ईश्वर की करुणा और विश्व कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि धर्म का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है, और ईश्वर सदा सत्य और न्याय की रक्षा के लिए उपस्थित हैं। यह श्लोक गीता के सबसे प्रसिद्ध श्लोकों में से एक है, जो प्रेरणादायक है।

श्लोक 8

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥8॥

अर्थ: “मैं साधुजनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए युग-युग में प्रकट होता हूँ।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने अवतार के तीन मुख्य उद्देश्यों को रेखांकित करते हैं: साधुओं (सज्जनों) की रक्षा, दुष्टों (पापियों) का विनाश, और धर्म की पुनःस्थापना। यह श्लोक ईश्वर के सक्रिय और करुणामय स्वरूप को दर्शाता है, जो युग-युग में मानवता के कल्याण के लिए कार्य करता है। यह हमें विश्वास दिलाता है कि सत्य और धर्म की सदा विजय होती है। साथ ही, यह हमें प्रेरित करता है कि हम अपने जीवन में धर्म का पालन करें और सज्जनता को अपनाएँ, क्योंकि ईश्वर सदा सत्य का साथ देता है।

श्लोक 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥9॥

अर्थ: “हे अर्जुन, जो मेरे जन्म और कर्मों को उनके दिव्य स्वरूप में तत्त्वतः जान लेता है, वह देह त्यागने के बाद पुनर्जन्म नहीं लेता और मुझे प्राप्त करता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने जन्म और कर्मों के दैवीय स्वरूप को समझने की महत्ता बताते हैं। उनका जन्म और कर्म सांसारिक नहीं, बल्कि दिव्य और मायामय हैं। जो व्यक्ति इस सत्य को तत्त्वतः समझ लेता है, वह अज्ञानता के बंधनों से मुक्त हो जाता है। ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद पुनर्जन्म के चक्र से छूटकर परमात्मा में लीन हो जाता है। यह श्लोक आत्मज्ञान और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का मार्ग दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान ही मुक्ति का द्वार है।

श्लोक 10

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥10॥

अर्थ: “राग, भय और क्रोध से रहित होकर, मेरे में मन लगाकर, मेरे शरणागत होकर, बहुत से व्यक्ति ज्ञान की तपस्या से शुद्ध होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण भक्ति और ज्ञान के संयुक्त मार्ग को रेखांकित करते हैं। जो लोग राग (आसक्ति), भय और क्रोध से मुक्त होकर परमात्मा की शरण लेते हैं और ज्ञान व तपस्या के माध्यम से अपने मन को शुद्ध करते हैं, वे ईश्वर के स्वरूप को प्राप्त करते हैं। यह श्लोक भक्ति, वैराग्य और आत्म-शुद्धि के महत्व को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सांसारिक मोह और विकारों को त्यागकर, ईश्वर में पूर्ण निष्ठा और तप के द्वारा मुक्ति संभव है।

श्लोक 11

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥11॥

अर्थ: “हे पार्थ! जो जैसे मेरी शरण लेते हैं, मैं वैसे ही उन्हें फल देता हूँ। सब मनुष्य मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ईश्वर की निष्पक्षता और करुणा को व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं कि भक्त जिस भाव, विश्वास या मार्ग से उनकी उपासना करते हैं, ईश्वर उसी के अनुरूप उन्हें फल प्रदान करते हैं। चाहे कोई भक्ति, ज्ञान, कर्म या अन्य मार्ग से आए, सभी अंततः परमात्मा की ओर ही जाते हैं। यह श्लोक ईश्वर की सर्वग्राह्यता और सभी धर्मों के प्रति उनकी समानता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति और निष्ठा ही ईश्वर तक पहुँचने का साधन है।

श्लोक 12

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः ।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥12॥

अर्थ: “इस संसार में जो लोग कर्मों से प्राप्त होने वाली सिद्धि की इच्छा करते हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं; क्योंकि मनुष्य लोक में कर्म से प्राप्त होने वाली सिद्धि शीघ्र मिलती है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण सांसारिक इच्छाओं और कर्मों के फल की त्वरित प्रकृति को समझाते हैं। लोग भौतिक सुख, समृद्धि या अन्य सिद्धियों के लिए विभिन्न देवताओं की उपासना करते हैं, क्योंकि कर्मों का फल मानव जीवन में शीघ्र प्राप्त होता है। यह श्लोक यह भी संकेत करता है कि ऐसी उपासना अस्थायी और सांसारिक फल देती है, जो मुक्ति से भिन्न है। यह हमें सिखाता है कि सांसारिक इच्छाओं के बजाय परमात्मा की भक्ति और निष्काम कर्म ही सच्चे और शाश्वत सुख का मार्ग हैं।

श्लोक 13

चातुर्वर्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥13॥

अर्थ: “चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) को मैंने गुण और कर्म के आधार पर बनाया है। यद्यपि मैं उसका कर्ता हूँ, फिर भी तू मुझे अकर्ता, अविनाशी जान।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण सामाजिक व्यवस्था के रूप में चातुर्वर्ण्य (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की रचना का उल्लेख करते हैं, जो गुण (स्वभाव) और कर्म (कर्तव्य) पर आधारित है। यह व्यवस्था व्यक्ति की प्रकृति और कार्यक्षमता के अनुसार समाज को संगठित करती है। साथ ही, वे स्पष्ट करते हैं कि यद्यपि वे इस सृष्टि के रचयिता हैं, फिर भी वे अकर्ता और अविनाशी हैं, क्योंकि उनकी माया ही सृष्टि का संचालन करती है, वे हमें सिखाते हैं कि कर्म और गुण के आधार पर समाज को व्यवस्थित करने की आवश्यकता है। यह श्लोक सामाजिक दायित्व और कर्तव्य के महत्व को दर्शाता है।

श्लोक 14

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥14॥

अर्थ: “मुझे कर्म बांधते नहीं और न ही कर्मों के फलों में मेरी कोई इच्छा है। जो व्यक्ति इस प्रकार मुझे जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपने अविनाशी और निर्लिप्त स्वरूप को रेखांकित करते हैं। वे कहते हैं कि वे कर्मों से प्रभावित नहीं होते और न ही कर्मों के फल में उनकी रुचि है। जो व्यक्ति इस सत्य को समझ लेता है कि ईश्वर कर्मों से परे हैं और कर्म निष्काम भाव से करने चाहिए, वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है। यह श्लोक निष्काम कर्मयोग की महत्ता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि कर्तव्य को बिना फल की इच्छा के करना ही मुक्ति का मार्ग है।

श्लोक 15

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्॥15॥

अर्थ: “इस प्रकार जानकर प्राचीन मुमुक्षु (मोक्ष की इच्छा रखने वाले) जनों ने भी कर्म किया है, इसलिए तू भी पूर्वजों द्वारा किए गए कर्म को कर।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को कर्म की प्राचीन परंपरा का अनुसरण करने का उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि पूर्व के मुमुक्षु (मुक्ति की इच्छा रखने वाले) लोगों ने इस ज्ञान को समझकर कर्म किए। यह कर्म निष्काम भाव से और कर्तव्य के रूप में किए गए थे। श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वे भी इसी मार्ग पर चलें। यह श्लोक कर्मयोग की निरंतरता और प्राचीन ऋषियों के उदाहरण के महत्व को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि कर्तव्य पालन और निष्काम कर्म ही जीवन का आधार है।

श्लोक 16

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥16॥

अर्थ: “क्या कर्म है और क्या अकर्म है, इस विषय में बुद्धिमान व्यक्ति भी भ्रम में पड़ जाते हैं। मैं तुझे वह कर्म बताऊँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जाएगा।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्म और अकर्म की जटिलता को उजागर करते हैं। कर्म (क्रिया) और अकर्म (निष्क्रियता) का सही स्वरूप समझना कठिन है, क्योंकि यहाँ कर्म का अर्थ निष्काम कर्म और अकर्म का अर्थ आंतरिक वैराग्य है। यह भ्रम विद्वानों को भी हो सकता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को इस रहस्य को समझाने का वचन देते हैं, जिससे वह बंधनों से मुक्त हो सके। यह श्लोक ज्ञान और कर्म के समन्वय की आवश्यकता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सही समझ के साथ कर्म करना ही मुक्ति का मार्ग है।

श्लोक 17

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥17॥

अर्थ: “कर्म को, विकर्म (पाप कर्म) को और अकर्म (कर्म न करना या निष्क्रियता) को भी समझना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति (स्वरूप) अत्यंत गूढ़ है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्म की गहन प्रकृति को और स्पष्ट करते हैं। कर्म (कर्तव्य), विकर्म (निषिद्ध कर्म) और अकर्म (निष्क्रियता या वैराग्य) के स्वरूप को समझना आवश्यक है। कर्म की गति जटिल है, क्योंकि सही और गलत कर्म का भेद सूक्ष्म होता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि बिना ज्ञान के कर्म करना बंधन का कारण बन सकता है, जबकि सही समझ के साथ कर्म करना मुक्ति की ओर ले जाता है। यह विवेक और आत्म-चिंतन की आवश्यकता को रेखांकित करता है ताकि कर्म का सही मार्ग चुना जाए।

श्लोक 18

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥18॥

अर्थ: “जो व्यक्ति कर्म में अकर्म (निष्कामता) को और अकर्म में कर्म (प्रभाव) को देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान है और योगयुक्त होकर समस्त कर्म करता है।”

व्याख्या: यह श्लोक कर्मयोग का सूक्ष्म दर्शन प्रस्तुत करता है। जो व्यक्ति कर्म (कर्तव्य) में निष्कामता और अकर्म (निष्क्रियता) में कर्तव्य की भावना को समझ लेता है, वही सच्चा बुद्धिमान और योगी है। अर्थात्, कर्म को बिना फल की इच्छा के करना और निष्क्रियता में भी कर्तव्य का बोध रखना योग है। ऐसा व्यक्ति सभी कर्म करता हुआ भी बंधन में नहीं पड़ता। यह श्लोक हमें सिखाता है कि कर्म का सही स्वरूप समझने और निष्काम भाव से कार्य करने से ही जीवन में संतुलन और मुक्ति प्राप्त होती है।

श्लोक 19

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥19॥

अर्थ: “जिसके सभी कार्य कामना और संकल्प से रहित हैं, और जिसके कर्म ज्ञान की अग्नि में भस्म हो चुके हैं, ऐसे व्यक्ति को ज्ञानीजन पंडित कहते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण निष्काम कर्म और ज्ञान के प्रभाव को रेखांकित करते हैं। जो व्यक्ति अपने कार्यों को इच्छा और व्यक्तिगत संकल्प से मुक्त रखता है, और जिसके कर्म आत्मज्ञान की अग्नि में जलकर भस्म हो जाते हैं, वह सच्चा पण्डित है। यहाँ ज्ञानाग्नि अज्ञानता और आसक्ति को नष्ट करती है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान और निष्काम कर्म मनुष्य को बंधनों से मुक्त करते हैं। यह हमें प्रेरित करता है कि कार्यों को ईश्वर को समर्पित कर और ज्ञान के साथ करना चाहिए।

श्लोक 20

त्यक्त्वा कर्मफलासर्फ नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥20॥

अर्थ: “जो व्यक्ति कर्मों के फल से आसक्त नहीं है, सदा संतुष्ट रहता है, और किसी पर निर्भर नहीं है, वह कर्म करता हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोगी के लक्षण बताते हैं। ऐसा व्यक्ति कर्मफल की इच्छा से मुक्त, आत्मतृप्त और बाहरी सहारे से स्वतंत्र होता है। वह कर्म करता है, परंतु मन से निष्क्रिय रहता है, अर्थात् वह कर्म के बंधन में नहीं पड़ता। यह श्लोक कर्म और वैराग्य के समन्वय को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि कर्तव्य को बिना स्वार्थ के और पूर्ण समर्पण के साथ करना चाहिए। ऐसा व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार के प्रभाव से मुक्त रहता है।

श्लोक 21

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥21॥

अर्थ: “जो व्यक्ति निराशा (फल की अपेक्षा से रहित), संयमित चित्त वाला और सर्व प्रकार के संग्रह से रहित है, वह केवल शरीर के निर्वाह हेतु कर्म करता है और पाप को प्राप्त नहीं होता।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण उस व्यक्ति के गुणों का वर्णन करते हैं जो कर्म के बंधन से मुक्त है। ऐसा व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त, मन और आत्मा को नियंत्रित, और सांसारिक संपत्ति का त्यागी होता है। वह केवल शारीरिक स्तर पर कर्तव्य करता है, जिससे उसे पाप या कर्म-बंधन नहीं होता। यह श्लोक वैराग्य और आत्मसंयम की महत्ता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि मन की शुद्धता और इच्छाओं का त्याग कर्म को पवित्र बनाता है, जिससे जीवन में शांति और मुक्ति प्राप्त होती है।

श्लोक 22

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ॥22॥

अर्थ: “योगयुक्त व्यक्ति, जो कर्मफल का त्याग कर देता है, परम शांति प्राप्त करता है। लेकिन जो अयुक्त (असंयमी) है, वह फल की कामना से कर्म करता है और बंध जाता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोगी के आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं। ऐसा व्यक्ति जो कुछ प्राप्त होता है, उसमें संतुष्ट रहता है, सुख-दुख जैसे द्वंद्वों से ऊपर है, दूसरों से ईर्ष्या नहीं करता, और सफलता-विफलता में समभाव रखता है। वह कर्म करता है, पर बंधन में नहीं पड़ता। यह श्लोक समता, संतोष और वैराग्य के महत्व को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन के उतार-चढ़ाव में संतुलन बनाए रखना और निष्काम भाव से कर्म करना ही सच्ची स्वतंत्रता और शांति का मार्ग है।

श्लोक 23

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥23॥

अर्थ: “जो व्यक्ति आसक्ति से मुक्त, ज्ञान में स्थिर और यज्ञ के लिए कर्म करता है, उसके सभी कर्म पूर्णतः विलीन हो जाते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोगी के लक्षण बताते हैं। ऐसा व्यक्ति सांसारिक आसक्ति से मुक्त, आत्मज्ञान में स्थिर और अपने कर्मों को यज्ञ (ईश्वर को समर्पण) के रूप में करता है। उसके कर्म बंधन उत्पन्न नहीं करते, बल्कि पूर्णतः विलीन हो जाते हैं, अर्थात् वे कर्म-फल से मुक्त हो जाते हैं। यह श्लोक कर्म, ज्ञान और भक्ति के समन्वय को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि कर्म को ईश्वर को समर्पित कर और ज्ञान के साथ करना चाहिए, ताकि वे बंधन का कारण न बनें, बल्कि मुक्ति का मार्ग बनें।

श्लोक 24

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥24॥

अर्थ: “अर्पण ब्रह्म है, हवि (आहुति) ब्रह्म है, ब्रह्मरूपी अग्नि में ब्रह्मरूपी पुरुष द्वारा आहुति दी जाती है। जो ब्रह्मरूपी कर्म में समाधिस्थ है, वह ब्रह्म को ही प्राप्त करता है।”

व्याख्या: यह श्लोक कर्म को ब्रह्म के साथ एकरूप करने का गहन दर्शन प्रस्तुत करता है। यहाँ यज्ञ का प्रत्येक तत्व—अर्पण, हवि, अग्नि और कर्ता—ब्रह्मरूपी है। जो व्यक्ति सभी कर्मों को ब्रह्म के प्रति समर्पित कर समाधि में लीन रहता है, वह ब्रह्म को प्राप्त करता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि संसार में सभी कुछ परमात्मा का स्वरूप है। कर्म को ब्रह्मार्पण की भावना से करने से वह सांसारिक बंधन से मुक्त होकर आध्यात्मिक उत्थान का साधन बनता है। यह एकत्व और समर्पण का मार्ग है।

श्लोक 25

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥25॥

अर्थ: “कुछ योगी देवताओं की उपासना को यज्ञ मानते हैं, जबकि अन्य ब्रह्मरूप अग्नि में आत्म-यज्ञ (स्वयं को समर्पित करना) करते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन करते हैं। कुछ योगी बाह्य रूप से देवताओं की पूजा और यज्ञ करते हैं, जबकि अन्य योगी आत्मज्ञान के मार्ग पर चलकर अपने यज्ञ (कर्म) को ब्रह्मरूपी अग्नि में समर्पित करते हैं। यहाँ दूसरा मार्ग ज्ञानयोग और आत्म-समर्पण को दर्शाता है, जहाँ यज्ञ स्वयं का ज्ञानमय कर्म बन जाता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि यज्ञ का स्वरूप केवल बाह्य अनुष्ठान तक सीमित नहीं है; यह आंतरिक शुद्धि और समर्पण का भी प्रतीक है, जो मुक्ति की ओर ले जाता है।

श्लोक 26

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति ॥26॥

अर्थ: “कुछ साधक अपने इन्द्रियों (जैसे कान, आंख, आदि) को संयम की अग्नि में अर्पण करते हैं, और कुछ इन्द्रियों के विषयों (ध्वनि, रूप आदि) को इन्द्रियों की अग्नि में अर्पण करते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण इंद्रिय-संयम के यज्ञ का वर्णन करते हैं। कुछ योगी अपनी इंद्रियों (श्रोत्र, चक्षु आदि) को संयम और आत्मनियंत्रण की अग्नि में समर्पित करते हैं, जबकि अन्य सांसारिक विषयों (शब्द, रूप आदि) को इंद्रियों की अग्नि में जलाकर नष्ट करते हैं। दोनों ही प्रक्रियाएँ मन की शुद्धि और इंद्रियों पर नियंत्रण का प्रतीक हैं। यह श्लोक हमें सिखाता है कि आत्मसंयम और विषयों से वैराग्य के द्वारा मनुष्य अपने मन को शुद्ध कर सकता है, जो आध्यात्मिक प्रगति का आधार है।

श्लोक 27

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥27॥

अर्थ: “कुछ अन्य साधक अपने सभी इन्द्रिय कर्मों और प्राण कर्मों को आत्मसंयम रूप अग्नि में, ज्ञान रूपी प्रकाश से युक्त होकर, आहुति स्वरूप समर्पित करते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मसंयम और ज्ञान के उच्च स्तर के यज्ञ की बात करते हैं। कुछ योगी अपनी इंद्रियों और प्राणों (जीवन-शक्ति) के सभी कार्यों को आत्मसंयम और योग की अग्नि में समर्पित करते हैं, जो ज्ञान से प्रज्ज्वलित होती है। यह प्रक्रिया मन, इंद्रियों और प्राणों को पूर्णतः नियंत्रित कर आत्मा की शुद्धि का प्रतीक है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि ज्ञान और संयम के संयोजन से मनुष्य अपनी सांसारिक प्रवृत्तियों को जलाकर आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो सकता है।

श्लोक 28

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥28॥

अर्थ: “कुछ लोग द्रव्य (धन) यज्ञ, कुछ तपस्या यज्ञ, कुछ योग यज्ञ, और कुछ स्वाध्याय (शास्त्र अध्ययन) तथा ज्ञान यज्ञ करते हैं — ये सब यति (संयमी) लोग होते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण विभिन्न प्रकार के यज्ञों का उल्लेख करते हैं जो साधक करते हैं। ये हैं: द्रव्य-यज्ञ (धन-द्रव्य से यज्ञ), तप-यज्ञ (तपस्या), योग-यज्ञ (योग और ध्यान), और स्वाध्याय-ज्ञान-यज्ञ (शास्त्रों का अध्ययन और ज्ञान-साधना)। ये साधक कठोर व्रतों और संयम से युक्त होते हैं। यह श्लोक हमें सिखाता है कि यज्ञ का स्वरूप विविध हो सकता है, पर सभी का उद्देश्य मन की शुद्धि और ईश्वर की प्राप्ति है। यह हमें प्रेरित करता है कि अपने सामर्थ्य के अनुसार साधना चुनकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलें।

श्लोक 29

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥29॥

अर्थ: “कुछ साधक अपान में प्राण को और कुछ प्राण में अपान को आहुति देते हैं, और कुछ प्राणायाम के अभ्यास में प्राण और अपान की गति को रोकते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण प्राणायाम के यज्ञ का वर्णन करते हैं। कुछ योगी श्वास (प्राण) और निःश्वास (अपान) को एक-दूसरे में समर्पित करते हैं और प्राणायाम के माध्यम से दोनों की गति को नियंत्रित करते हैं। यह प्रक्रिया मन और प्राणों को शांत कर ध्यान की गहरी अवस्था में ले जाती है। यह श्लोक प्राणायाम की आध्यात्मिक शक्ति को दर्शाता है, जो मन की एकाग्रता और आत्म-नियंत्रण का साधन है। यह हमें सिखाता है कि शारीरिक और मानसिक संयम के द्वारा आध्यात्मिक प्रगति संभव है।

श्लोक 30

अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥30॥

अर्थ: “अन्य साधक नियमित आहार वाले होते हैं और वे अपने प्राणों को प्राणों में ही आहुति देते हैं। ये सभी यज्ञ को जानने वाले लोग हैं और यज्ञ द्वारा उनके पाप नष्ट हो जाते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण संयमित आहार और प्राणों के यज्ञ का उल्लेख करते हैं। कुछ साधक नियंत्रित भोजन के साथ अपने प्राणों को प्राणों में ही समर्पित करते हैं, जो आत्मसंयम और साधना का प्रतीक है। ये सभी साधक यज्ञों के स्वरूप को समझते हैं और यज्ञ के माध्यम से अपने पापों और अशुद्धियों को नष्ट करते हैं। यह श्लोक यज्ञ की व्यापकता और जीवन के प्रत्येक पहलू में संयम की महत्ता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि साधना और संयम से जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाया जा सकता है।

श्लोक 31

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥31॥

अर्थ: “हे कुरुसत्तम (अर्जुन), जो लोग यज्ञ के शेष अमृत (प्रसाद) का भोग करते हैं, वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। यज्ञ न करने वाले को यह लोक भी सुखदायी नहीं है, फिर परलोक की तो बात ही क्या?”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण यज्ञ की महत्ता को रेखांकित करते हैं। जो लोग यज्ञ के फलस्वरूप प्राप्त अमृत (प्रसाद) का भोग करते हैं, वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त करते हैं। यज्ञ जीवन को शुद्ध और सार्थक बनाता है। इसके विपरीत, जो यज्ञ नहीं करते, उनके लिए यह संसार भी सुखदायी नहीं है, परलोक की तो बात ही दूर। यह श्लोक यज्ञ को जीवन का आधार बताता है, जो कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वय है। यह हमें सिखाता है कि निःस्वार्थ कर्म और समर्पण के बिना जीवन अधूरा है।

श्लोक 32

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥32॥

अर्थ: “ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञ ब्रह्म के मुख से प्रकट हुए हैं। उन्हें कर्मजन्य (कर्म से उत्पन्न) जानो और इस प्रकार समझकर तुम पापों से मुक्त हो जाओगे।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण यज्ञों की विविधता का उल्लेख करते हैं, जो वेदों में वर्णित हैं। ये यज्ञ—द्रव्य, तप, योग, ज्ञान आदि—सभी कर्म से उत्पन्न होते हैं। श्रीकृष्ण अर्जुन को इन यज्ञों का सही स्वरूप समझने और कर्म की भूमिका को जानने का उपदेश देते हैं। यह ज्ञान मनुष्य को बंधनों से मुक्त करता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि यज्ञ केवल बाह्य अनुष्ठान नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक कर्म को समर्पण और शुद्धता के साथ करना है, जो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।

श्लोक 33

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप ।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥33॥

अर्थ: “हे परंतप अर्जुन! द्रव्य (वस्तु) से किए गए यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि समस्त कर्म अंततः ज्ञान में ही समाप्त हो जाते हैं।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ज्ञान-यज्ञ की श्रेष्ठता को स्थापित करते हैं। द्रव्य-यज्ञ (भौतिक वस्तुओं से यज्ञ) की तुलना में ज्ञान-यज्ञ (आत्मज्ञान और शास्त्रों का अध्ययन) अधिक श्रेष्ठ है, क्योंकि यह मन को शुद्ध और आत्मा को जागृत करता है। सभी कर्म, चाहे वे कितने भी पुण्य क्यों न हों, अंततः ज्ञान में समाहित हो जाते हैं। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान ही कर्मों का अंतिम लक्ष्य है, जो मनुष्य को अज्ञानता के बंधनों से मुक्त कर परम सत्य तक ले जाता है।

श्लोक 34

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥34॥

अर्थ: “उस (ज्ञान) को गुरु के पास जाकर विनम्रता, प्रश्न पूछने और सेवा भाव से जानो। वे ज्ञानवान और तत्वदर्शी तुम्हें ज्ञान की शिक्षा देंगे।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ज्ञान प्राप्ति का मार्ग बताते हैं। सच्चा ज्ञान तत्त्वदर्शी गुरुओं से ही प्राप्त होता है। इसके लिए शिष्य को प्रणिपात (नम्रता), परिप्रश्न (जिज्ञासा) और सेवा (समर्पण) के साथ गुरु की शरण लेनी चाहिए। यह श्लोक गुरु-शिष्य परंपरा की महत्ता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि ज्ञान प्राप्ति के लिए नम्रता, उत्सुकता और समर्पण आवश्यक हैं। केवल सही मार्गदर्शन से ही मनुष्य अज्ञानता के अंधकार से मुक्त होकर आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो सकता है।

श्लोक 35

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥35॥

अर्थ: “हे पाण्डव! जब तुम उस ज्ञान को जान लोगे, तब फिर कभी ऐसे मोह में नहीं पड़ोगे और उस ज्ञान से तुम समस्त प्राणियों को आत्मा में और फिर मुझमें देख सकोगे।”

व्याख्या: यह श्लोक एकत्व के दर्शन को प्रस्तुत करता है, जहाँ आत्मा और परमात्मा का अभेद समझ में आता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान न केवल व्यक्तिगत मोह को नष्ट करता है, बल्कि सभी प्राणियों में एक ही चेतना को देखने की दृष्टि प्रदान करता है।

श्लोक 36

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि ॥36॥

अर्थ: “यदि तुम सबसे पापी भी हो, तो भी ज्ञान की नौका से तुम समस्त पापों को पार कर सकते हो।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ज्ञान की सर्वशक्तिमान शक्ति को रेखांकित करते हैं। वे कहते हैं कि चाहे व्यक्ति कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, आत्मज्ञान की नाव उसे सभी पापों के सागर से पार करा सकती है। यह श्लोक ज्ञान की परिवर्तनकारी शक्ति और करुणा को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका अतीत कैसा भी हो, सच्चे ज्ञान और आत्म-चिंतन के द्वारा अपने जीवन को शुद्ध कर सकता है और मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 37

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥37॥

अर्थ: “जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ज्ञान की अग्नि की तुलना प्रज्वलित अग्नि से करते हैं। जैसे अग्नि लकड़ी को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही आत्मज्ञान अज्ञानता और कर्म-बंधनों को नष्ट कर देता है। यह श्लोक ज्ञान की सर्वनाशक शक्ति को दर्शाता है, जो मनुष्य को कर्मों के फल और अज्ञान के बंधनों से मुक्त करता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान मन और आत्मा को शुद्ध करता है, जिससे व्यक्ति बंधनों से मुक्त होकर परम शांति और मुक्ति प्राप्त करता है।

श्लोक 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥38॥

अर्थ: “इस संसार में ज्ञान के समान कोई पवित्र वस्तु नहीं है। योग में सिद्धि प्राप्त व्यक्ति इसे समय के साथ अपने आप अपने भीतर प्राप्त करता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ज्ञान को सर्वोच्च और पवित्र बताते हैं। संसार में कोई भी वस्तु ज्ञान जितनी शुद्ध और मुक्तिदायी नहीं है। जो व्यक्ति योग (कर्म, भक्ति, या ध्यान) में सिद्धि प्राप्त करता है, वह समय के साथ स्वयं अपने भीतर इस ज्ञान को अनुभव करता है। यह श्लोक साधना और धैर्य की महत्ता को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि निरंतर साधना और समर्पण के द्वारा मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है, जो जीवन को पवित्र और सार्थक बनाता है।

श्लोक 39

श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥39॥

अर्थ: “श्रद्धावान्, इंद्रियों को संयमित रखने वाला और ज्ञान में लगे रहने वाला व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करता है। जब वह ज्ञान प्राप्त कर लेता है, तब शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक गुणों का वर्णन करते हैं। श्रद्धा (विश्वास), तत्परता (समर्पण), और इंद्रिय-संयम ज्ञान प्राप्ति के आधार हैं। ऐसा व्यक्ति जो इन गुणों से युक्त है, वह आत्मज्ञान प्राप्त करता है, जो उसे परम शांति प्रदान करता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान केवल बौद्धिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और अनुभवजन्य है। श्रद्धा और संयम के बिना ज्ञान अधूरा है। यह हमें प्रेरित करता है कि जीवन में विश्वास और अनुशासन के साथ साधना करें, जो शांति और मुक्ति का मार्ग है।

श्लोक 40

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥40॥

अर्थ: “जो अज्ञानी है, जिसमें श्रद्धा नहीं है, और जिसकी आत्मा में संदेह है, वह नष्ट हो जाता है। संशयात्मा (संदेह करने वाले) को न तो यह लोक मिलता है, न परलोक, और न ही उसे सुख प्राप्त होता है।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अज्ञान, श्रद्धाहीनता और संशय के विनाशकारी प्रभाव को रेखांकित करते हैं। जो व्यक्ति अज्ञानी, अविश्वासी और संदेह से भरा है, वह आध्यात्मिक और सांसारिक दोनों दृष्टियों से नष्ट हो जाता है। संशय मन को अस्थिर करता है, जिससे न तो सांसारिक सुख प्राप्त होता है और न ही परलोक में मुक्ति। यह श्लोक हमें सिखाता है कि ज्ञान, श्रद्धा और निश्चय के बिना जीवन दिशाहीन हो जाता है। यह हमें प्रेरित करता है कि संदेहों को गुरु के मार्गदर्शन से दूर करें और श्रद्धा के साथ सत्य की खोज करें।

श्लोक 41

योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय ॥41॥

अर्थ: “हे धनंजय! जिसका समस्त कर्म योग द्वारा त्याग दिया गया है, जिसका संदेह ज्ञान द्वारा नष्ट हो गया है, और जो आत्म-नियंत्रित है—ऐसे व्यक्ति को कर्म बंधन में नहीं डालते।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग और ज्ञान के संयुक्त प्रभाव को बताते हैं। जो व्यक्ति योग (निष्काम कर्म और समर्पण) के द्वारा कर्मों का त्याग करता है और ज्ञान के द्वारा अपने संदेहों का नाश करता है, वह आत्मा में स्थिर हो जाता है। ऐसा व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त रहता है। यह श्लोक कर्मयोग और ज्ञानयोग के समन्वय को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सही दृष्टिकोण और ज्ञान के साथ कर्म करने से मनुष्य बंधनों से मुक्त हो सकता है और आत्मिक शांति प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ॥42॥

अर्थ: “इसलिए, हे भारत! अपने हृदय में स्थित अज्ञान से उत्पन्न इस संशय को ज्ञान रूपी तलवार से काट डालो और योग में स्थित होकर खड़े हो जाओ।”

व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को अंतिम उपदेश देते हैं। वे कहते हैं कि अज्ञान से उत्पन्न संदेह, जो हृदय में निवास करते हैं, को ज्ञानरूपी तलवार से नष्ट कर देना चाहिए। इसके पश्चात् अर्जुन को योग (कर्मयोग) में स्थिर होकर अपने कर्तव्य के लिए तैयार होना चाहिए। यह श्लोक ज्ञान की शक्ति और कर्मयोग की प्रेरणा को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि संदेह और भय को ज्ञान के बल पर दूर कर, हमें अपने कर्तव्यों का निर्वाह निश्चय और साहस के साथ करना चाहिए।


श्रीमद् भागवत गीता के चौथे अध्याय सारांश

“ज्ञान-कर्म-संन्यास योग” नामक यह अध्याय भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को आत्मज्ञान, ईश्वर की महिमा, और कर्म से मुक्ति के रहस्य को समझाने वाला अत्यंत गूढ़ और दिव्य अध्याय है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को योग की प्राचीन परंपरा का वर्णन करते हैं, जो विवस्वान से शुरू होकर समय के साथ लुप्त हो गई थी। वे अपने अवतार के उद्देश्य—धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश—को स्पष्ट करते हैं। अध्याय निष्काम कर्मयोग पर बल देता है, जिसमें कर्म फल की इच्छा के बिना किए जाते हैं। ज्ञान को सर्वोच्च बताया गया है, जो अज्ञान और संदेहों को नष्ट करता है। सच्चा संन्यास मन और इंद्रियों का संयम है, न कि केवल बाह्य त्याग। विभिन्न यज्ञों (द्रव्य, तप, ज्ञान) का वर्णन करते हुए यह अध्याय सिखाता है कि कर्म और ज्ञान का संतुलन जीवन को मुक्त और सार्थक बनाता है। यह आधुनिक जीवन में भी प्रासंगिक है, जो निःस्वार्थ कर्म, आत्म-शुद्धि और संतुलन का मार्ग दिखाता है।

इस अध्याय की मुख्य शिक्षाएँ:

  • निष्काम कर्म मुक्ति का मार्ग है।
  • ज्ञान अज्ञानता और संदेहों को नष्ट करता है।
  • सच्चा संन्यास आंतरिक वैराग्य है।
  • कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वय जीवन का लक्ष्य है।