श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 8: अक्षर ब्रह्म योग | Bhagwat Geeta Chapter 8

श्रीमद्भागवत गीता का आठवां अध्याय “अक्षर ब्रह्म योग” कहलाता है। यह परमात्मा की प्राप्ति, योग, ध्यान, और अंतकाल में भगवान के स्मरण के महत्व पर केंद्रित है। यह अध्याय अर्जुन के गहरे प्रश्नों के उत्तर देता है और मानव जीवन के अंतिम लक्ष्य—मोक्ष—की ओर मार्गदर्शन करता है।

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 8: अक्षर ब्रह्म योग (Bhagwat Geeta Chapter 8)

श्रीमद् भागवत गीता का आठवां अध्याय, “अक्षर ब्रह्म योग” है। यह अध्याय 28 श्लोकों में विभाजित है। सातवां अध्याय (ज्ञानविज्ञानयोग) भक्ति और ज्ञान के माध्यम से परमात्मा के स्वरूप को समझाने पर केंद्रित है, जबकि आठवां अध्याय इस ज्ञान को गहराई तक ले जाता है।

इस अध्याय की शुरुआत में अर्जुन, सातवें अध्याय के विचारों से प्रेरित होकर, श्रीकृष्ण से कुछ मौलिक प्रश्न पूछते हैं: ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत, अधिदैव, और अधियज्ञ का अर्थ क्या है? और अंतकाल में भगवान का स्मरण कैसे किया जाए? ये प्रश्न न केवल अर्जुन की जिज्ञासा को दर्शाते हैं, बल्कि प्रत्येक आध्यात्मिक साधक के मन में उठने वाले प्रश्नों का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।

श्लोक 1

अर्जुन उवाच।
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम ।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते ॥1॥

अर्थ: “अर्जुन ने कहा: हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है? कर्म क्या है? अधिभूत क्या कहा गया है और अधिदैव क्या कहा जाता है?”

व्याख्या: इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण से ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, और अधिदैव के अर्थ पूछते हैं। ये प्रश्न सातवें अध्याय के ज्ञान से प्रेरित हैं और आध्यात्मिक सत्य को समझने की उनकी जिज्ञासा को दर्शाते हैं। श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम कहकर संबोधित करना उनकी भक्ति को दिखाता है। यह श्लोक अध्याय का आधार तैयार करता है, जो परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट करता है।

श्लोक 2

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ॥2॥

अर्थ: अर्जुन ने आगे पूछा— हे मधुसूदन! यह अधियज्ञ क्या है और वह इस शरीर में कैसे स्थित है? और मृत्यु के समय, आत्मसंयमी (नियतात्मा) पुरुष आपको कैसे जान सकता है?

व्याख्या: अर्जुन अधियज्ञ के स्वरूप और मृत्यु के समय भगवान के स्मरण के बारे में पूछते हैं। यह श्लोक उनकी जिज्ञासा को दर्शाता है कि परमात्मा देह में कैसे निवास करते हैं और अंतकाल में उन्हें कैसे जाना जा सकता है। यह प्रश्न भक्ति और साधना की महत्ता को रेखांकित करता है।

श्लोक 3

श्रीभगवान उवाच।
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसज्ञितः ॥3॥

अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण ने कहा “अक्षर अर्थात् अविनाशी तत्व को ब्रह्म कहते हैं, आत्मा का स्वभाव (जो उसकी शुद्ध सत्ता है) ‘अध्यात्म’ कहा जाता है, और जो सभी प्राणियों की उत्पत्ति का कारण बनता है, वही ‘कर्म’ कहलाता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताते हैं कि ब्रह्म अविनाशी परम सत्य है, अध्यात्म आत्मा का स्वरूप है, और कर्म वह क्रिया है जो सृष्टि को जन्म देती है। यह श्लोक विश्व के मूल तत्वों को स्पष्ट करता है।

श्लोक 4

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥4॥

अर्थ: “हे देहधारी प्राणियों में श्रेष्ठ अर्जुन! नाशवान (क्षर) पदार्थों को अधिभूत कहा गया है, भगवान विष्णु को अधिदैव कहा गया है, और मैं स्वयं, इस शरीर में स्थित होकर, अधियज्ञ हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि अधिभूत भौतिक सृष्टि है, अधिदैव देवताओं का स्वरूप है, और अधियज्ञ स्वयं भगवान हैं, जो देह में यज्ञ के रूप में मौजूद हैं। यह श्लोक परमात्मा की सर्वव्यापकता को दर्शाता है।

श्लोक 5

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मुद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥5॥

अर्थ: “जो व्यक्ति अंत समय में केवल मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है,वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है – इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के समय भगवान का स्मरण करने वाला उनकी परम गति को प्राप्त करता है। यह श्लोक भक्ति और सतत स्मरण के महत्व को रेखांकित करता है, जो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।

श्लोक 6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥6॥

अर्थ: “हे कौन्तेय (अर्जुन)! जो भी प्राणी जीवन के अंत समय में जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है,वह उसी भाव को प्राप्त होता है, क्योंकि वह उसी भावना में रमा हुआ रहता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि मृत्यु के समय मन जिस भाव में लीन होता है, व्यक्ति उसी गति को प्राप्त करता है। यह श्लोक जीवनभर सकारात्मक चिंतन और भगवान के स्मरण के महत्व को रेखांकित करता है।

श्लोक 7

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥7॥

अर्थ: “इसलिए, हे अर्जुन! तुम सदा मेरे स्मरण में रहो और युद्ध करो।यदि तुम अपना मन और बुद्धि मुझे समर्पित कर दोगे,तो तुम निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करोगे – इसमें कोई संदेह नहीं है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को सतत भगवान का स्मरण करते हुए कर्तव्य पालन करने का निर्देश देते हैं। यह श्लोक भक्ति और कर्म के संतुलन को दर्शाता है, जो परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है।

श्लोक 8

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥8॥

अर्थ: “हे पार्थ! जो योगाभ्यास में स्थिर हुआ मन लेकर, और किसी अन्य का स्मरण न करते हुए, केवल परम पुरुष (भगवान) का ही चिंतन करता है, वह दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि नियमित अभ्यास और एकाग्रता के साथ परमात्मा का चिंतन करने वाला उनकी दिव्य प्रकृति को प्राप्त करता है। यह श्लोक योग और ध्यान की महत्ता को दर्शाता है।

श्लोक 9

कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ॥9॥

अर्थ: “(जो परम पुरुष है) वह सबका ज्ञाता, आदि काल से विद्यमान, सबको नियम में रखने वाला, अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, सबके हृदय में स्थित, सबका आधार, अकल्पनीय स्वरूप वाला, सूर्य के समान प्रकाशमान और अंधकार से परे है।”

व्याख्या: यह श्लोक परमात्मा के गुणों का वर्णन करता है, जैसे उनकी सर्वज्ञता, शाश्वतता, और तेजस्वी स्वरूप। यह साधक को उनके दिव्य रूप का चिंतन करने की प्रेरणा देता है।

श्लोक 10

प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥10॥

अर्थ: “जो व्यक्ति मृत्यु के समय, अचल चित्त से, भक्ति में स्थिर होकर, योगबल द्वारा, प्राण को भौंहों के मध्य स्थिर करता है, वह परम दिव्य पुरुष को प्राप्त करता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण योग की तकनीक बताते हैं, जहां साधक मृत्यु के समय भक्ति और एकाग्रता के साथ प्राण को भ्रू-मध्य में स्थापित कर परमात्मा को प्राप्त करता है। यह श्लोक ध्यान की गहन प्रक्रिया को दर्शाता है।

श्लोक 11

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥11॥

अर्थ: “जिस अक्षर ब्रह्म को वेदज्ञ लोग अविनाशी कहते हैं, जिसमें वीतराग (राग-द्वेष से रहित) तपस्वी प्रवेश करते हैं, और जिसकी प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है –उस परमपद को मैं संक्षेप में तुम्हें बताने जा रहा हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण उस अविनाशी ब्रह्म का वर्णन शुरू करते हैं, जिसे वेदों के विद्वान जानते हैं और संन्यासी वैराग्य व ब्रह्मचर्य द्वारा प्राप्त करते हैं। यह श्लोक परम धाम की ओर मार्गदर्शन करता है।

श्लोक 12

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूर्ध्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥12॥

अर्थ: “जो योगी सभी इन्द्रियों के द्वारों को संयमित करता है, मन को हृदय में स्थिर करता है, प्राण को मस्तक में ले जाकर योगधारण में स्थित होता है – वह परम स्थिति की ओर बढ़ता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण योग की तकनीक बताते हैं, जिसमें इंद्रियों का संयम, मन की एकाग्रता, और प्राण को भ्रू-मध्य में स्थापित करना शामिल है। यह श्लोक ध्यान की प्रक्रिया को दर्शाता है।

श्लोक 13

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥13॥

अर्थ: “जो मनुष्य “ॐ” – इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण करते हुए, मुझे स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के समय ॐ का जाप और भगवान का स्मरण करने वाला मोक्ष प्राप्त करता है। यह श्लोक भक्ति और जप की शक्ति को रेखांकित करता है।

श्लोक 14

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्यमुक्तस्य योगिनः ॥14॥

अर्थ: “हे पार्थ! जो व्यक्ति निरंतर और एकनिष्ठ होकर सदा मेरा स्मरण करता है, उस योगी के लिए मैं बहुत ही सरलता से प्राप्त होने वाला हूँ।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि अनन्य भक्ति और निरंतर स्मरण से परमात्मा आसानी से प्राप्त हो जाते हैं। यह श्लोक भक्ति योग की सरलता और शक्ति को दर्शाता है।

श्लोक 15

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥15॥

अर्थ: “जो महात्मा मुझे प्राप्त कर लेते हैं, वे फिर उस दुःखमय और क्षणभंगुर संसार में जन्म नहीं लेते, क्योंकि वे परम सिद्धि को प्राप्त कर चुके होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि परमात्मा को प्राप्त करने वाला पुनर्जन्म के दुख से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है। यह श्लोक आध्यात्मिक साधना के चरम लक्ष्य को दर्शाता है।

श्लोक 16

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥16॥

अर्थ: “हे अर्जुन! ब्रह्मा लोक तक सभी लोकों में रहने वाले प्राणी पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं। परंतु जो मेरी प्राप्ति कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि ब्रह्मलोक तक सभी लोक अस्थायी हैं और वहाँ भी पुनर्जन्म होता है। परंतु परमात्मा की प्राप्ति के बाद साधक जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह श्लोक मोक्ष की श्रेष्ठता को दर्शाता है।

श्लोक 17

सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥17॥

अर्थ: “जो लोग ब्रह्मा का दिन और रात जानते हैं, वे जान लेते हैं कि ब्रह्मा का एक दिन हजार युगों के बराबर होता है और उसकी रात भी हजार युगों के समान ही लंबी होती है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण ब्रह्मा के समय चक्र का वर्णन करते हैं, जहाँ उनका एक दिन और रात्रि प्रत्येक सहस्र युगों (चतुर्युग) के बराबर होते हैं। यह श्लोक सृष्टि की विशालता और काल की गहनता को दर्शाता है।

श्लोक 18

अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसञके ॥18॥

अर्थ: “ब्रह्मा के दिन के आरंभ में सभी प्राणी अव्यक्त (अदृश्य) से प्रकट होते हैं, और रात्रि के आगमन पर वे सब फिर से उसी अव्यक्त रूप में विलीन हो जाते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि सृष्टि ब्रह्मा के दिन में अव्यक्त (प्रकृति) से उत्पन्न होती है और रात्रि में उसी में लीन हो जाती है। यह श्लोक सृष्टि के चक्रीय स्वरूप और उसकी अस्थायी प्रकृति को दर्शाता है।

श्लोक 19

भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते ।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे ॥19॥

अर्थ: “हे पार्थ! यही प्राणियों का समुदाय बार-बार उत्पन्न होता है, और रात्रि के आगमन पर बिना अपनी इच्छा के लय को प्राप्त होता है, फिर दिन के आगमन पर पुनः प्रकट होता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीव बार-बार सृष्टि के चक्र में जन्म लेते और विलीन होते हैं, बिना अपनी इच्छा के। यह श्लोक संसार की बाध्यता और इससे मुक्ति की आवश्यकता को रेखांकित करता है।

श्लोक 20

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः ।
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ॥20॥

अर्थ: “उस अव्यक्त (प्रकृति) से भी परे एक और सनातन अव्यक्त भाव है, जो सभी प्राणियों के नष्ट हो जाने पर भी स्वयं नष्ट नहीं होता – वह अविनाशी है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण उस सनातन, अविनाशी तत्व का वर्णन करते हैं, जो प्रकृति के अव्यक्त से भी परे है और सृष्टि के विनाश में भी अटल रहता है। यह श्लोक परमात्मा की शाश्वत प्रकृति को दर्शाता है।

श्लोक 21

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥21॥

अर्थ: “जिसे अव्यक्त और अविनाशी कहा गया है, उसे ही परम गति (मोक्ष) कहते हैं। जो उसे प्राप्त कर लेते हैं, वे फिर संसार में लौटकर नहीं आते। वह मेरा परम धाम है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अव्यक्त और अक्षर तत्व को परम गति और अपने परम धाम के रूप में वर्णित करते हैं। इसे प्राप्त करने वाला पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह श्लोक मोक्ष के अंतिम लक्ष्य को दर्शाता है।

श्लोक 22

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम् ॥22॥

अर्थ: “हे पार्थ! वह परम पुरुष केवल अनन्य भक्ति द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। वही सर्वत्र व्याप्त है और सभी प्राणी उसी में स्थित हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि परम पुरुष, जो विश्व का आधार है, अनन्य भक्ति से प्राप्त होता है। यह श्लोक भक्ति योग की महत्ता और परमात्मा की सर्वव्यापकता को रेखांकित करता है।

श्लोक 23

यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ॥23॥

अर्थ: “हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं तुम्हें वह काल (समय) बताता हूँ, जिसमें देह का त्याग करने वाले योगी पुनर्जन्म से मुक्त हो जाते हैं या फिर फिर से जन्म को प्राप्त होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण दो प्रकार के मार्गों — मोक्ष और पुनर्जन्म— के समय का वर्णन करने की तैयारी करते हैं। यह श्लोक योगियों के लिए मृत्यु के समय के महत्व को दर्शाता है।

श्लोक 24

अग्निर्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥24॥

अर्थ: “जो ज्ञानी योगी अग्नि, प्रकाश, दिन, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण के समय शरीर त्यागते हैं, वे ब्रह्म को प्राप्त होते हैं – अर्थात मोक्ष को प्राप्त होते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण शुक्ल मार्ग (प्रकाश का मार्ग) का वर्णन करते हैं, जिसमें ब्रह्म को जानने वाले उत्तरायण और शुभ समय में मृत्यु होने पर मोक्ष प्राप्त करते हैं। यह श्लोक आध्यात्मिक समय के महत्व को दर्शाता है।

श्लोक 25

धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥25॥

अर्थ: “जो योगी धूम, रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन के समय शरीर त्यागते हैं, वे चंद्रलोक (या अन्य स्वर्गीय लोक) को प्राप्त होते हैं, परंतु कुछ समय के बाद वे पुनः इस संसार में लौट आते हैं।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कृष्ण मार्ग (अंधकार का मार्ग) का वर्णन करते हैं, जिसमें योगी दक्षिणायन और अशुभ समय में मृत्यु होने पर चंद्रलोक को प्राप्त कर पुनर्जन्म लेता है। यह श्लोक पुनर्जन्म के मार्ग को दर्शाता है।

श्लोक 26

शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ॥26॥

अर्थ: “यह दो प्रकार की गतियाँ – शुक्ल मार्ग (प्रकाश का मार्ग) और कृष्ण मार्ग (अंधकार का मार्ग) – सदैव से संसार में मानी जाती रही हैं। एक मार्ग मोक्ष की ओर ले जाता है, जिससे पुनर्जन्म नहीं होता, जबकि दूसरा मार्ग फिर से जन्म-मरण के चक्र में डाल देता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण शुक्ल और कृष्ण मार्गों का सार बताते हैं। शुक्ल मार्ग मोक्ष की ओर ले जाता है, जबकि कृष्ण मार्ग पुनर्जन्म की ओर। यह श्लोक दोनों मार्गों की शाश्वत प्रकृति को स्पष्ट करता है।

श्लोक 27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥27॥

अर्थ: “हे पार्थ! जो योगी इन दोनों मार्गों को जानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता।इसलिए, तुम सभी समय योग में स्थिर रहो, अर्थात ईश्वर में लगे रहो।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को इन मार्गों का ज्ञान होने पर मोह से मुक्ति की बात कहते हैं। वे सलाह देते हैं कि सदा योग और भक्ति में लीन रहें। यह श्लोक निरंतर साधना की प्रेरणा देता है।

श्लोक 28

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥28॥

अर्थ: “जो योगी यह सब ज्ञान प्राप्त करता है, वह वेदों के अध्ययन, यज्ञों, तप, और दान आदि से मिलने वाले सभी पुण्य फलों को पार कर जाता है, और उस परम सनातन धाम को प्राप्त करता है।”

व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि योगी, जो इन मार्गों का ज्ञान प्राप्त करता है, वेद, यज्ञ, तप, और दान के पुण्य से भी ऊपर उठकर परमात्मा के परम धाम को प्राप्त करता है। यह श्लोक योग की सर्वोच्चता को दर्शाता है।


श्रीमद् भागवत गीता के आठवें अध्याय सारांश

श्रीमद्भगवद्गीता का आठवां अध्याय, जिसे अक्षरब्रह्मयोग कहा जाता है, परमात्मा की प्राप्ति, योग, भक्ति, और मृत्यु के समय के महत्व पर केंद्रित है। इस अध्याय का सार निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:

  • अर्जुन के प्रश्न और उनके उत्तर: अध्याय की शुरुआत अर्जुन के प्रश्नों से होती है, जिसमें वे ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव, अधियज्ञ, और अंतकाल में भगवान के स्मरण के बारे में पूछते हैं। श्रीकृष्ण इनका उत्तर देते हैं, बताते हुए कि ब्रह्म अविनाशी परम सत्य है, अध्यात्म आत्मा का स्वरूप है, कर्म सृष्टि की क्रिया है, अधिभूत भौतिक प्रकृति, अधिदैव देवताओं का नियंता, और अधियज्ञ स्वयं भगवान हैं।
  • अंतकाल में स्मरण का महत्व: श्रीकृष्ण जोर देते हैं कि मृत्यु के समय जो व्यक्ति भगवान का स्मरण करता है, वह उनकी परम गति को प्राप्त करता है। यह स्मरण जीवनभर की भक्ति और अभ्यास का परिणाम है।
  • योग और ध्यान की प्रक्रिया: श्रीकृष्ण योग की तकनीक बताते हैं, जिसमें इंद्रियों का संयम, मन की एकाग्रता, और प्राण को भ्रू-मध्य में स्थापित करना शामिल है। ‘ॐ’ का जाप और भगवान का चिंतन साधक को परम धाम तक ले जाता है।
  • दो मार्ग: शुक्ल और कृष्ण: श्रीकृष्ण दो मार्गों का वर्णन करते हैं—शुक्ल मार्ग (प्रकाश का मार्ग), जो उत्तरायण और शुभ समय में मृत्यु होने पर ब्रह्म की प्राप्ति कराता है, और कृष्ण मार्ग (अंधकार का मार्ग), जो दक्षिणायन और अशुभ समय में मृत्यु होने पर पुनर्जन्म की ओर ले जाता है।
  • परम धाम की महत्ता: श्रीकृष्ण बताते हैं कि सभी लोक, यहाँ तक कि ब्रह्मलोक भी, अस्थायी हैं और पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। परंतु परमात्मा का परम धाम अविनाशी है, जहाँ पहुँचकर साधक जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। यह धाम केवल अनन्य भक्ति से प्राप्त होता है।
  • निरंतर साधना का आह्वान: श्रीकृष्ण अर्जुन को सदा योगयुक्त रहने और इन मार्गों के ज्ञान से मोह मुक्त होने की सलाह देते हैं। वे कहते हैं कि योगी, जो इस ज्ञान को समझता है, वेद, यज्ञ, तप, और दान के पुण्य से भी ऊपर उठकर परम सिद्धि प्राप्त करता है।

यह अध्याय हमें यह सिखाता है कि ईश्वर का निरंतर स्मरण, भक्ति, योग और आत्मचिंतन के माध्यम से मनुष्य मृत्यु के भय से ऊपर उठ सकता है और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। मृत्यु के समय मन की स्थिति ही भविष्य तय करती है, इसलिए जीवनभर साधना और भगवान में मन लगाने का अभ्यास ही जीवन की सबसे बड़ी सफलता है।