श्रीमद्भागवत गीता का पांचवा अध्याय “कर्म संन्यास योग” कहलाता है। यह अध्याय कर्मयोग और संन्यास योग के बीच सामंजस्य स्थापित करने पर केंद्रित है। यह अध्याय अर्जुन के उस संदेह का समाधान करता है कि कर्म (कार्य) और संन्यास (वैराग्य) में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 5: कर्म संन्यास योग (Bhagwat Geeta Chapter 5)
श्रीमद् भागवत गीता का पांचवा अध्याय, “कर्म संन्यास योग” है। यह अध्याय 29 श्लोकों में विभाजित है। चौथे अध्याय में कर्म के महत्व को समझने के बाद, अर्जुन के मन में एक नया संदेह उत्पन्न होता है: क्या कर्मयोग श्रेष्ठ है या संन्यास योग? क्या उसे युद्ध जैसे कर्म में संलग्न होना चाहिए या संसार का त्याग कर संन्यासी बन जाना चाहिए? इस संदेह के जवाब में श्रीकृष्ण पांचवें अध्याय में दोनों मार्गों की समानता और उनके अंतर्निहित उद्देश्य को स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि कर्मयोग और संन्यास योग दोनों ही आत्मा की शुद्धि और परमात्मा से एकत्व की प्राप्ति के साधन हैं, लेकिन कर्मयोग सामान्य व्यक्ति के लिए अधिक व्यावहारिक और सुलभ है।
श्लोक 1
अर्जुन उवाच।
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥1॥
अर्थ: अर्जुन ने कहा, “हे श्रीकृष्ण! आप एक ओर तो कर्मों के त्याग (संन्यास) की प्रशंसा करते हैं और दूसरी ओर कर्मयोग (कर्तव्य पालन) की भी सराहना करते हैं। कृपया निश्चित रूप से बताइए कि इन दोनों में से कौन-सा मार्ग श्रेष्ठ है, जिसे मैं अपनाऊँ।”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन का संदेह स्पष्ट होता है, जो गीता के पांचवें अध्याय का आधार बनता है। वह कर्मसंन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (निष्काम कर्म) के बीच भ्रमित है, क्योंकि श्रीकृष्ण ने दोनों की प्रशंसा की है। अर्जुन यह जानना चाहता है कि इनमें से कौन सा मार्ग निश्चित रूप से श्रेष्ठ है। यह प्रश्न मानव मन की स्वाभाविक जिज्ञासा को दर्शाता है, जो जीवन में स्पष्टता और दिशा चाहता है। श्रीकृष्ण इस संदेह का समाधान अगले श्लोकों में करते हैं, यह स्पष्ट करते हुए कि दोनों मार्ग मोक्ष की ओर ले जाते हैं, लेकिन कर्मयोग अधिक व्यावहारिक है। यह श्लोक कर्म और संन्यास के बीच संतुलन की खोज को रेखांकित करता है।
श्लोक 2
श्रीभगवानुवाच।
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥2॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण बोले “संन्यास (कर्मों का त्याग) और कर्मयोग (निष्काम भाव से कर्म करना) दोनों ही मोक्ष प्रदान करने वाले हैं; परंतु इन दोनों में से कर्मयोग संन्यास से श्रेष्ठ है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन के संदेह का समाधान करते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि संन्यास और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष के मार्ग हैं, क्योंकि दोनों आत्मशुद्धि और परमात्मा से एकत्व की ओर ले जाते हैं। हालांकि, कर्मयोग को वे श्रेष्ठ बताते हैं, क्योंकि यह व्यक्ति को संसार में रहते हुए कर्तव्यों का पालन करने और निष्काम भाव से कार्य करने की प्रेरणा देता है। संन्यास में कर्मों का बाह्य त्याग आवश्यक है, जो सभी के लिए व्यवहारिक नहीं। कर्मयोग सामान्य जन के लिए अधिक सुलभ और जीवन के साथ संनाद करता है। यह श्लोक कर्म और वैराग्य के सामंजस्य पर बल देता है।
श्लोक 3
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥3॥
अर्थ: “हे महाबाहु (अर्जुन)! जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी वस्तु की कामना करता है, वह सदा संन्यासी कहलाने योग्य है। द्वंद्वों (राग-द्वेष आदि) से रहित व्यक्ति सहज ही बंधनों से मुक्त हो जाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण संन्यास की सच्ची परिभाषा देते हैं। सच्चा संन्यासी वह नहीं जो केवल बाह्य रूप से कर्मों का त्याग करता है, बल्कि वह है जो मन से राग-द्वेष से मुक्त है। ऐसा व्यक्ति न किसी से घृणा करता है और न किसी के प्रति आसक्ति रखता है। यह समदृष्टि उसे सुख-दुख, लाभ-हानि जैसे द्वंद्वों से ऊपर उठाती है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति सहजता से संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। यह श्लोक आंतरिक वैराग्य के महत्व को रेखांकित करता है, जो बाह्य संन्यास से अधिक मूल्यवान है।
श्लोक 4
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥4॥
अर्थ: “बुद्धिहीन लोग (अज्ञानी) संन्यास (सांख्य) और कर्मयोग को अलग-अलग समझते हैं, परंतु ज्ञानी लोग ऐसा नहीं मानते। जो व्यक्ति इनमें से किसी एक का भी सही रूप में पालन करता है, वह दोनों के ही फल को प्राप्त कर लेता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण सांख्य (ज्ञान मार्ग या संन्यास) और योग (कर्मयोग) के बीच कथित अंतर को खारिज करते हैं। अज्ञानी लोग इन दोनों को अलग-अलग मार्ग मानते हैं, लेकिन विद्वान जानते हैं कि दोनों का लक्ष्य एक ही है—आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष। जो व्यक्ति कर्मयोग या संन्यास में से किसी एक का भी पूर्ण निष्ठा से पालन करता है, वह दोनों के फल, अर्थात् आत्मशुद्धि और मुक्ति, प्राप्त करता है। यह श्लोक मार्गों की एकता पर जोर देता है और यह सिखाता है कि साधना का भाव और निष्ठा ही महत्वपूर्ण है, न कि मार्ग का बाह्य रूप।
श्लोक 5
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सायं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥5॥
अर्थ: “जो स्थिति (मोक्ष) संन्यास के माध्यम से प्राप्त होती है, वही स्थिति कर्मयोगी भी प्राप्त कर सकता है। जो संन्यास (ज्ञान) और योग (कर्म) को एक रूप में देखता है, वही वास्तव में यथार्थ को जानने वाला है।”
व्याख्या: यह श्लोक पिछले श्लोक के विचार को और स्पष्ट करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सांख्य (संन्यास) और कर्मयोग दोनों ही मोक्ष के समान लक्ष्य तक ले जाते हैं। दोनों मार्गों का अंतिम परिणाम आत्मा का परमात्मा के साथ एकत्व है। जो व्यक्ति इन दोनों को एक ही सत्य के दो पहलू के रूप में देखता है, वही सही दृष्टिकोण रखता है। यह श्लोक मार्गों की एकरूपता पर बल देता है और भक्तों को यह समझाता है कि मार्ग चाहे कोई भी हो, निष्ठा और समर्पण ही साधक को लक्ष्य तक पहुँचाते हैं।
श्लोक 6
संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्य नचिरेणाधिगच्छति ॥6॥
अर्थ: “हे महाबाहु! केवल संन्यास (कर्मों का परित्याग) करना बिना योग (निष्काम कर्म) के कठिन और दुःखदायी होता है। परंतु जो व्यक्ति योगयुक्त होकर कार्य करता है, वह शीघ्र ही ब्रह्म (परम शांति और मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण संन्यास की कठिनाई और कर्मयोग की सहजता पर प्रकाश डालते हैं। बिना कर्मयोग की तैयारी के संन्यास लेना कठिन और दुखदायी हो सकता है, क्योंकि मन की आसक्तियाँ आसानी से नहीं छूटतीं। दूसरी ओर, कर्मयोगी अपने कर्तव्यों को निष्काम भाव से करते हुए मन को शुद्ध करता है और शीघ्र ही परमब्रह्म की प्राप्ति करता है। यह श्लोक कर्मयोग को अधिक व्यावहारिक और प्रभावी मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है, जो साधक को संसार में रहते हुए भी आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।
श्लोक 7
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः ।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥7॥
अर्थ: “जो व्यक्ति योग में स्थिर, शुद्ध अंतःकरण वाला, आत्म-नियंत्रित और इंद्रियों का स्वामी होता है, वह सभी प्राणियों के आत्मा में अपनी आत्मा को देखता है। वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण एक आदर्श कर्मयोगी की विशेषताएँ बताते हैं। ऐसा योगी निष्काम कर्म करता है, उसका मन शुद्ध और इंद्रियाँ नियंत्रित होती हैं। वह सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा को देखता है, जिससे उसमें समदृष्टि विकसित होती है। इस समदृष्टि और निष्काम भाव के कारण वह कर्मों के बंधन में नहीं बँधता। यह श्लोक कर्मयोग की उच्च अवस्था को दर्शाता है, जहाँ व्यक्ति संसार में रहते हुए भी कर्मों से मुक्त रहता है। यह आध्यात्मिक जीवन और कर्तव्य पालन के बीच संतुलन की प्रेरणा देता है।
श्लोक 8 और 9
नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपश्वसन् ॥8॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥9॥
अर्थ: जो तत्वज्ञानी योगी है, वह जानता है कि ‘मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ।’ चाहे वह देख रहा हो, सुन रहा हो, स्पर्श कर रहा हो, सूंघ रहा हो, खा रहा हो, चल रहा हो, सो रहा हो, सांस ले रहा हो, बोल रहा हो, त्याग रहा हो, ग्रहण कर रहा हो या आंखें खोल और मूंद रहा हो — वह यह समझता है कि ये सब क्रियाएँ केवल इंद्रियों द्वारा इंद्रिय-विषयों में हो रही हैं, आत्मा इसमें लिप्त नहीं है।
व्याख्या: श्लोक 8 और 9 कर्मयोगी की आंतरिक अवस्था और आत्मज्ञान को रेखांकित करते हैं। श्रीकृष्ण बताते हैं कि तत्त्वज्ञानी योगी सभी शारीरिक और इंद्रियगत कार्यों—जैसे देखना, सुनना, बोलना, खाना, या साँस लेना—को केवल इंद्रियों और उनके विषयों का संयोग मानता है। वह स्वयं को कर्ता नहीं मानता, क्योंकि वह आत्मा को इन कार्यों से पृथक् जानता है। यह “अकर्ता भाव” उसे कर्मों के बंधन से मुक्त रखता है। ये श्लोक आत्मज्ञान के महत्व को दर्शाते हैं, जो कर्मयोगी को संसार में रहते हुए भी आध्यात्मिक स्वतंत्रता प्रदान करता है।
श्लोक 10
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सऊं त्यक्त्वा करोति यः ।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥10॥
अर्थ: “जो व्यक्ति अपने समस्त कर्मों को ब्रह्म (ईश्वर) को अर्पित कर देता है और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पाप से वैसे ही अछूता रहता है जैसे जल से कमल का पत्ता।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण निष्काम कर्म की सुंदर व्याख्या करते हैं। कर्मयोगी अपने सभी कार्य परमब्रह्म को अर्पित करता है और फल की आसक्ति त्याग देता है। इस समर्पण के कारण वह पाप या पुण्य के बंधन में नहीं बँधता। कमल के पत्ते का दृष्टांत यह दर्शाता है कि जैसे पत्ता जल में रहकर भी उससे अछूता रहता है, वैसे ही योगी संसार में रहकर भी कर्मों से मुक्त रहता है। यह श्लोक कर्मयोग के व्यावहारिक पक्ष को उजागर करता है, जो आध्यात्मिक स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त करता है।
श्लोक 11
कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥11॥
अर्थ: “योगीजन आसक्ति को त्याग कर आत्मशुद्धि की भावना से शरीर, मन, बुद्धि और केवल इंद्रियों द्वारा कर्म करते हैं। वे संसार में रहते हुए भी निष्काम भाव से कर्म करते हैं।”
व्याख्या: यह श्लोक कर्मयोग के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्मयोगी अपने शरीर, मन, बुद्धि और इंद्रियों से कार्य करते हैं, लेकिन उनकी प्रेरणा आत्मशुद्धि होती है, न कि सांसारिक लाभ। वे आसक्ति और स्वार्थ से मुक्त होकर कर्म करते हैं, जिससे उनका मन शुद्ध और स्थिर होता है। यह श्लोक कर्मयोग को एक आध्यात्मिक साधना के रूप में प्रस्तुत करता है, जो साधक को बंधनों से मुक्त कर परमात्मा की ओर ले जाता है। यह हमें सिखाता है कि कर्म को शुद्ध भाव से करने से जीवन पवित्र और अर्थपूर्ण बनता है।
श्लोक 12
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥12॥
अर्थ: “योगी व्यक्ति (युक्त पुरुष) जो कर्मों के फल का त्याग करता है, वह परम शांति को प्राप्त करता है। लेकिन जो व्यक्ति योग में स्थिर नहीं है और फल की कामना करता है, वह कर्मों के बंधन में फँस जाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण कर्मयोग और आसक्ति के परिणामों की तुलना करते हैं। कर्मयोगी, जो निष्काम भाव से कार्य करता है और फल की इच्छा त्याग देता है, परम शांति प्राप्त करता है, क्योंकि वह कर्मों के बंधन से मुक्त रहता है। इसके विपरीत, जो व्यक्ति कामनाओं के वशीभूत होकर फल की आसक्ति के साथ कार्य करता है, वह कर्मों के बंधन में फँस जाता है। यह श्लोक निष्काम कर्म के महत्व को रेखांकित करता है और सिखाता है कि शांति का मार्ग आसक्ति का त्याग और कर्मों को ईश्वर को समर्पित करने में निहित है।
श्लोक 13
सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ॥13॥
अर्थ: “जो आत्मा इंद्रियों को वश में कर चुका है, वह नव-द्वारों वाले शरीर रूपी नगर में (नौ द्वार = दो आंखें, दो कान, दो नाक के छिद्र, मुंह, गुदा, मूत्रेंद्रिय) केवल मन से सभी कर्मों का त्याग करके सुखपूर्वक निवास करता है, और न स्वयं कोई कर्म करता है, न दूसरों से करवाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मसंयम और अकर्ता भाव की अवस्था को दर्शाते हैं। आत्मसंयमी योगी मन से कर्मों की आसक्ति का त्याग कर देता है और यह समझता है कि वह न तो कर्ता है और न ही करवाने वाला। शरीर (नौ द्वारों वाला नगर) के कार्य स्वाभाविक रूप से होते हैं, पर आत्मा उनसे अछूती रहती है। यह दृष्टिकोण योगी को सुख और शांति प्रदान करता है। यह श्लोक आत्मज्ञान और वैराग्य के महत्व को उजागर करता है, जो साधक को बंधनों से मुक्त कर आध्यात्मिक स्वतंत्रता की ओर ले जाता है।
श्लोक 14
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।
न कमर्फलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥14॥
अर्थ: “परमात्मा न तो किसी को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मों का कर्ता बनाता है और न कर्मफल का निर्माण करता है। ये सब तो जीव के स्वभाव (प्रकृति) से ही होते हैं।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि परमेश्वर संसार में कर्तृत्व, कर्म या कर्मफल का संयोग नहीं रचता। ये सभी प्रकृति (प्रकृतिजन्य स्वभाव) के अनुसार स्वतः संचालित होते हैं। यह श्लोक यह सिखाता है कि व्यक्ति अपने कर्मों और उनके फलों के लिए स्वयं उत्तरदायी है, न कि ईश्वर। प्रकृति के गुण (सत्व, रजस, तमस) कर्मों को प्रभावित करते हैं, और मनुष्य का स्वभाव ही उसके कार्यों को निर्धारित करता है। यह श्लोक मनुष्य को अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करने और कर्मों को शुद्ध भाव से करने की प्रेरणा देता है, क्योंकि ईश्वर केवल साक्षी है, न कि कर्ता।
श्लोक 15
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥15॥
अर्थ: परमात्मा न किसी के पाप को स्वीकार करता है, न पुण्य को। परंतु अज्ञान के कारण आत्मा का ज्ञान ढँक जाता है और उसी कारण प्राणी मोह (भ्रम) को प्राप्त हो जाते हैं।
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि परमेश्वर निष्पक्ष और सर्वव्यापी है; वह न तो किसी के पाप को लेता है और न ही पुण्य को। जीवों का भ्रम और दुख अज्ञान के कारण है, जो उनके सच्चे ज्ञान को आवृत कर देता है। यह अज्ञान ही उन्हें संसार के बंधनों में फँसाए रखता है। श्लोक यह सिखाता है कि आत्मज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश किया जा सकता है, जिससे व्यक्ति अपने सच्चे स्वरूप को पहचानकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यह आत्मचिंतन और ज्ञान की खोज की प्रेरणा देता है।
श्लोक 16
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥16॥
अर्थ: “परंतु जिनकी आत्मा का अज्ञान ज्ञान के द्वारा नष्ट हो चुका होता है, उनके लिए वह परम ज्ञान सूर्य के समान प्रकाशित हो जाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मज्ञान की महत्ता को रेखांकित करते हैं। जब अज्ञान का आवरण आत्मज्ञान के प्रकाश से नष्ट हो जाता है, तब साधक का ज्ञान सूर्य के समान तेजस्वी होकर परम सत्य को प्रकट करता है। यह परम ज्ञान व्यक्ति को अपने सच्चे स्वरूप (आत्मा) और परमात्मा से एकत्व का बोध कराता है, जिससे वह संसार के भ्रम से मुक्त हो जाता है। यह श्लोक ज्ञान की खोज, ध्यान, और आत्मचिंतन के महत्व को दर्शाता है, जो साधक को मोक्ष के मार्ग पर ले जाता है।
श्लोक 17
तबुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिषूतकल्मषाः ॥17॥
अर्थ: “जिनकी बुद्धि, आत्मा, श्रद्धा और लक्ष्य सब परमात्मा में स्थित हैं तथा जिनके पाप ज्ञान के द्वारा नष्ट हो चुके हैं — वे पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मज्ञान और परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण की अवस्था को दर्शाते हैं। ऐसा साधक, जिसकी बुद्धि और मन परमात्मा में स्थिर हैं, और जो परमात्मा को ही अंतिम लक्ष्य मानता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अपने पापों (अज्ञानजन्य दोषों) से मुक्त हो जाता है। यह ज्ञान उसे मोक्ष प्रदान करता है, जहाँ पुनर्जनम का चक्र समाप्त हो जाता है। यह श्लोक भक्ति, ज्ञान, और निष्ठा के संयोजन को रेखांकित करता है, जो साधक को संसार के बंधनों से मुक्त कर परम शांति की ओर ले जाता है।
श्लोक 18
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥18॥
अर्थ: “ज्ञानीजन (पण्डित) विद्या और विनय से सम्पन्न ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल (श्वपाक) — इन सब में समदृष्टि रखते हैं। अर्थात् वे सभी प्राणियों में एक ही आत्मा को देखते हैं।”
व्याख्या: यह श्लोक समदृष्टि की उच्च अवस्था को दर्शाता है। ज्ञानी व्यक्ति सभी प्राणियों में एक ही परमात्मा का दर्शन करता है, चाहे वह विद्या-विनय से युक्त ब्राह्मण हो या सामाजिक दृष्टि से निम्न माना जाने वाला चांडाल। वह बाह्य भेदों—जाति, प्रजाति, या सामाजिक स्थिति—से ऊपर उठकर सभी में आत्मा की एकता देखता है। यह समदृष्टि अज्ञान के नाश और आत्मज्ञान के प्रकाश से संभव होती है। यह श्लोक हमें करुणा, निष्पक्षता, और सभी प्राणियों के प्रति समानता का भाव अपनाने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 19
इहैव तैर्जितः सर्गों येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥19॥
अर्थ: “जिनका मन समता में स्थिर हो गया है, उन्होंने इसी जीवन में संसार से मुक्ति (सर्ग पर विजय) प्राप्त कर ली है। क्योंकि ब्रह्म तो निर्दोष और सम है, इसलिए वे ब्रह्म में स्थित हैं।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण समता की शक्ति को उजागर करते हैं। जिनका मन सुख-दुख, लाभ-हानि में समान रहता है, वे संसार के बंधनों को जीत लेते हैं। यह समता उन्हें ब्रह्म की निर्दोष और समान प्रकृति के साथ एकरूप कर देती है। ऐसा व्यक्ति जीवन में ही मोक्ष की अवस्था प्राप्त कर लेता है, क्योंकि वह ब्रह्म में स्थिर हो जाता है। यह श्लोक समदृष्टि और मानसिक संतुलन के महत्व को दर्शाता है, जो साधक को आंतरिक शांति और आध्यात्मिक मुक्ति प्रदान करता है।
श्लोक 20
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥20॥
अर्थ: “जो ब्रह्म को जानता है, वह न प्रिय वस्तु की प्राप्ति पर अत्यधिक प्रसन्न होता है, न अप्रिय की प्राप्ति पर दुखी होता है। वह स्थिरबुद्धि और मोह से रहित होता है, और ब्रह्म में ही स्थित रहता है।”
व्याख्या: यह श्लोक ब्रह्मज्ञानी की मानसिक स्थिरता को दर्शाता है। ऐसा व्यक्ति सांसारिक सुख-दुख, लाभ-हानि से प्रभावित नहीं होता। वह प्रिय प्राप्त होने पर उन्माद में नहीं आता और अप्रिय स्थिति में विचलित नहीं होता। उसकी बुद्धि स्थिर और भ्रमरहित होती है, क्योंकि वह ब्रह्म के सत्य को जान चुका है। यह स्थिरता उसे ब्रह्म में लीन रखती है, जहाँ वह शाश्वत शांति का अनुभव करता है। यह श्लोक हमें सिखाता है कि समता और आत्मज्ञान के द्वारा ही सच्ची शांति और मुक्ति संभव है।
श्लोक 21
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते ॥21॥
अर्थ: “जो व्यक्ति बाहरी विषय-सुखों में आसक्त नहीं है और अपने ही आत्मा में जो आनंद प्राप्त करता है, वह ब्रह्मयोग से युक्त होकर अक्षय (नित्य) सुख को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण बाह्य सुखों की क्षणभंगुरता और आत्मिक सुख की शाश्वतता को रेखांकित करते हैं। जो व्यक्ति इंद्रिय विषयों की आसक्ति त्याग देता है, वह अपनी आत्मा में स्थित परम सुख को अनुभव करता है। यह सुख ब्रह्मयोग (परमात्मा के साथ एकत्व) के माध्यम से प्राप्त होता है और अक्षय होता है, क्योंकि यह बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करता। यह श्लोक हमें आत्मचिंतन, वैराग्य, और ब्रह्म के साथ एकता की खोज की प्रेरणा देता है, जो सच्चे और स्थायी सुख का स्रोत है।
श्लोक 22
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥22॥
अर्थ: “हे कौन्तेय (अर्जुन)! जो सुख इंद्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं, वे वास्तव में दुःख का कारण बनते हैं। क्योंकि वे आदि और अंत वाले होते हैं, इसलिए बुद्धिमान व्यक्ति उनमें आसक्त नहीं होता।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण इंद्रिय सुखों की क्षणभंगुरता और उनके दुखद परिणामों को स्पष्ट करते हैं। इंद्रिय विषयों से प्राप्त सुख अस्थायी होते हैं, क्योंकि उनका प्रारंभ और अंत होता है। ये सुख प्रारंभ में आनंददायक प्रतीत होते हैं, पर अंततः दुख का कारण बनते हैं। बुद्धिमान व्यक्ति इन सुखों में आसक्त नहीं होता, क्योंकि वह आत्मिक सुख की शाश्वतता को समझता है। यह श्लोक वैराग्य और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है, जो साधक को क्षणिक सुखों से ऊपर उठाकर शाश्वत शांति की ओर ले जाता है।
श्लोक 23
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ॥23॥
अर्थ: “जो मनुष्य शरीर त्यागने (मृत्यु) से पूर्व ही कामना और क्रोध से उत्पन्न वेग को सहन करने में सक्षम है, वही योगी है, वही सुखी मनुष्य है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मसंयम की महत्ता को रेखांकित करते हैं। काम (इच्छा) और क्रोध मन के सबसे बड़े शत्रु हैं, जो साधक को विचलित करते हैं। जो व्यक्ति इन आवेगों को नियंत्रित कर लेता है, वह सच्चा योगी है। ऐसा व्यक्ति जीवन में ही सुख और शांति प्राप्त करता है, क्योंकि वह बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं रहता। यह श्लोक आत्मनियंत्रण, धैर्य, और मन की शुद्धि के महत्व को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा सुख आंतरिक संयम और वैराग्य से ही प्राप्त होता है, न कि सांसारिक भोगों से।
श्लोक 24
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्योतिरेव यः।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ॥24॥
अर्थ: “जो व्यक्ति आंतरिक सुख में रमण करता है, आंतरिक रूप से ही आनंदित होता है और जिसकी चेतना अंतर्मुखी है — ऐसा योगी ब्रह्म में स्थित होकर ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मकेंद्रित सुख और ज्ञान की अवस्था को वर्णित करते हैं। सच्चा योगी बाह्य सुखों पर निर्भर नहीं रहता; उसका सुख, आनंद और प्रकाश उसकी आत्मा से उद्भवित होता है। यह आत्मिक अवस्था उसे ब्रह्म के साथ एकरूप कर देती है, जिससे वह मोक्ष प्राप्त करता है। यह श्लोक आत्मचिंतन, ध्यान, और आत्मज्ञान के महत्व को दर्शाता है। यह हमें प्रेरित करता है कि सच्चा सुख और शांति बाहरी स्रोतों में नहीं, बल्कि आत्मा की गहराई में खोजने चाहिए।
श्लोक 25
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः।
छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥25॥
अर्थ: “जिन ऋषियों के पाप समाप्त हो गए हैं, जिनकी द्वैतबुद्धि नष्ट हो गई है, जो आत्म-संयमी हैं और जो सभी प्राणियों के कल्याण में लगे रहते हैं — वे ब्रह्म-निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण मोक्ष प्राप्ति के गुणों को बताते हैं। ऐसे ऋषि, जिनके पाप (अज्ञानजन्य दोष) नष्ट हो गए हैं, जो सुख-दुख जैसे द्वंद्वों से मुक्त हैं, और जो आत्मसंयम के साथ सभी प्राणियों के कल्याण में संलग्न हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण प्राप्त करते हैं। यह श्लोक आत्मशुद्धि, समदृष्टि, और परहित की भावना को मोक्ष का आधार बताता है। यह हमें सिखाता है कि निःस्वार्थ सेवा, आत्मनियंत्रण, और सभी प्राणियों के प्रति करुणा के द्वारा ही साधक परम लक्ष्य तक पहुँच सकता है।
श्लोक 26
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥26॥
अर्थ: “जिन संन्यासियों ने काम और क्रोध का त्याग कर दिया है, जिनका मन संयमित है और जिन्होंने आत्मा को जान लिया है — उनके लिए चारों ओर ब्रह्म-निर्वाण (मोक्ष) विद्यमान है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्मज्ञानी संन्यासी की अवस्था को दर्शाते हैं। जो यति काम और क्रोध से मुक्त हो चुके हैं, जिनका मन नियंत्रित है, और जो आत्मा के सत्य को जान चुके हैं, उनके लिए मोक्ष हर समय और हर स्थान पर सुलभ है। यह अवस्था अज्ञान के नाश और आत्मज्ञान के प्रकाश से प्राप्त होती है। यह श्लोक आत्मनियंत्रण, वैराग्य, और आत्मचिंतन के महत्व को रेखांकित करता है। यह हमें प्रेरित करता है कि आत्मज्ञान और संयम के द्वारा साधक जीवन में ही मुक्ति का अनुभव कर सकता है।
श्लोक 27
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥27॥
अर्थ: “बाह्य विषयों को बाहर ही रखकर, दृष्टि को भृकुटियों (भ्रूओं) के मध्य स्थिर करके, नासिका में संचरित होने वाले प्राण और अपान वायु को समान करके।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान योग की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं। साधक को बाह्य इंद्रिय विषयों से मन को हटाकर, दृष्टि को भ्रू-मध्य में स्थिर करना चाहिए। साथ ही, प्राण और अपान (श्वास-प्रश्वास) को संतुलित करना चाहिए। यह ध्यान की अवस्था मन को एकाग्र और शांत करती है, जो आत्मसाक्षात्कार का आधार है। यह श्लोक ध्यान और प्राणायाम के महत्व को दर्शाता है, जो साधक को बाह्य distractions से मुक्त कर आंतरिक शांति और आत्मज्ञान की ओर ले जाता है। यह हमें नियमित ध्यान अभ्यास की प्रेरणा देता है।
श्लोक 28
यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः।
विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः ॥28॥
अर्थ: “जिसकी इंद्रियाँ, मन और बुद्धि संयमित हैं, जो मुनि (सत्य के साधक) है, जिसका लक्ष्य मोक्ष है, और जो इच्छा, भय और क्रोध से रहित है — ऐसा योगी सदैव मुक्त रहता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण मुक्ति की अवस्था को वर्णित करते हैं। ऐसा मुनि, जो इंद्रियों, मन, और बुद्धि पर पूर्ण नियंत्रण रखता है, और जो इच्छा, भय, और क्रोध से मुक्त है, वह मोक्ष को अपना लक्ष्य बनाता है। उसकी यह अवस्था उसे जीवन में ही मुक्त बना देती है। यह श्लोक आत्मसंयम, वैराग्य, और मोक्ष के प्रति निष्ठा के महत्व को दर्शाता है। यह हमें सिखाता है कि सच्ची मुक्ति बाह्य परिस्थितियों से नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धि और संयम से प्राप्त होती है।
श्लोक 29
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥29॥
अर्थ: “मुझे सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का महेश्वर, और सभी प्राणियों का सुहृद (मित्र) जानकर व्यक्ति परम शांति प्राप्त करता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण स्वयं को परम सत्य के रूप में प्रस्तुत करते हैं। जो व्यक्ति भगवान को सभी यज्ञों और तपों का भोक्ता, सभी लोकों का स्वामी, और सभी प्राणियों का मित्र समझता है, वह भक्ति और ज्ञान के द्वारा परम शांति प्राप्त करता है। यह श्लोक भक्ति, समर्पण, और ईश्वर के प्रति विश्वास के महत्व को रेखांकित करता है। यह हमें सिखाता है कि ईश्वर को अपने हृदय में स्थान देकर और उनके प्रति पूर्ण समर्पण करके हम संसार के दुखों से मुक्त होकर शाश्वत शांति प्राप्त कर सकते हैं।
श्रीमद् भागवत गीता के पाँचवे अध्याय सारांश
श्रीमद्भगवद्गीता का पाँचवाँ अध्याय, कर्मसंन्यास योग, कर्मयोग और संन्यास योग के बीच सामंजस्य पर केंद्रित है। यह अर्जुन के संदेह का समाधान करता है कि कर्मयोग और संन्यास में से कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि दोनों मार्ग मोक्ष की ओर ले जाते हैं, पर कर्मयोग अधिक व्यावहारिक है। अध्याय निष्काम कर्म, समदृष्टि, आत्मज्ञान, और आत्मसंयम की महत्ता पर बल देता है। यह सिखाता है कि कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर, फल की आसक्ति त्यागकर, और सभी प्राणियों में परमात्मा का दर्शन कर व्यक्ति बंधनों से मुक्त होकर परम शांति प्राप्त करता है।