श्रीमद्भागवत गीता का सातवाँ अध्याय “ज्ञान विज्ञान योग” कहलाता है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को परम सत्य, उनकी दिव्य प्रकृति, और भक्ति के मार्ग का गहन ज्ञान प्रदान करते हैं। यह अध्याय भक्तों और साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह परमात्मा के स्वरूप, उनकी माया, और उससे मुक्ति के उपायों को स्पष्ट करता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 7: ज्ञान विज्ञान योग (Bhagwat Geeta Chapter 7)
श्रीमद् भागवत गीता का सातवाँ अध्याय, “ज्ञान विज्ञान योग” है। यह अध्याय 30 श्लोकों में विभाजित है। गीता के 18 अध्यायों में सातवाँ अध्याय एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जहाँ श्रीकृष्ण अपने विराट स्वरूप और विश्व के साथ अपने संबंध को विस्तार से बताते हैं।
कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन के सामने यह ज्ञान तब प्रकट होता है, जब वह जीवन, कर्तव्य, और सत्य के प्रति भ्रमित है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि परम सत्य को जानने के लिए केवल बौद्धिक ज्ञान पर्याप्त नहीं है; इसके लिए विज्ञान (अनुभवात्मक समझ) और भक्ति की आवश्यकता है। अध्याय का केंद्रीय विषय परमात्मा का स्वरूप, उनकी माया, और भक्तों के प्रकार हैं।
श्लोक 1
श्रीभगवान उवाच।
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥1॥
अर्थ: श्री भगवान ने कहा –”हे पार्थ! अब तू मेरे परायण होकर, चित्त को मुझ में लगाकर और योग में लगे हुए मेरे ही आश्रय को प्राप्त होकर, जिस प्रकार से तू मुझे पूर्णतया और निःसंदेह जान सकेगा, वह विधि मैं तुझसे कहता हूँ – उसे तू सुन।”
व्याख्या: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण सातवें अध्याय, “ज्ञान विज्ञान योग” की शुरुआत करते हुए अर्जुन को परम सत्य को जानने का मार्ग दिखाते हैं, जिसमें मन की परमात्मा में प्रेमपूर्ण आसक्ति, भक्ति योग और ध्यान के माध्यम से निरंतर अभ्यास, और पूर्ण शरणागति पर जोर दिया गया है; यह स्पष्ट करते हुए कि ऐसा साधक निश्चित रूप से और संदेहरहित रूप से परमात्मा को पूर्णता में जान लेता है, जो आधुनिक जीवन में तनाव और विचलन के बीच धैर्य, एकाग्रता, और आध्यात्मिक दृढ़ता के साथ लक्ष्य प्राप्ति की प्रेरणा देता है।
श्लोक 2
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥2॥
अर्थ: “मैं तुझे यह ज्ञान और विज्ञान सहित संपूर्ण रूप से बताने जा रहा हूँ, जिसे जान लेने के बाद इस संसार में फिर और कुछ जानने योग्य शेष नहीं रह जाएगा।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि वे उन्हें वह सर्वोच्च ज्ञान प्रदान करेंगे, जो सैद्धांतिक (ज्ञान) और अनुभवात्मक (विज्ञान) दोनों है, और इसे समझने के बाद साधक को किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं रहेगी; यह आधुनिक जीवन में हमें सिखाता है कि सच्चा ज्ञान वह है जो मन को शांति और जीवन को अर्थ प्रदान करता है, जिससे हम अनावश्यक भटकाव से बच सकते हैं।
श्लोक 3
मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ॥3॥
अर्थ: “हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्धि (मोक्ष) की प्राप्ति के लिए यत्न करता है, और उन यत्नशील सिद्ध पुरुषों में भी कोई एक ही मुझे तत्त्व से जान पाता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में परम सत्य को जानने की दुर्लभता को रेखांकित करते हैं, यह दर्शाते हुए कि लाखों में से कुछ ही आध्यात्मिक साधना के मार्ग पर चलते हैं, और उनमें भी बहुत कम लोग परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को समझ पाते हैं; यह हमें आधुनिक संदर्भ में प्रेरित करता है कि सच्चे लक्ष्य के लिए दृढ़ संकल्प और निरंतर प्रयास आवश्यक हैं, खासकर तब जब हम सांसारिक विकर्षणों से घिरे हों।
श्लोक 4
भूममिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥4॥
अर्थ: “पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार – ये मेरी आठ प्रकार की भिन्न-भिन्न प्रकृति के तत्व हैं (जिनसे यह संसार बना है)।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी अपरा (भौतिक) प्रकृति के आठ तत्वों का वर्णन करते हैं, जो सृष्टि के भौतिक आधार हैं, और यह समझाते हैं कि ये सभी उनकी शक्ति से उत्पन्न हैं; आधुनिक जीवन में यह हमें यह दृष्टिकोण देता है कि प्रकृति और हमारे मानसिक गुण भी परमात्मा का ही हिस्सा हैं, जिससे हम पर्यावरण और आत्म-चिंतन के प्रति सचेत रह सकते हैं।
श्लोक 5
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥5॥
अर्थ: “हे महाबाहो! यह (ऊपर कही गई) प्रकृति जड़ है, इसे अपर (निम्न) जान। इससे भिन्न मेरी एक और उच्च प्रकृति है – चेतन प्रकृति – जो जीवात्मा के रूप में है और जिससे यह सम्पूर्ण संसार धारण किया जाता है।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अपनी परा प्रकृति, अर्थात् जीवात्मा या चेतना, का परिचय देते हैं, जो भौतिक प्रकृति से श्रेष्ठ है और विश्व को चेतना प्रदान करती है; यह श्लोक हमें आधुनिक संदर्भ में सिखाता है कि हमारी आत्मा ही हमारा सच्चा स्वरूप है, और इसे पहचानकर हम भौतिकता के बंधनों से मुक्त होकर आध्यात्मिक जीवन जी सकते हैं।
श्लोक 6
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्त्रस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥6॥
अर्थ: “तू यह समझ कि समस्त जीव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं। मैं ही सम्पूर्ण जगत का कारण – उत्पत्ति का भी और प्रलय का भी – हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि उनकी परा और अपरा प्रकृतियाँ ही सृष्टि के सभी प्राणियों की उत्पत्ति का स्रोत हैं, और वे स्वयं विश्व की रचना, स्थिति, और संहार के कारण हैं; यह आधुनिक जीवन में हमें यह दृष्टिकोण देता है कि सभी कुछ परमात्मा से उत्पन्न होता है, जिससे हम जीवन की नश्वरता को स्वीकार कर उनकी शरण में स्थिरता और शांति पा सकते हैं।
श्लोक 7
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥7॥
अर्थ: “हे धनञ्जय (अर्जुन)! मुझसे श्रेष्ठ और कोई नहीं है। यह सम्पूर्ण सृष्टि मुझमें ऐसे गुँथी हुई है जैसे सूत्र (धागे) में मणियाँ (मोती)।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी सर्वोच्चता और विश्व के साथ अपने अटूट संबंध को दर्शाते हैं, यह बताते हुए कि वे ही सृष्टि का आधार हैं, जैसे धागा माला की मणियों को जोड़े रखता है; यह आधुनिक संदर्भ में हमें सिखाता है कि परमात्मा ही जीवन का केंद्र हैं, और उनमें केंद्रित रहकर हम अपने जीवन को सुसंगठित और अर्थपूर्ण बना सकते हैं।
श्लोक 8
रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥8॥
अर्थ: “हे कौन्तेय! मैं जलों में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, समस्त वेदों में ॐकार (प्रणव) हूँ, आकाश में शब्द हूँ और पुरुषों में पुरुषत्व (बल, तेज, पराक्रम) हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी सर्वव्यापकता को प्रकट करते हैं, यह दर्शाते हुए कि वे प्रकृति और मानव जीवन के हर उत्कृष्ट गुण में विद्यमान हैं; यह हमें आधुनिक जीवन में प्रेरित करता है कि हम रोजमर्रा के अनुभवों में, जैसे पानी की ताजगी या सूर्य की रोशनी में, परमात्मा की उपस्थिति को अनुभव करें, जिससे हमारा जीवन आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध हो।
श्लोक 9
पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥9॥
अर्थ: “मैं पृथ्वी में पवित्र सुगंध हूँ, अग्नि में तेज हूँ, समस्त जीवों में जीवन शक्ति हूँ और तपस्वियों में तप हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी उपस्थिति को और विस्तार देते हैं, यह बताते हुए कि वे प्रकृति के सूक्ष्म गुणों, जैसे पृथ्वी की सुगंध और अग्नि की ऊर्जा, साथ ही प्राणियों की चेतना और तपस्वियों के आत्म-संयम में विद्यमान हैं; यह आधुनिक संदर्भ में हमें पर्यावरण और आत्म-अनुशासन के प्रति सचेत रहने और हर जीव में परमात्मा के अंश को देखने की प्रेरणा देता है।
श्लोक 10
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् ।
बुद्धिर्बुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ॥10॥
अर्थ: “हे पार्थ! तू मुझे समस्त प्राणियों का सनातन (शाश्वत) बीज जान। मैं बुद्धिमानों की बुद्धि हूँ और तेजस्वियों का तेज हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्वयं को सभी प्राणियों का मूल कारण और सनातन स्रोत बताते हैं, साथ ही बुद्धिमानों की विवेकशीलता और तेजस्वियों की प्रेरक शक्ति के रूप में अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं; यह हमें आधुनिक जीवन में यह समझने के लिए प्रेरित करता है कि हमारी बुद्धि और ऊर्जा परमात्मा की देन हैं, जिनका उपयोग हमें सकारात्मक और रचनात्मक कार्यों के लिए करना चाहिए।
श्लोक 11
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥11॥
अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ! मैं बलवानों का ऐसा बल हूँ जो काम और राग से रहित है। समस्त प्राणियों में धर्म के अनुकूल (धर्मपूर्वक) उत्पन्न होने वाला काम (इच्छा/प्रवृत्ति) भी मैं ही हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी उपस्थिति को बल और काम जैसे गुणों में प्रकट करते हैं, परंतु यह बल और काम शुद्ध, निष्काम, और धर्मानुकूल होना चाहिए; यह आधुनिक जीवन में हमें सिखाता है कि हमारी शक्ति और इच्छाएँ तब ही सार्थक हैं जब वे नैतिकता और निस्वार्थता के साथ संयोजित हों, जिससे हम अपने कार्यों को समाज और स्वयं के कल्याण के लिए उपयोग कर सकें।
श्लोक 12
ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥12॥
अर्थ: “सात्त्विक, राजस और तामस – ये सभी भाव मुझसे ही उत्पन्न होते हैं; परंतु मैं उनमें नहीं हूँ – वे सब मुझमें स्थित हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में तीनों गुणों (सत, रज, तम) से उत्पन्न होने वाले सभी भावों को अपनी शक्ति से उत्पन्न बताते हैं, परंतु वे स्वयं इन गुणों से अतीत हैं; यह आधुनिक संदर्भ में हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि हमारी प्रकृति और व्यवहार भले ही गुणों से प्रभावित हों, परंतु परमात्मा की शरण में रहकर हम इनसे ऊपर उठ सकते हैं और अपने सच्चे स्वरूप को पहचान सकते हैं।
श्लोक 13
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥13॥
अर्थ: “यह समस्त संसार इन तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) से मोहित होकर मुझको उस अपरिवर्तनीय परब्रह्म रूप से नहीं जानता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि तीनों गुणों की माया के कारण विश्व परमात्मा के अविनाशी और शुद्ध स्वरूप को नहीं पहचान पाता; यह आधुनिक जीवन में हमें यह सिखाता है कि सांसारिक मोह और भौतिकता के कारण हम अक्सर सत्य से विमुख हो जाते हैं, और ज्ञान व भक्ति के माध्यम से ही हम इस माया से मुक्त होकर परम सत्य तक पहुँच सकते हैं।
श्लोक 14
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥14॥
अर्थ: “यह मेरी त्रिगुणमयी (सत्त्व, रज, तम से बनी) माया वास्तव में अत्यन्त दुस्तर (कठिनता से पार की जाने योग्य) है; किंतु जो भक्त मुझको एकमात्र शरण मानते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी माया को अत्यंत शक्तिशाली और पार करना कठिन बताते हैं, परंतु उनकी शरण में आने वाला साधक इस माया से मुक्त हो जाता है; यह आधुनिक संदर्भ में हमें प्रेरित करता है कि जीवन की जटिलताओं और भ्रमों से निपटने के लिए परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण और भक्ति ही सबसे सरल और प्रभावी मार्ग है।
श्लोक 15
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥15॥
अर्थ: “दुष्कर्म करने वाले, मूर्ख, नीच मनुष्य, जिनकी बुद्धि माया से हर ली गई है और जो आसुरी स्वभाव को धारण करते हैं – वे मेरी शरण नहीं लेते।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में उन लोगों का वर्णन करते हैं जो अज्ञान, दुष्कर्म, और आसुरी प्रवृत्तियों के कारण परमात्मा की शरण से वंचित रहते हैं; यह आधुनिक जीवन में हमें चेतावनी देता है कि स्वार्थ, अहंकार, और अनैतिकता हमें सत्य और शांति से दूर ले जाते हैं, और हमें सात्त्विक जीवन अपनाकर परमात्मा के करीब जाना चाहिए।
श्लोक 16
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥16॥
अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ अर्जुन, चार प्रकार के पुण्यात्मा लोग मेरी भक्ति करते हैं: आर्त (दुखी), जिज्ञासु (ज्ञान की खोज करने वाला), अर्थार्थी (सांसारिक सुख चाहने वाला), और ज्ञानी।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में चार प्रकार के भक्तों का वर्णन करते हैं, जो अपने-अपने उद्देश्यों से प्रेरित होकर उनकी भक्ति करते हैं, यह दर्शाते हुए कि भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला है; यह आधुनिक जीवन में हमें सिखाता है कि चाहे हम दुख, जिज्ञासा, या सांसारिक इच्छाओं से प्रेरित हों, परमात्मा की भक्ति हमें सत्य और शांति की ओर ले जा सकती है, बशर्ते हमारा हृदय शुद्ध हो।
श्लोक 17
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥17॥
अर्थ: “उन चारों में ज्ञानी श्रेष्ठ है, क्योंकि वह निरंतर मेरे साथ योगयुक्त रहता है और मुझमें एकनिष्ठ भक्ति करता है। वह मुझे अत्यंत प्रिय होता है और मैं भी उसे अत्यंत प्रिय हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में ज्ञानी भक्त की श्रेष्ठता बताते हैं, जो निष्काम भाव से, एकनिष्ठ होकर उनकी भक्ति करता है, और उनके साथ प्रेमपूर्ण संबंध स्थापित करता है; यह आधुनिक संदर्भ में हमें प्रेरित करता है कि सच्ची भक्ति वह है जो स्वार्थरहित और पूर्ण समर्पण से परमात्मा के प्रति हो, जिससे हमारा जीवन प्रेम और शांति से परिपूर्ण हो सकता है।
श्लोक 18
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥18॥
अर्थ: “ये सभी भक्त उदार हैं, परंतु ज्ञानी तो मेरे ही स्वरूप के तुल्य है – ऐसा मेरा मत है। क्योंकि वह मुझमें स्थित रहता है और मेरी परम गति को ही प्राप्त हुआ है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में सभी भक्तों की उदारता की प्रशंसा करते हैं, परंतु ज्ञानी भक्त को अपने से अभिन्न बताते हैं, क्योंकि वह पूर्ण रूप से परमात्मा में लीन रहता है; यह आधुनिक जीवन में हमें यह सिखाता है कि भक्ति का अंतिम लक्ष्य परमात्मा के साथ एकत्व प्राप्त करना है, और इसके लिए हमें अपने मन को शुद्ध और एकाग्र करना होगा।
श्लोक 19
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥19॥
अर्थ: “अनेक जन्मों के अंत में ज्ञान प्राप्त मनुष्य मुझको समर्पित होता है, यह समझते हुए कि “वासुदेव ही सब कुछ है” – ऐसा महात्मा अत्यंत दुर्लभ होता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि अनेक जन्मों की साधना के बाद ही कोई ज्ञानवान यह समझ पाता है कि परमात्मा ही सर्वस्व हैं, और ऐसा व्यक्ति बहुत दुर्लभ होता है; यह आधुनिक संदर्भ में हमें धैर्य और निरंतर साधना का महत्व सिखाता है, यह प्रेरणा देता है कि सच्चा ज्ञान समय, समर्पण, और परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है।
श्लोक 20
कामैस्तैस्तैर्हतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया ॥20॥
अर्थ: “जिनकी बुद्धि भोगों की वासना से हर ली गई है, वे अन्य देवताओं की शरण लेते हैं और अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उन देवताओं की उपासना के लिए विशेष विधि का अनुसरण करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि सांसारिक कामनाओं और अज्ञान के कारण लोग परमात्मा के बजाय अन्य देवताओं की पूजा करते हैं, जो उनकी प्रकृति और सीमित समझ से प्रेरित होती है; यह आधुनिक जीवन में हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि सच्ची भक्ति परम सत्य की ओर ले जाती है, जबकि भौतिक इच्छाएँ हमें अस्थायी सुखों में उलझा सकती हैं।
श्लोक 21
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥21॥
अर्थ: “जो भी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, मैं उसकी उसी श्रद्धा को अचल (स्थिर) कर देता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि वे सभी भक्तों की श्रद्धा को स्वीकार करते हैं और उनके द्वारा चुने गए किसी भी देवता की पूजा में उनकी श्रद्धा को दृढ़ करते हैं, क्योंकि सभी पूजा अंततः उन तक ही पहुँचती है; यह आधुनिक जीवन में हमें सिखाता है कि परमात्मा सभी धर्मों और विश्वासों के प्रति उदार हैं, और सच्ची श्रद्धा के साथ किया गया कोई भी कार्य हमें उनके करीब ले जा सकता है।
श्लोक 22
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।
लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ॥22॥
अर्थ: “वह भक्त उस श्रद्धा से युक्त होकर उसी देवता की पूजा करता है और उस देवता से अपनी इच्छित वस्तुएँ प्राप्त करता है; वास्तव में वे सब मेरे द्वारा ही नियोजित होती हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा करने वाला भक्त अपनी इच्छाएँ प्राप्त करता है, परंतु ये फल वास्तव में परमात्मा की कृपा से ही मिलते हैं; यह आधुनिक संदर्भ में हमें यह समझने की प्रेरणा देता है कि सभी शक्तियों का स्रोत एक ही परमात्मा है, और हमें अपनी भक्ति को सांसारिक इच्छाओं से ऊपर उठाकर उनके प्रति केंद्रित करना चाहिए।
श्लोक 23
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥23॥
अर्थ: “उन अल्पबुद्धि वालों को मिलने वाला फल क्षणिक (नाशवान्) होता है। देवताओं की पूजा करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, जबकि मेरे भक्त मुझको प्राप्त होते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा से प्राप्त फल अस्थायी और सीमित होते हैं, जबकि उनकी भक्ति करने वाले साधक परम गति, अर्थात् मोक्ष, प्राप्त करते हैं; यह आधुनिक जीवन में हमें प्रेरित करता है कि हमें अपने प्रयासों को क्षणिक सुखों के बजाय स्थायी शांति और परम सत्य की प्राप्ति के लिए केंद्रित करना चाहिए।
श्लोक 24
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ॥24॥
अर्थ: “अल्पबुद्धि लोग मुझे, जो अव्यक्त (निर्गुण) हूँ, व्यक्त (सगुण) रूप में प्राप्त हुआ मानते हैं, और मेरे अविनाशी और अनुत्तम (सर्वोच्च) स्वरूप को नहीं जानते।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि अज्ञानी लोग उनके सगुण रूप को ही उनका पूर्ण स्वरूप मान लेते हैं, और उनके निर्गुण, अविनाशी, और सर्वोच्च स्वरूप को नहीं समझ पाते; यह आधुनिक संदर्भ में हमें यह सिखाता है कि परमात्मा की सच्ची प्रकृति को समझने के लिए हमें केवल उनके भौतिक या मानवीय रूप तक सीमित न रहकर, उनके अनंत और अविनाशी स्वरूप को जानने का प्रयास करना चाहिए।
श्लोक 25
नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ॥25॥
अर्थ: “मैं अपनी योगमाया से आवृत होने के कारण सभी के लिए प्रकट नहीं हूँ। यह मूढ़ संसार मुझे, जो परम और अविनाशी हूँ, नहीं जान पाता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि उनकी योगमाया के कारण सामान्य लोग उनके परम और अविनाशी स्वरूप को नहीं देख पाते, और अज्ञानवश उन्हें समझने में असफल रहते हैं; यह आधुनिक जीवन में हमें यह प्रेरणा देता है कि माया के प्रभाव से बचने के लिए हमें भक्ति, ज्ञान, और आत्म-चिंतन के माध्यम से परमात्मा के सच्चे स्वरूप तक पहुँचने का प्रयास करना चाहिए।
श्लोक 26
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥26॥
अर्थ: “हे अर्जुन! मैं भूतकाल, वर्तमान और भविष्य में घटित होने वाले सभी प्राणियों को जानता हूँ; परंतु कोई भी मुझे पूर्ण रूप से नहीं जानता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी सर्वज्ञता को प्रकट करते हैं, यह बताते हुए कि वे सभी प्राणियों के अतीत, वर्तमान और भविष्य को जानते हैं, किंतु उनकी माया के कारण कोई उन्हें पूर्ण रूप से नहीं जान पाता; यह आधुनिक जीवन में हमें यह सिखाता है कि परमात्मा की अनंतता और सर्वज्ञता के सामने हमारा ज्ञान सीमित है, और हमें विनम्रता के साथ उनकी शरण में रहकर सत्य को समझने का प्रयास करना चाहिए।
श्लोक 27
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥27॥
अर्थ: “हे भरतवंशी! इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्व रूप मोह के कारण सृष्टि के समय सभी प्राणी अज्ञान से मोहित हो जाते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व (सुख-दुख, राग-विराग आदि) सभी प्राणियों को अज्ञान और भ्रम में डाल देते हैं; यह आधुनिक संदर्भ में हमें यह प्रेरणा देता है कि हमारी इच्छाएँ और नापसंदगी हमें सत्य से दूर ले जा सकती हैं, और हमें संतुलित मन के साथ भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर चलकर इस मोह से मुक्त होना चाहिए।
श्लोक 28
येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥28॥
अर्थ: “जिन पुण्यात्माओं के पाप नष्ट हो चुके होते हैं और जो द्वन्द्व रूप मोह से मुक्त होते हैं — वे दृढ़ निश्चय के साथ मेरी भक्ति करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि पुण्य कर्मों और पापों के नाश के कारण जो लोग द्वंद्वमोह से मुक्त हो जाते हैं, वे दृढ़ निश्चय के साथ परमात्मा की भक्ति करते हैं; यह आधुनिक जीवन में हमें सिखाता है कि सात्त्विक जीवन, पुण्य कर्म, और आत्म-शुद्धि के माध्यम से हम अज्ञान के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं और परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ जी सकते हैं।
श्लोक 29
जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्य तद्विदुः कृत्स्न्मध्यात्म कर्म चाखिलम् ॥29॥
अर्थ: “जो लोग जरा (बुढ़ापा) और मरण से मुक्ति पाने के लिए मेरा आश्रय लेकर प्रयास करते हैं, वे पूर्ण ब्रह्म, अध्यात्म और समस्त कर्म को भलीभांति जान लेते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि जो साधक उनकी शरण में रहकर जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति की इच्छा रखते हैं, वे ब्रह्म, अध्यात्म, और कर्म के सम्पूर्ण तत्त्व को समझ लेते हैं; यह आधुनिक संदर्भ में हमें प्रेरित करता है कि परमात्मा की शरण में रहकर और आध्यात्मिक साधना के माध्यम से हम जीवन के गहन रहस्यों को समझ सकते हैं और मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकते हैं।
श्लोक 30
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥30॥
अर्थ: “जो लोग अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ को समझते हुए अंत समय में भी मेरे बारे में जानते हैं, वे योगयुक्त चित्त वाले होते हैं और मुझे प्राप्त करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में कहते हैं कि जो साधक उन्हें प्रकृति, देवताओं, और यज्ञों के मूल अधिष्ठाता के रूप में जानते हैं, वे जीवन के अंतिम क्षण में भी युक्त मन के साथ उन्हें स्मरण करते हैं और उन्हें प्राप्त करते हैं; यह आधुनिक जीवन में हमें यह सिखाता है कि निरंतर भक्ति और परमात्मा के प्रति जागरूकता हमें मृत्यु के समय भी शांति और मुक्ति प्रदान कर सकती है।
श्रीमद् भागवत गीता के सातवें अध्याय सारांश
सातवाँ अध्याय, जिसे “ज्ञान विज्ञान योग” के नाम से जाना जाता है, भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को परम सत्य, उनकी प्रकृति, माया, और भक्ति के मार्ग का गहन ज्ञान प्रदान करता है। श्रीकृष्ण अपनी दो प्रकृतियों—परा (आध्यात्मिक) और अपरा (भौतिक)—की व्याख्या करते हैं, जो विश्व की उत्पत्ति का आधार हैं, और स्वयं को सृष्टि का मूल कारण, आधार, और सर्वोच्च सत्य बताते हैं। वे अपनी सर्वव्यापकता को प्रकृति और मानव जीवन के उत्कृष्ट गुणों में प्रकट करते हैं, जैसे जल का रस, सूर्य का प्रकाश, और बुद्धिमानों की बुद्धि।
श्रीकृष्ण माया को अपनी दैवीय शक्ति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो जीवों को अज्ञान में रखती है, परंतु उनकी शरण लेने वाले इस माया को पार कर लेते हैं। वे चार प्रकार के भक्तों—आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी, और ज्ञानी—का वर्णन करते हैं, जिनमें ज्ञानी भक्त को सर्वश्रेष्ठ बताते हैं, क्योंकि वह निष्काम भाव से परमात्मा में लीन रहता है। अन्य देवताओं की पूजा करने वालों को अस्थायी फल मिलते हैं, जबकि श्रीकृष्ण की भक्ति मोक्ष प्रदान करती है।
अंत में, श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी योगमाया के कारण सामान्य लोग उनके अविनाशी स्वरूप को नहीं जान पाते, परंतु पुण्यकर्मी और द्वंद्वमोह से मुक्त साधक उनकी शरण में आकर ब्रह्म, अध्यात्म, और कर्म के तत्त्व को समझ लेते हैं। जो उन्हें प्रकृति, देवताओं, और यज्ञों का अधिष्ठाता जानते हैं, वे मृत्यु के समय भी उन्हें स्मरण कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार, यह अध्याय भक्ति, ज्ञान, और शरणागति के माध्यम से परम सत्य की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।