श्रीमद्भागवत गीता का छठा अध्याय “ध्यानयोग” कहलाता है। गीता का छठा अध्याय – ध्यान योग, आत्मा की खोज, मन की एकाग्रता और परमात्मा के साथ एकत्व की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है। यह अध्याय योगी के जीवन का स्वरूप, ध्यान की विधि और साधक के लिए आवश्यक मानसिक अनुशासन को विस्तार से बताता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 6: ध्यानयोग (Bhagwat Geeta Chapter 6)
श्रीमद् भागवत गीता का छठा अध्याय, “ध्यानयोग” है। यह अध्याय 47 श्लोकों में विभाजित है। गीता का छठा अध्याय आत्म-नियंत्रण, ध्यान, और मन की शांति प्राप्त करने की कला पर केंद्रित है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मन की चंचलता को नियंत्रित करने और ध्यान के माध्यम से आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का मार्ग दिखाते हैं।
इस अध्याय में अर्जुन, जो युद्ध के मैदान में नैतिक और भावनात्मक दुविधा से जूझ रहा है, भगवान श्रीकृष्ण से मन को नियंत्रित करने और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग के बारे में प्रश्न करता है। श्रीकृष्ण ध्यान योग की प्रक्रिया, योगी के गुण, और आत्म-संयम के महत्व को विस्तार से समझाते हैं।
श्लोक 1
श्रीभगवानुवाच।
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥1॥
अर्थ: “जो मनुष्य कर्मफल की आशा को त्यागकर केवल कर्तव्य समझकर कर्म करता है, वह ही सच्चा संन्यासी और योगी है; न कि वह जो केवल यज्ञ की अग्नि का त्याग करता है या कर्म से विरक्त रहता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सच्चे संन्यास और योग की परिभाषा देते हैं। वे स्पष्ट करते हैं कि संन्यास का अर्थ केवल बाहरी कर्मों या यज्ञादि का त्याग करना नहीं है, बल्कि कर्मफल की इच्छा का त्याग करना है। सच्चा योगी वही है जो निःस्वार्थ भाव से कर्तव्य पालन करता है। यह शिक्षा कर्मयोग और ध्यानयोग के समन्वय को दर्शाती है। श्रीकृष्ण यहाँ यह संदेश देते हैं कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए बाहरी त्याग से अधिक महत्वपूर्ण है आंतरिक वैराग्य और मन की शुद्धता, जो जीवन में संतुलन और समर्पण लाती है।
श्लोक 2
यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥2॥
अर्थ: “हे पाण्डव! जिसे संन्यास कहा गया है, वही योग है — ऐसा जानो। क्योंकि इच्छाओं (कामनाओं) का त्याग किए बिना कोई भी योगी नहीं बन सकता।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण संन्यास और योग को एक समान बताते हैं, जो दोनों का आधार इच्छाओं का त्याग है। संन्यास का अर्थ केवल बाहरी त्याग नहीं, बल्कि मन से सांसारिक संकल्पों को छोड़ना है। योगी बनने के लिए मन की शुद्धता और वैराग्य आवश्यक हैं। यह शिक्षा हमें यह सिखाती है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए बाहरी कर्मों से अधिक महत्वपूर्ण है आंतरिक संयम। श्रीकृष्ण यहाँ यह संदेश देते हैं कि सच्चा योगी वही है जो इच्छाओं से मुक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है।
श्लोक 3
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥3॥
अर्थ: “जो योग में आरूढ़ होने का इच्छुक होता है, उसके लिए कर्म (कर्तव्य पालन) साधन होता है; लेकिन जो योग में स्थिर हो गया है, उसके लिए शांति (मन का नियंत्रण) ही मुख्य साधन होता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग के दो चरणों की व्याख्या करते हैं। प्रारंभिक साधक के लिए कर्मयोग, अर्थात निःस्वार्थ कर्म, योग की साधना का आधार है। यह कर्म मन को शुद्ध और एकाग्र करता है। वहीं, योग में सिद्ध साधक के लिए मन की शांति और स्थिरता (शम) महत्वपूर्ण है, जो ध्यान के माध्यम से प्राप्त होती है। यह शिक्षा हमें यह सिखाती है कि आध्यात्मिक यात्रा में कर्म और ध्यान दोनों का क्रमबद्ध महत्व है। यह साधक को धीरे-धीरे आत्म-नियंत्रण और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।
श्लोक 4
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥4॥
अर्थ: “जब योगी इन्द्रिय विषयों और कर्मों में आसक्त नहीं रहता तथा सभी संकल्पों का त्याग कर देता है, तभी वह योग में स्थिर कहा जाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योगारूढ अवस्था का वर्णन करते हैं। योगारूढ वह साधक है जो इंद्रियों के सुखों और कर्मों के प्रति आसक्ति से मुक्त हो चुका है। वह सभी सांसारिक इच्छाओं और संकल्पों का त्याग कर देता है। यह अवस्था मन की पूर्ण शांति और आत्म-चेतना की स्थिति को दर्शाती है। यह शिक्षा हमें यह सिखाती है कि सच्ची आध्यात्मिक सिद्धि तभी प्राप्त होती है, जब मन बाहरी आकर्षणों और इच्छाओं से पूरी तरह मुक्त होकर आत्मा में स्थिर हो जाता है।
श्लोक 5
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥5॥
अर्थ: “मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं अपने द्वारा ही अपने आप को ऊँचा उठाए, और कभी अपने को गिरने न दे, क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण आत्म-नियंत्रण के महत्व को रेखांकित करते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य का मन ही उसका सबसे बड़ा मित्र या शत्रु हो सकता है। यदि मन संयमित और शुद्ध है, तो वह आत्मा को ऊँचा उठाता है। किंतु यदि मन इच्छाओं और अज्ञान में डूबा है, तो वह आत्मा को पतन की ओर ले जाता है। यह शिक्षा हमें आत्म-जागरूकता और आत्म-संयम की आवश्यकता सिखाती है। यह संदेश देती है कि हमारी प्रगति या पतन का कारण हमारा अपना मन है।
श्लोक 6
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ते तात्मैव शत्रुवत् ॥6॥
अर्थ: “जिसने अपने मन को जीत लिया है, उसके लिए वह आत्मा मित्र के समान है। लेकिन जिसने मन को नहीं जीता, उसके लिए वही आत्मा शत्रु के समान व्यवहार करती है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण पिछले श्लोक के विचार को और स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने आत्म-संयम द्वारा अपने मन को वश में कर लिया है, उसका मन उसका मित्र बन जाता है, जो उसे आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है। इसके विपरीत, अनियंत्रित मन शत्रु की तरह कार्य करता है, जो व्यक्ति को अज्ञान और दुख की ओर धकेलता है। यह शिक्षा हमें यह सिखाती है कि आत्म-नियंत्रण और आत्म-जागरूकता के बिना आध्यात्मिक प्रगति असंभव है। मन को जीतना ही सच्ची विजय है।
श्लोक 7
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥7॥
अर्थ: “जिसने अपने मन को जीत लिया है और जो शांत है, उसके लिए परमात्मा समभाव से स्थित रहता है — चाहे वह शीत-उष्ण, सुख-दुःख, मान-अपमान जैसी स्थितियों में ही क्यों न हो।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण उस साधक की अवस्था का वर्णन करते हैं, जिसने मन को जीत लिया है। ऐसा व्यक्ति शांतचित्त होकर परमात्मा में लीन रहता है और सांसारिक द्वंद्वों—शीत-उष्ण, सुख-दुख, मान-अपमान—से अप्रभावित रहता है। यह समदृष्टि आत्म-संयम और ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होती है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्ची शांति और आध्यात्मिक प्रगति तब मिलती है, जब मन बाहरी परिस्थितियों से विचलित नहीं होता। यह अवस्था हमें जीवन के उतार-चढ़ाव में संतुलन बनाए रखने और आत्मा को परमात्मा से जोड़ने की प्रेरणा देती है।
श्लोक 8
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥8॥
अर्थ: “जो योगी ज्ञान और विज्ञान से तृप्त है, स्थिर बुद्धि वाला है, इन्द्रियों को वश में कर चुका है, वह समदर्शी योगी कहलाता है, जिसे मिट्टी, पत्थर और सोना — सब एक समान प्रतीत होते हैं।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण सच्चे योगी के लक्षण बताते हैं। ऐसा योगी आत्म-ज्ञान और अनुभव से तृप्त, अटल और इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर चुका होता है। वह सांसारिक वस्तुओं—मिट्टी, पत्थर, या सोने—को समान दृष्टि से देखता है, क्योंकि वह भौतिक मूल्यों से ऊपर उठ चुका है। यह शिक्षा हमें यह सिखाती है कि सच्चा योगी वह है, जो आत्म-जागरूकता और वैराग्य के माध्यम से सांसारिक भेदभाव से मुक्त हो जाता है। यह अवस्था हमें जीवन में निष्पक्षता और आंतरिक संतुष्टि की ओर ले जाती है।
श्लोक 9
सुहृन्मित्रायुदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥9॥
अर्थ: “जो योगी सुहृद (मित्रवत् व्यवहार करने वाले), मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष करने वाले, बंधु, सज्जन और पापी — सबके प्रति समान भाव रखता है, वही श्रेष्ठ होता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण समदृष्टि के उच्चतम स्तर का वर्णन करते हैं। सच्चा योगी सभी प्राणियों—चाहे वे मित्र हों, शत्रु हों, साधु हों या पापी—के प्रति समान भाव रखता है। यह समबुद्धि आत्म-ज्ञान और वैराग्य से उत्पन्न होती है, जो योगी को सांसारिक भेदभाव से मुक्त करती है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्ची आध्यात्मिकता सभी के प्रति करुणा और निष्पक्षता में निहित है। यह हमें जीवन में पक्षपात छोड़कर सभी प्राणियों को समान दृष्टि से देखने और प्रेम व करुणा के साथ व्यवहार करने की प्रेरणा देती है।
श्लोक 10
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥10॥
अर्थ: “योगी को चाहिए कि वह एकांत में निवास करे, अकेला रहे, मन और आत्मा को नियंत्रित रखे, न कोई आशा रखे और न ही किसी वस्तु का संग्रह करे, और निरंतर आत्मा का अभ्यास करे।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान योग की प्रक्रिया का प्रारंभिक निर्देश देते हैं। योगी को एकांत स्थान पर, इच्छाओं और संग्रह से मुक्त होकर, मन को नियंत्रित करते हुए निरंतर ध्यान करना चाहिए। यह एकांत और आत्म-संयम ध्यान की आधारशिला है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान के लिए शांत वातावरण, मन की शुद्धता और वैराग्य आवश्यक हैं। यह हमें आधुनिक जीवन में भी प्रेरित करता है कि हम दैनिक जीवन में कुछ समय एकांत और आत्म-चिंतन के लिए निकालें, ताकि मन शांत और आत्मा परमात्मा से जुड़ सके।
श्लोक 11
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥11॥
अर्थ: “योगी को स्वच्छ स्थान पर, न बहुत ऊँचा और न बहुत नीचा, कुशा, मृगचर्म और वस्त्र से बना स्थिर आसन स्थापित करके ध्यान करना चाहिए।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान के लिए उपयुक्त बाहरी व्यवस्था का वर्णन करते हैं। स्वच्छ और शांत स्थान, स्थिर और संतुलित आसन (कुशा, मृगचर्म, और वस्त्र से निर्मित) ध्यान के लिए आवश्यक है। यह व्यवस्था शारीरिक स्थिरता और मानसिक एकाग्रता को बढ़ावा देती है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान के लिए बाहरी और आंतरिक दोनों प्रकार की शुद्धता महत्वपूर्ण है। आधुनिक संदर्भ में, यह हमें प्रेरित करता है कि हम ध्यान के लिए एक शांत कोना और आरामदायक आसन चुनें, जो मन को एकाग्र करने में सहायक हो।
श्लोक 12
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्जयाद्योगमात्मविशुद्धये ॥12॥
अर्थ: “उस आसन पर बैठकर मन को एकाग्र करके, इन्द्रियों और मन की क्रियाओं को वश में रखकर, आत्मा की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान की आंतरिक प्रक्रिया का वर्णन करते हैं। योगी को आसन पर बैठकर मन को एक बिंदु पर केंद्रित करना चाहिए और चित्त व इंद्रियों को नियंत्रित करना चाहिए। यह प्रक्रिया आत्म-शुद्धि और आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाती है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान केवल शारीरिक आसन तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मन की एकाग्रता और इंद्रियों का संयम भी शामिल है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम नियमित ध्यान द्वारा मन को शांत और आत्मा को शुद्ध करें।
श्लोक 13
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः ।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन् ॥13॥
अर्थ: “योगी को चाहिए कि वह अपने शरीर, सिर और गले को सीधा और स्थिर रखे, तथा दृष्टि को नासिका के अग्रभाग पर टिकाए और इधर-उधर न देखे।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान के लिए शारीरिक स्थिति और दृष्टि की एकाग्रता का वर्णन करते हैं। योगी को शरीर, सिर और गले को सीधा और स्थिर रखना चाहिए, ताकि शारीरिक अस्थिरता मन को विचलित न करे। नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि केंद्रित करने से एकाग्रता बढ़ती है और बाहरी distractions कम होते हैं। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान के लिए शारीरिक और मानसिक स्थिरता दोनों आवश्यक हैं। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम ध्यान के दौरान शारीरिक संतुलन और एक बिंदु पर दृष्टि केंद्रित करें, ताकि मन शांत हो।
श्लोक 14
प्रशान्तात्मा विगतभीब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः ॥14॥
अर्थ: “ऐसा योगी शांत चित्त, भय रहित, ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए, मन को वश में रखकर, मुझे ही अपना लक्ष्य मानकर ध्यान में स्थित हो।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान योगी की मानसिक और आध्यात्मिक अवस्था का वर्णन करते हैं। योगी का मन शांत, भयमुक्त और ब्रह्मचर्य जैसे संयम में स्थिर होना चाहिए। मन को नियंत्रित कर परमात्मा में एकाग्र करना ध्यान का लक्ष्य है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान केवल बाहरी प्रक्रिया नहीं, बल्कि आंतरिक शांति और परमात्मा के प्रति समर्पण की अवस्था है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम जीवन में संयम और भक्ति के साथ ध्यान करें, ताकि मन शुद्ध हो और परमात्मा से एकता स्थापित हो।
श्लोक 15
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः ।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥15॥
अर्थ: “इस प्रकार मन को नियंत्रित कर निरंतर आत्मा का अभ्यास करने वाला योगी, मेरे (भगवान के) चरणों में स्थित होकर परम शांति को, जो मोक्ष है, प्राप्त करता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान योग के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली परम शांति का वर्णन करते हैं। नियमित ध्यान और मन के नियंत्रण से योगी परमात्मा में लीन होकर निर्वाण की अवस्था प्राप्त करता है। यह शांति सांसारिक सुखों से परे और स्थायी होती है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान का अंतिम लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा से एकता है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम नियमित ध्यान के माध्यम से मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति की ओर बढ़ें, जो हमें सांसारिक दुखों से मुक्ति दिलाए।
श्लोक 16
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नतः ।
न चाति स्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥16॥
अर्थ: “हे अर्जुन! योग न तो बहुत खाने वाले का है और न ही जो बिलकुल नहीं खाता, न अधिक सोने वाले का है और न ही जो हमेशा जागता रहता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान योग के लिए संतुलित जीवनशैली के महत्व को रेखांकित करते हैं। अति भोजन, उपवास, अधिक नींद या नींद की कमी ध्यान में बाधा डालती है। योग के लिए मध्यम मार्ग आवश्यक है, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बनाए रखता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक प्रगति के लिए जीवन में संतुलन जरूरी है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम भोजन और नींद में संयम बरतें, ताकि मन और शरीर ध्यान के लिए तैयार रहें और आध्यात्मिक लक्ष्य प्राप्त हो सकें।
श्लोक 17
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥17॥
अर्थ: “जो व्यक्ति भोजन, चलना-फिरना, कार्य, सोना और जागना — इन सभी में संतुलन रखता है, उसके लिए योग दुखों को नष्ट करने वाला बनता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण पिछले श्लोक के विचार को और विस्तार देते हैं। वे कहते हैं कि संतुलित आहार, व्यवहार, कर्म और नींद वाला व्यक्ति ही योग के माध्यम से दुखों से मुक्ति पा सकता है। यह संतुलन मन और शरीर को स्वस्थ रखता है, जो ध्यान के लिए अनिवार्य है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि योग केवल ध्यान तक सीमित नहीं, बल्कि यह एक समग्र जीवनशैली है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम अपने दैनिक जीवन में संतुलन बनाए रखें, ताकि मानसिक शांति और आध्यात्मिक प्रगति प्राप्त हो।
श्लोक 18
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥18॥
अर्थ: “जब साधक का चित्त पूर्ण रूप से नियंत्रित हो जाता है और वह समस्त इच्छाओं से रहित होकर केवल आत्मा में स्थित हो जाता है, तभी वह सच्चा योगी कहलाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योगी की उच्चतम अवस्था का वर्णन करते हैं। जब मन पूर्णतः संयमित होकर आत्मा में स्थिर हो जाता है और सांसारिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, तब योगी युक्त अवस्था प्राप्त करता है। यह आत्म-साक्षात्कार की स्थिति है, जहां मन बाहरी विषयों से विचलित नहीं होता। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्चा योग मन की शांति और आत्म-चेतना में निहित है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम ध्यान और वैराग्य के माध्यम से इच्छाओं से मुक्ति पाकर आत्मा में स्थिरता प्राप्त करें।
श्लोक 19
यथा दीपो निवातस्थो नेते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥19॥
अर्थ: “जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की लौ स्थिर रहती है, वैसे ही योगी का नियंत्रित मन आत्मा में लीन होकर स्थिर रहता है — यही उपमा दी जाती है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योगी के संयमित मन की तुलना एक स्थिर दीपक से करते हैं, जो वायु के अभाव में अचल रहता है। योगी का मन, जो ध्यान के माध्यम से आत्मा में स्थिर है, बाहरी विकारों से अप्रभावित रहता है। यह उपमा ध्यान की गहन अवस्था को दर्शाती है, जहां मन शांत और एकाग्र होता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि नियमित ध्यान से मन को स्थिर और शांत किया जा सकता है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम ध्यान के अभ्यास से बाहरी distractions को हटाकर आंतरिक शांति प्राप्त करें।
श्लोक 20
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥20॥
अर्थ: “जब योग साधना द्वारा मन शांत होकर रुक जाता है और साधक आत्मा में आत्मा को देखकर संतुष्ट रहता है, तब वह वास्तविक ध्यान होता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान की उस अवस्था का वर्णन करते हैं, जहां योग के अभ्यास से मन पूर्णतः शांत हो जाता है। योगी आत्म-चिंतन के माध्यम से अपनी आत्मा का साक्षात्कार करता है और आत्मा में ही संतुष्टि पाता है। यह अवस्था आत्म-साक्षात्कार की है, जहां बाहरी सुखों की आवश्यकता नहीं रहती। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्ची संतुष्टि बाहरी विषयों में नहीं, बल्कि आत्मा के ज्ञान में है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम ध्यान के माध्यम से आत्म-जागरूकता और आंतरिक शांति की ओर बढ़ें।
श्लोक 21
सुखमात्यन्तिकं यत्तबुद्धिग्राह्ममतीन्द्रियम् ।
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वतः ॥21॥
अर्थ: “योगी जिस स्थिति में परम सुख का अनुभव करता है, जो इंद्रियों से परे है लेकिन बुद्धि से अनुभव किया जा सकता है, उस स्थिति से वह कभी विचलित नहीं होता।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान से प्राप्त होने वाले अनंत सुख का वर्णन करते हैं। यह सुख इंद्रियों से परे और बुद्धि द्वारा अनुभव किया जाता है। योगी, इस अवस्था में स्थित होकर, सत्य (परमात्मा) से कभी विचलित नहीं होता। यह सुख सांसारिक सुखों से श्रेष्ठ और स्थायी है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्चा सुख आत्मा और परमात्मा के मिलन में है, न कि क्षणभंगुर भौतिक सुखों में। यह हमें प्रेरित करता है कि हम ध्यान के अभ्यास से इस अनंत सुख और सत्य की अनुभूति प्राप्त करें।
श्लोक 22
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरूणापि विचाल्यते ॥22॥
अर्थ: “जिसे प्राप्त कर योगी कोई और लाभ श्रेष्ठ नहीं मानता और जो स्थिति सबसे बड़े दुःख में भी विचलित नहीं करती — वह है ध्यान की परिपूर्ण अवस्था।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग की उस अवस्था का वर्णन करते हैं, जहां योगी को आत्म-साक्षात्कार से इतना परम लाभ प्राप्त होता है कि अन्य कोई लाभ तुच्छ लगता है। इस अवस्था में वह सबसे बड़े दुख से भी अडिग रहता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि योग हमें ऐसी आंतरिक शक्ति और शांति प्रदान करता है, जो सांसारिक सुख-दुख से परे है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम ध्यान के माध्यम से इस अटल अवस्था को प्राप्त करें, जो हमें जीवन के उतार-चढ़ाव में स्थिर रखे।
श्लोक 23
तं विद्यादः दुःखसंयोगवियोगं योगसज्ञितम् ।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥23॥
अर्थ: “जो दुःखों से संबंध का सर्वथा अभाव कर देता है, वही योग कहलाता है। उसे दृढ़ निश्चय और बिना उदास हुए निरंतर अभ्यास करना चाहिए।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग की परिभाषा देते हैं—यह दुख के कारणों से मुक्ति की अवस्था है। योग का अभ्यास दृढ़ संकल्प और उत्साह के साथ करना चाहिए, बिना निराश हुए। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि योग का लक्ष्य सांसारिक दुखों से पूर्ण मुक्ति है, और इसके लिए निरंतर प्रयास और सकारात्मक दृष्टिकोण आवश्यक हैं। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम ध्यान और आत्म-संयम के अभ्यास को दृढ़ता और उत्साह के साथ अपनाएं, ताकि हम दुखों से मुक्त होकर शांति प्राप्त करें।
श्लोक 24
सङ्कल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सर्वानशेषतः ।
मनसैवेन्द्रियग्रामं विनियम्य समन्ततः ॥24॥
अर्थ: “सभी इच्छाओं का जो संकल्पों से उत्पन्न होती हैं, पूर्ण त्याग करके, तथा इन्द्रियों के समूह को चारों ओर से मन के द्वारा वश में करके — योगी ध्यान साधना करे।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग के अभ्यास की प्रक्रिया बताते हैं। योगी को इच्छाओं, जो संकल्पों से उत्पन्न होती हैं, का पूर्ण त्याग करना चाहिए। साथ ही, मन के द्वारा इंद्रियों को नियंत्रित करना चाहिए। यह वैराग्य और आत्म-संयम का मार्ग है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान की सफलता के लिए इच्छाओं और इंद्रियों पर नियंत्रण आवश्यक है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम सांसारिक इच्छाओं को कम करें और मन को संयमित कर ध्यान के अभ्यास में लगाएं, ताकि आत्म-शांति प्राप्त हो।
श्लोक 25
शनैः शनैरूपरमेबुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥25॥
अर्थ: “बुद्धि के द्वारा, जो धैर्य से युक्त है, मन को धीरे-धीरे संयमित करें और उसे आत्मा में स्थिर करके अन्य किसी वस्तु का विचार न करें।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान की प्रक्रिया में धीरे-धीरे प्रगति करने का निर्देश देते हैं। योगी को दृढ़ बुद्धि के साथ मन को आत्मा में स्थिर करना चाहिए, जिससे विचारों का प्रवाह रुक जाए। यह धैर्य और निरंतर अभ्यास का महत्व दर्शाता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान एक क्रमिक प्रक्रिया है, जिसमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम नियमित और धैर्यपूर्ण ध्यान अभ्यास से मन को शांत करें, विचारों को नियंत्रित करें, और आत्मा में स्थिरता प्राप्त करें।
श्लोक 26
यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ॥26॥
अर्थ: “जहाँ-जहाँ चंचल और अस्थिर मन भागता है, वहाँ-वहाँ से उसे खींचकर बार-बार आत्मा में ही स्थिर करना चाहिए।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण मन की चंचल प्रकृति और उसे नियंत्रित करने की विधि बताते हैं। मन बार-बार विषयों की ओर भटकता है, पर योगी को इसे बार-बार आत्मा में वापस लाना चाहिए। यह निरंतर अभ्यास और सजगता की आवश्यकता को दर्शाता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि मन को नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण है, पर असंभव नहीं। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम ध्यान के दौरान भटकते विचारों को धैर्यपूर्वक वापस लाएं और आत्म-चेतना में स्थिरता प्राप्त करें।
श्लोक 27
प्रशान्तमनसं ह्येनं योगिनं सुखमुत्तमम्।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्मभूतकल्मषम् ॥27॥
अर्थ: जिस योगी का मन शांत हो गया है, जो रजोगुण से मुक्त है, पापरहित है और ब्रह्मस्वरूप हो गया है — उसे परम सुख प्राप्त होता है।
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले परम सुख का वर्णन करते हैं। जब योगी का मन शांत हो जाता है, रजोगुण (अशांति) से मुक्त होकर वह ब्रह्म में लीन हो जाता है। यह अवस्था पापरहित और परम सुखमय होती है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान से मन की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति संभव है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम नियमित ध्यान द्वारा मन को शांत करें, ताकि सांसारिक अशांति से मुक्त होकर परम सुख और ब्रह्म की अनुभूति प्राप्त करें।
श्लोक 28
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते ॥28॥
अर्थ: “इस प्रकार निरंतर आत्मा का योगाभ्यास करने वाला पापरहित योगी ब्रह्म का स्पर्श करके अत्यंत आनंद को प्राप्त करता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण ध्यान योग के परिणामस्वरूप ब्रह्म के साथ एकता और अनंत सुख की प्राप्ति का वर्णन करते हैं। नियमित ध्यान से योगी पापों से मुक्त होकर ब्रह्म के साथ संनाद करता है, जिससे उसे सहज और अनंत सुख मिलता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि ध्यान का अंतिम लक्ष्य ब्रह्म के साथ एकता है, जो सांसारिक सुखों से कहीं श्रेष्ठ है। यह हमें प्रेरित करता है कि हम ध्यान के अभ्यास से मन को शुद्ध करें और ब्रह्म की अनुभूति से परम सुख प्राप्त करें।
श्लोक 29
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥29॥
अर्थ: “योगयुक्त चित्त वाला योगी सभी प्राणियों में आत्मा को और सभी प्राणियों को आत्मा में देखता है; वह सर्वत्र समदर्शिता से युक्त होता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योगी की सर्वव्यापी और समदृष्टि का वर्णन करते हैं। योग से युक्त योगी आत्मा (परमात्मा) को सभी प्राणियों में और सभी प्राणियों को आत्मा में देखता है। यह समदृष्टि आध्यात्मिक जागरूकता का परिणाम है, जहां भेदभाव समाप्त हो जाता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्चा योग सभी प्राणियों में परमात्मा की एकता को देखने की दृष्टि देता है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम ध्यान के माध्यम से यह समझ विकसित करें कि सभी प्राणी परमात्मा का अंश हैं और उनके प्रति करुणा और समानता का भाव रखें।
श्लोक 30
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥30॥
अर्थ: “जो मुझे सब जगह देखता है और सबको मुझमें देखता है, मैं उसके लिए अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण उस योगी की अवस्था का वर्णन करते हैं, जो परमात्मा को सर्वत्र और सर्वं को परमात्मा में देखता है। ऐसा योगी परमात्मा के साथ अटूट संबंध स्थापित करता है, जिससे न तो परमात्मा उससे दूर होता है और न ही वह परमात्मा से। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्चा योग परमात्मा के साथ पूर्ण एकता की अवस्था है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम ध्यान और भक्ति के माध्यम से परमात्मा की सर्वव्यापकता को अनुभव करें और उनके साथ अटूट संबंध बनाएं।
श्लोक 31
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः।
सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते ॥31॥
अर्थ: “जो योगी सब प्राणियों में स्थित मुझ एक परमात्मा को एकता के भाव से भजता है, वह योगी सब प्रकार से कर्म करता हुआ भी मुझमें ही स्थित रहता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण उस योगी की अवस्था का वर्णन करते हैं, जो परमात्मा को सभी प्राणियों में देखता है और एकत्व भाव से उनकी भक्ति करता है। ऐसा योगी सांसारिक कार्यों में लिप्त रहते हुए भी मन से परमात्मा में लीन रहता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्चा योगी सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भी परमात्मा से जुड़ा रह सकता है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम भक्ति और समदृष्टि के साथ अपने कर्म करें, ताकि हर स्थिति में परमात्मा के साथ एकता बनी रहे।
श्लोक 32
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥32॥
अर्थ: “हे अर्जुन! जो योगी आत्मा के समान ही सभी जगह समभाव से देखता है, चाहे सुख हो या दुःख — वह श्रेष्ठ योगी माना गया है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण सर्वोच्च योगी के लक्षण बताते हैं। ऐसा योगी सभी प्राणियों के सुख-दुख को अपने समान देखता है, जिससे वह करुणा और समदृष्टि से परिपूर्ण होता है। यह आत्मौपम्य (समानता की भावना) आध्यात्मिक जागरूकता का परिणाम है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि सच्चा योगी दूसरों के प्रति संवेदनशील और निष्पक्ष होता है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम दूसरों के सुख-दुख को समझें और सभी के प्रति करुणा और समानता का भाव रखें, जो आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है।
श्लोक 33
अर्जन उवाच।
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम् ॥33॥
अर्थ: “अर्जुन ने कहा — हे मधुसूदन! आपने जो यह समभाव वाला योग बताया है, उसमें स्थिरता मैं नहीं देख पा रहा हूँ, क्योंकि मन बहुत चंचल है।”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन अपनी शंका व्यक्त करते हैं। वे श्रीकृष्ण द्वारा वर्णित योग और समदृष्टि को मन की चंचलता के कारण कठिन मानते हैं। यह श्लोक मानवीय कमजोरी को दर्शाता है, जहां मन का नियंत्रण सबसे बड़ी चुनौती है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक पथ पर शंकाएँ स्वाभाविक हैं, पर उन्हें गुरु के समक्ष रखना चाहिए। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम अपनी आध्यात्मिक चुनौतियों को स्वीकार करें और मार्गदर्शन के लिए सही स्रोत की खोज करें, ताकि मन की अस्थिरता पर विजय पाई जा सके।
श्लोक 34
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलव ढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥34॥
अर्थ: “हे कृष्ण! मन तो चंचल, बलवान और हठी है। मैं इसे वश में करना वायु को रोकने के समान कठिन मानता हूँ।”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन मन की चंचलता को और विस्तार से वर्णन करते हैं। वे मन को अशांत, बलवान और नियंत्रण में कठिन मानते हैं, जैसे हवा को पकड़ना। यह श्लोक मानव मन की जटिल प्रकृति को उजागर करता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि मन का नियंत्रण आध्यात्मिक साधना की सबसे बड़ी चुनौती है, पर इसे स्वीकार करना पहला कदम है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम मन की अस्थिरता को समझें और इसे नियंत्रित करने के लिए ध्यान और अभ्यास की ओर बढ़ें।
श्लोक 35
श्रीभगवानुवाच।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥35॥
अर्थ: “श्रीभगवान ने कहा — हे महाबाहु अर्जुन! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में आने वाला है, लेकिन अभ्यास और वैराग्य से यह वश में आता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन की शंका का समाधान करते हैं। वे स्वीकार करते हैं कि मन चंचल और नियंत्रण में कठिन है, पर अभ्यास (निरंतर ध्यान) और वैराग्य (इच्छाओं का त्याग) से इसे वश में किया जा सकता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि मन का नियंत्रण संभव है, बशर्ते हम धैर्य और अनुशासन के साथ अभ्यास करें। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम नियमित ध्यान और सांसारिक इच्छाओं से दूरी बनाकर मन को शांत और एकाग्र करें, जो आध्यात्मिक प्रगति की कुंजी है।
श्लोक 36
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥36॥
अर्थ: “जिसका मन संयमित नहीं है, उसके लिए योग प्राप्त करना कठिन है; परंतु जिसने मन को वश में कर लिया है और जो प्रयत्नशील है, वह उचित साधन के द्वारा योग को प्राप्त कर सकता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग की प्राप्ति के लिए मन के संयम की अनिवार्यता बताते हैं। असंयमित मन वाला व्यक्ति योग में सफल नहीं हो सकता, पर जो मन को नियंत्रित करता है, वह उचित प्रयास और विधियों से योग प्राप्त कर सकता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आत्म-संयम और साधना योग की आधारशिला हैं। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम मन को नियंत्रित करने के लिए ध्यान, अनुशासन और वैराग्य का अभ्यास करें, ताकि हम योग के माध्यम से आध्यात्मिक उन्नति और शांति प्राप्त करें।
श्लोक 37
अर्जुन उवाच।
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥37॥
अर्थ: “अर्जुन ने पूछा — हे कृष्ण! जो व्यक्ति श्रद्धा से युक्त तो है, पर योग में स्थिर नहीं हो सका और मन भटक गया, वह योगसिद्धि को प्राप्त किए बिना किस गति को प्राप्त होता है?”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन एक महत्वपूर्ण शंका व्यक्त करते हैं। वे पूछते हैं कि यदि कोई श्रद्धापूर्वक योग का अभ्यास करता है, लेकिन मन की चंचलता के कारण सफलता नहीं मिलती, तो उसका क्या होता है। यह श्लोक आध्यात्मिक पथ पर असफलता के डर को दर्शाता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक यात्रा में शंकाएँ स्वाभाविक हैं, और इन्हें गुरु के समक्ष रखना चाहिए। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम अपनी आध्यात्मिक असफलताओं के बारे में चिंतन करें और मार्गदर्शन लें, ताकि हम सही दिशा में आगे बढ़ सकें।
श्लोक 38
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥38॥
अर्थ: “हे महाबाहु! क्या वह व्यक्ति जो दोनों मार्गों से भटक गया, बिना किसी आधार के बादलों से कट कर गिरने वाले की तरह नष्ट हो जाता है?”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन अपनी शंका को और गहराई से व्यक्त करते हैं। वे पूछते हैं कि क्या असफल योगी, जो न सांसारिक सुख पाता है और न आध्यात्मिक सिद्धि, छिन्न बादल की तरह नष्ट हो जाता है। यह श्लोक आध्यात्मिक पथ की अनिश्चितता और विफलता के भय को उजागर करता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक यात्रा में असफलता का डर स्वाभाविक है, पर इसे स्पष्ट करना महत्वपूर्ण है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम आध्यात्मिक लक्ष्यों के प्रति दृढ़ रहें और विफलता के डर को दूर करने के लिए मार्गदर्शन लें।
श्लोक 39
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥39॥
अर्थ: “हे कृष्ण! आप मेरे इस संदेह को पूरी तरह दूर करें, क्योंकि आपके सिवा कोई इसे नष्ट करने में सक्षम नहीं है।”
व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से अपनी शंका को पूरी तरह दूर करने की प्रार्थना करते हैं। वे श्रीकृष्ण को इस संदेह का निवारण करने वाला एकमात्र सक्षम गुरु मानते हैं। यह श्लोक गुरु के महत्व और शिष्य के विश्वास को दर्शाता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक पथ पर संदेह होने पर सच्चे गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम अपनी आध्यात्मिक शंकाओं को दूर करने के लिए प्रामाणिक स्रोतों और मार्गदर्शकों की शरण लें, ताकि हम स्पष्टता और दिशा प्राप्त करें।
श्लोक 40
श्रीभगवानुवाच।
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ॥40॥
अर्थ: “श्रीभगवान बोले — हे पार्थ! न तो इस लोक में और न ही परलोक में उस योगभ्रष्ट व्यक्ति का विनाश होता है। कल्याण करने वाला कभी बुरा मार्ग नहीं पाता।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन की शंका का समाधान करते हैं। वे आश्वासन देते हैं कि योग का अभ्यास करने वाले का न इस लोक में और न परलोक में विनाश होता है। कल्याणकारी कार्य कभी व्यर्थ नहीं जाते। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक प्रयास, भले ही अधूरे रहें, कभी निष्फल नहीं होते। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम आध्यात्मिक साधना को निरंतर जारी रखें, क्योंकि हर प्रयास हमें कल्याण की ओर ले जाता है और दुर्गति से बचाता है।
श्लोक 41
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥41॥
अर्थ: “योगभ्रष्ट व्यक्ति पुण्य आत्माओं के लोकों में वर्षों तक निवास करता है, फिर शुद्ध और संपन्न परिवारों में जन्म लेता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योगभ्रष्ट (असफल योगी) के भाग्य का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि ऐसा योगी पुण्य के लोकों में सुख भोगकर पवित्र और समृद्ध कुल में जन्म लेता है। यह जन्म उसे योग के मार्ग पर आगे बढ़ने का अवसर देता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाते, बल्कि वे भविष्य में बेहतर परिस्थितियाँ प्रदान करते हैं। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम योग और साधना को निरंतर अपनाएँ, क्योंकि ये प्रयास हमें उच्चतर जीवन और आध्यात्मिक प्रगति की ओर ले जाते हैं।
श्लोक 42
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥42॥
अर्थ: या फिर वह बुद्धिमान योगियों के कुल में जन्म लेता है, और ऐसा जन्म इस संसार में अत्यंत दुर्लभ होता है।
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि योगभ्रष्ट योगी कभी-कभी बुद्धिमान योगियों के कुल में जन्म लेता है, जो अत्यंत दुर्लभ और श्रेष्ठ होता है। ऐसा जन्म उसे योग के मार्ग पर तीव्र प्रगति का अवसर देता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक प्रयासों का फल उच्चतर जन्म के रूप में मिलता है, जो साधना के लिए अनुकूल होता है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम आध्यात्मिक साधना को गंभीरता से लें, क्योंकि यह हमें दुर्लभ और कल्याणकारी अवसर प्रदान करता है।
श्लोक 43
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम् ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥43॥
अर्थ: “हे कुरुनन्दन! (अर्जुन!) वहां वह योगी अपने पूर्व जन्म की बुद्धि से जुड़ जाता है और फिर योग-सिद्धि को पाने के लिए फिर से प्रयास करता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि योगभ्रष्ट योगी को नए जन्म में पूर्व जन्म के आध्यात्मिक ज्ञान और साधना का लाभ मिलता है। यह ज्ञान उसे योग के मार्ग पर आगे बढ़ने में सहायता करता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाते; वे अगले जन्म में साधक को उच्चतर स्तर पर ले जाते हैं। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम योग और ध्यान के अभ्यास को निरंतर जारी रखें, क्योंकि हर प्रयास हमें आत्म-सिद्धि और परम लक्ष्य की ओर ले जाता है।
श्लोक 44
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥44॥
अर्थ: “पूर्व जन्म के अभ्यास के कारण वह व्यक्ति अनचाहे भी उसी ओर खिंचता है। ऐसा जिज्ञासु योगी वेदों के कर्मकांड (शब्दब्रह्म) को पार कर जाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि पूर्व जन्म की साधना का प्रभाव इतना गहरा होता है कि योगभ्रष्ट योगी अनायास ही योग की ओर खिंचता है। यहाँ तक कि योग का जिज्ञासु भी वेदों के कर्मकाण्डों को पार कर आत्म-ज्ञान की ओर बढ़ता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक साधना का प्रभाव स्थायी होता है और यह साधक को उच्चतर लक्ष्यों की ओर ले जाता है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम योग और आत्म-चिंतन में रुचि लें, क्योंकि यह हमें सांसारिक सीमाओं से परे ले जाता है।
श्लोक 45
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् ॥45॥
अर्थ: “प्रयत्न करने वाला योगी, जो अपने पापों से शुद्ध हो गया है, अनेक जन्मों में सिद्धि प्राप्त करता हुआ अंततः परमगति को प्राप्त होता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योगी की अंतिम सिद्धि का वर्णन करते हैं। निरंतर प्रयास और साधना से योगी पापों से मुक्त हो जाता है और अनेक जन्मों की मेहनत के बाद परम गति (मोक्ष) प्राप्त करता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि आध्यात्मिक पथ पर धैर्य और निरंतरता अनिवार्य हैं। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम योग और ध्यान के अभ्यास में दृढ़ रहें, क्योंकि हर जन्म में किए गए प्रयास हमें मोक्ष के निकट ले जाते हैं, जो जीवन का परम लक्ष्य है।
श्लोक 46
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥46॥
अर्थ: “योगी तपस्वियों से, ज्ञानियों से और कर्म करने वालों से भी श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिए, हे अर्जुन! तुम योगी बनो।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण योग की श्रेष्ठता को स्थापित करते हैं। वे कहते हैं कि योगी तपस्वी, ज्ञानी और कर्मयोगी से भी उच्च है, क्योंकि योग में तप, ज्ञान और कर्म का समन्वय होता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि योग एक समग्र मार्ग है, जो आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम योग को अपनाएँ, क्योंकि यह न केवल शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को बढ़ाता है, बल्कि हमें आध्यात्मिक उन्नति और परम लक्ष्य की ओर भी ले जाता है।
श्लोक 47
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥47॥
अर्थ: “सभी योगियों में वह श्रेष्ठ योगी है जो मुझमें अंतःकरण से लीन होकर, श्रद्धा के साथ मेरी भक्ति करता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण भक्ति योग को सर्वोच्च स्थान देते हैं। वे कहते हैं कि सभी योगियों में वह योगी सबसे श्रेष्ठ है, जो श्रद्धा और भक्ति के साथ परमात्मा में पूर्णतः लीन रहता है। यह शिक्षा हमें सिखाती है कि भक्ति योग, जो प्रेम और समर्पण पर आधारित है, आत्म-साक्षात्कार का सबसे सरल और प्रभावी मार्ग है। यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम ध्यान और भक्ति के माध्यम से परमात्मा के साथ गहरा संबंध स्थापित करें, जो हमें परम शांति और मुक्ति की ओर ले जाता है।
श्रीमद् भागवत गीता के छठे अध्याय सारांश
श्रीमद भागवत गीता का छठा अध्याय, ध्यान योग या आत्मसंयम योग, आत्म-नियंत्रण और ध्यान के मार्ग पर केंद्रित है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को योगी के गुण, ध्यान की प्रक्रिया, और मन को नियंत्रित करने की विधि सिखाते हैं।
- योगी का स्वरूप: सच्चा योगी वह है जो कर्मफल की इच्छा त्यागकर निःस्वार्थ कर्म करता है और आत्म-संयम के साथ ध्यान में लीन रहता है।
- ध्यान की प्रक्रिया: योगी को शांत स्थान पर, संतुलित आसन पर बैठकर, मन और इंद्रियों को नियंत्रित करते हुए आत्मा में एकाग्र होना चाहिए।
- मन का नियंत्रण: मन चंचल है, पर अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता है। श्रीकृष्ण धीरे-धीरे मन को आत्मा में स्थिर करने का उपदेश देते हैं।
- समदृष्टि: योगी सभी प्राणियों में आत्मा और परमात्मा की एकता देखता है, जिससे वह सुख-दुख, मान-अपमान में समान रहता है।
- आध्यात्मिक प्रगति: योगभ्रष्ट योगी का प्रयास व्यर्थ नहीं जाता; उसे अगले जन्म में बेहतर अवसर मिलते हैं, और निरंतर साधना से वह मोक्ष प्राप्त करता है।
- योग की श्रेष्ठता: योगी तपस्वी, ज्ञानी और कर्मयोगी से श्रेष्ठ है, और भक्ति से युक्त योगी सर्वोच्च माना जाता है।
यह अध्याय संतुलित जीवनशैली, आत्म-संयम, और भक्ति के साथ ध्यान के महत्व को रेखांकित करता है, जो आत्म-साक्षात्कार और परम शांति की ओर ले जाता है। यह आधुनिक जीवन में तनाव प्रबंधन और मानसिक शांति के लिए भी प्रासंगिक है।