श्रीमद्भागवत गीता का नवां अध्याय “राज विद्या योग” कहलाता है। यह गीता का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अध्याय है। “राजविद्या” का अर्थ है — ज्ञानों में श्रेष्ठ ज्ञान, और “राजगुह्य” का अर्थ है — रहस्यों में श्रेष्ठ रहस्य। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को वह परम रहस्य बताते हैं जो भक्ति, आत्मा, और भगवान के सच्चे स्वरूप को प्रकट करता है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 9: राज विद्या योग (Bhagwat Geeta Chapter 9)
श्रीमद् भागवत गीता का नवां अध्याय, “राज विद्या योग” है। यह अध्याय 34 श्लोकों में विभाजित है। राजविद्या राजगुह्य योग, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, ज्ञान और भक्ति का सर्वोच्च रहस्य उजागर करता है। इस अध्याय की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें भगवान स्वयं को एक सार्वभौमिक सत्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो सब कुछ में व्याप्त हैं — जीवों में भी और निर्जीव पदार्थों में भी।यह अध्याय भक्ति मार्ग को ही परम और सबसे सरल मार्ग घोषित करता है, जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति – चाहे किसी भी वर्ण, जाति, या अवस्था का हो – भगवान को प्राप्त कर सकता है।
श्लोक 1
श्रीभगवानुवाच।
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ॥1॥
अर्थ: भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: “हे अनसूय (ईर्ष्या रहित) अर्जुन! अब मैं तुम्हें यह अत्यंत गुप्त (गुह्यतम) ज्ञान बताने जा रहा हूँ, जो विज्ञान (अनुभवजन्य ज्ञान) सहित है। इसे जानकर तुम समस्त अशुभों (माया और संसार के बंधनों) से मुक्त हो जाओगे।”
व्याख्या: इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को अति गोपनीय ज्ञान देने का वचन देते हैं, जो केवल श्रद्धालु और निष्कपट हृदय वाले को मिलता है। यह ज्ञान सैद्धांतिक और अनुभवात्मक दोनों है, जो भक्ति और ईश्वर के स्वरूप को समझाता है। इसे जानने से मनुष्य अज्ञान और दुखों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 2
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥2॥
अर्थ: “यह ज्ञान राजविद्या (ज्ञानों में श्रेष्ठ) और राजगुह्य (रहस्यों में श्रेष्ठ) है। यह अत्यंत पवित्र, प्रत्यक्ष अनुभव योग्य, धार्मिक (धर्म के अनुकूल), अत्यंत सुखपूर्वक करने योग्य और अविनाशी है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस ज्ञान को राजविद्या (सर्वोच्च ज्ञान) और राजगुह्य (गहन रहस्य) बताते हैं। यह पवित्र, धर्मसंगत और अनुभव से ग्रहण करने योग्य है। इसे अपनाना सरल है और इसके फल शाश्वत हैं, जो आत्मिक शांति और मोक्ष प्रदान करते हैं।
श्लोक 3
अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥3॥
अर्थ: “हे परंतप (शत्रुओं को संतप्त करने वाले अर्जुन)! जो लोग इस धर्म (राजविद्या) में श्रद्धा नहीं रखते, वे मुझे प्राप्त किए बिना ही मृत्यु और जन्म के चक्र में वापस लौट जाते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि बिना श्रद्धा के लोग इस ज्ञान को ग्रहण नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप, वे ईश्वर से वंचित रहकर जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रहते हैं। यह श्रद्धा के महत्व को रेखांकित करता है।
श्लोक 4
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ॥4॥
अर्थ: “यह सम्पूर्ण जगत मेरी अव्यक्त रूप से व्याप्त है। सभी प्राणी मुझमें स्थित हैं, किन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ (मैं उनसे परे और स्वतंत्र हूँ)।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी सर्वव्यापकता बताते हैं। उनका अव्यक्त स्वरूप विश्व को व्याप्त किए हुए है, सभी प्राणी उनमें आधारित हैं, परंतु वे प्राणियों में सीमित नहीं। यह ईश्वर की असीम प्रकृति को दर्शाता है।
श्लोक 5
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥5॥
अर्थ: “वास्तव में ये प्राणी मुझमें स्थित नहीं हैं – यह है मेरी ईश्वरीय योग शक्ति का रहस्य। मैं सभी प्राणियों का पालक हूँ, लेकिन न तो मैं उनमें स्थित हूँ और न ही वे वास्तव में मुझमें।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अपने ईश्वरीय योग की रहस्यमय प्रकृति बताते हैं। वे प्राणियों को धारण करते हैं, पर उनमें सीमित नहीं। उनका आत्मा सृष्टि का सृजन और पोषण करता है, जो उनकी सर्वोच्च शक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 6
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥6॥
अर्थ: “जैसे वायु सर्वत्र व्याप्त होकर भी आकाश में स्थित रहती है, वैसे ही सभी प्राणी भी मुझमें स्थित हैं, ऐसा तुम समझो।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण इस श्लोक में अपनी सर्वव्यापकता को वायु और आकाश के दृष्टांत से समझाते हैं। जैसे वायु आकाश में निरंतर और सर्वत्र व्याप्त रहती है, वैसे ही सभी प्राणी ईश्वर में आधारित हैं। यह श्लोक ईश्वर की असीम और आधारभूत प्रकृति को दर्शाता है, जो सभी प्राणियों को धारण करता है, परंतु स्वयं उनमें सीमित नहीं है।
श्लोक 7
सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृति यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥7॥
अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र! कल्प के अंत में सभी प्राणी मेरी प्रकृति में लीन हो जाते हैं, और कल्प के आरंभ में मैं उन्हें पुनः उत्पन्न करता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि सृष्टि के चक्र में, कल्प के अंत में सभी प्राणी उनकी प्रकृति (माया) में समाहित हो जाते हैं। नए कल्प के आरंभ में वे पुनः सृष्टि करते हैं। यह उनकी सृष्टि की चक्रीय प्रकृति और सर्वोच्च नियंत्रण को दर्शाता है।
श्लोक 8
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः ।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ॥8॥
अर्थ: “मैं अपनी प्रकृति को अपने अधीन करके, बार-बार सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि करता हूँ। ये सभी प्राणी प्रकृति के वश में होकर (अपने-आप) उत्पन्न होते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे अपनी प्रकृति (माया) के माध्यम से प्राणियों की सृष्टि बार-बार करते हैं। प्राणी प्रकृति के नियमों से बंधे हैं, परंतु ईश्वर इस सृष्टि के स्वतंत्र नियंत्रक हैं।
श्लोक 9
न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥9॥
अर्थ: “हे धनंजय! ये समस्त कर्म मुझे बांधते नहीं हैं, क्योंकि मैं इन कर्मों में उदासीन (निरपेक्ष) और आसक्ति रहित रहता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि सृष्टि, पालन और संहार जैसे कर्म उन पर बंधन नहीं डालते। वे उदासीन और निष्काम भाव से कार्य करते हैं, जो उनकी अलिप्त और सर्वोच्च प्रकृति को दर्शाता है।
श्लोक 10
मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥10॥
अर्थ: “मेरी अध्यक्षता में यह प्रकृति चर और अचर (चल और अचल) जगत की सृष्टि करती है। हे कुन्तीपुत्र! इसी कारण यह सारा संसार चक्र रूप से चलता रहता है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी अध्यक्षता में प्रकृति विश्व का सृजन करती है। विश्व का परिवर्तन और गतिशीलता उनकी इच्छा और नियंत्रण से संचालित होती है, जो उनकी सर्वशक्तिमानता को दर्शाता है।
श्लोक 11
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषीं तनुमाश्रितम् ।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ॥11॥
अर्थ: “मूर्ख लोग मुझे मानव शरीर धारण किए हुए देखकर तुच्छ समझते हैं, क्योंकि वे मेरे परम स्वरूप, जो सभी प्राणियों का महान नियंता है, को नहीं जानते।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि अज्ञानी लोग उनके मानव रूप को देखकर उनकी दिव्यता को समझ नहीं पाते। वे उनके परम स्वरूप, जो सभी प्राणियों का नियंता है, से अनजान रहते हैं, जो उनकी महिमा को प्रकट करता है।
श्लोक 12
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः ॥12॥
अर्थ: “जो लोग भ्रमित बुद्धि वाले होते हैं, उनकी आशाएं व्यर्थ, कर्म निष्फल और ज्ञान निरर्थक होता है। वे लोग राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को अपनाते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि अज्ञानी लोग, जो उनकी दिव्यता को नहीं समझते, व्यर्थ के कर्म और आशाओं में फंसकर राक्षसी और आसुरी प्रवृत्तियों में लिप्त रहते हैं, जिससे वे मोक्ष से वंचित रहते हैं।
श्लोक 13
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवी प्रकृतिमाश्रिताः ।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥13॥
अर्थ: “हे पार्थ! परन्तु महात्मा लोग दैवी प्रकृति को अपनाकर, मुझे संपूर्ण प्राणियों का अविनाशी आदि कारण जानकर, एकनिष्ठ मन से मेरी भक्ति करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि महान आत्माएं, जो दैवी प्रकृति का अनुसरण करती हैं, उनके अविनाशी और सृष्टि के आदि स्वरूप को समझकर पूर्ण समर्पण के साथ उनकी भक्ति करती हैं। यह भक्ति की श्रेष्ठता को दर्शाता है।
श्लोक 14
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥14॥
अर्थ: “वे महात्मा नित्य मेरी कीर्ति गाते रहते हैं, दृढ़ संकल्प से यत्न करते हैं, भक्ति से मेरा नमस्कार करते हैं, और नित्य निरंतर मुझे उपासते (पूजते) हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण भक्तों के गुण बताते हैं जो निरंतर उनका स्मरण, कीर्तन और उपासना करते हैं। दृढ़ संकल्प और भक्ति के साथ वे ईश्वर से सदा जुड़े रहते हैं, जो अनन्य भक्ति का आदर्श है।
श्लोक 15
ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥15॥
अर्थ: “कुछ अन्य ज्ञानी लोग मुझे ज्ञान रूप यज्ञ के द्वारा पूजते हैं। वे मुझे एक रूप में, विभिन्न रूपों में, और समस्त रूपों में व्याप्त (विश्वमुख) मानकर उपासना करते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि कुछ भक्त ज्ञान के मार्ग से उनकी उपासना करते हैं। वे ईश्वर को एकमात्र, विभिन्न रूपों में या विश्व के सभी रूपों में देखकर पूजते हैं, जो भक्ति की विविधता को दर्शाता है।
श्लोक 16
अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ॥16॥
अर्थ: “मैं ही यज्ञस्वरूप क्रतुओं का रूप हूँ, मैं यज्ञ हूँ, मैं ही पितरों को दी जाने वाली स्वधा हूँ, मैं औषधि हूँ, मैं ही मंत्र हूँ, मैं ही घृत (आहुति) हूँ, मैं अग्नि हूँ, और मैं ही आहुति हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे यज्ञ के सभी तत्व हैं—क्रिया, सामग्री और परिणाम। यह उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है, जहां हर धार्मिक कार्य में वे ही समाहित हैं।
श्लोक 17
पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रमोङ्कार ऋक्साम यजुरेव च ॥17॥
अर्थ: “मैं इस संसार का पिता हूँ, माता हूँ, कर्ता हूँ और पितामह (परदादा) हूँ। मैं वेदों में जानने योग्य तत्व, पवित्रता, ॐकार, और ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद भी हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्वयं को विश्व का सृष्टिकर्ता, पालक और पवित्र ज्ञान का स्रोत बताते हैं। वे वेदों और ओमकार के रूप में सर्वोच्च सत्य हैं, जो उनकी सर्वोच्चता और पवित्रता को प्रकट करता है।
श्लोक 18
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ॥18॥
अर्थ: “मैं ही सबकी गति (मोक्ष) हूँ, भर्ता (पालनकर्ता) हूँ, स्वामी, साक्षी, निवास, शरण, और सच्चा मित्र हूँ। मैं ही सृष्टि का उद्गम, प्रलय, आधार, भंडार और अविनाशी बीज हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण स्वयं को विश्व का लक्ष्य, आधार, साक्षी और शरण बताते हैं। वे सृष्टि, प्रलय और अविनाशी स्रोत हैं, जो उनकी सर्वत्र उपस्थिति और कृपा को दर्शाता है।
श्लोक 19
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥19॥
अर्थ: “हे अर्जुन! मैं ही सूर्य के रूप में तपता हूँ, वर्षा को रोकता और बरसाता हूँ। मैं ही अमृत (अविनाशी) और मृत्यु (नाशवान) हूँ। मैं ही सत (साकार) और असत (निराकार) हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी सर्वव्यापकता बताते हैं कि वे प्रकृति के सभी कार्यों—ताप, वर्षा, जीवन, मृत्यु और सत्य-असत्य—के नियंता हैं। यह उनकी सृष्टि में सर्वत्र उपस्थिति को दर्शाता है।
श्लोक 20
त्रैविद्या माँ सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान् ॥20॥
अर्थ: “त्रैविद्य (तीनों वेदों के ज्ञानी), सोमरस पीने वाले, पापरहित लोग, यज्ञों द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति की कामना करते हैं। वे पुण्य प्राप्त कर इंद्र के लोक में जाते हैं और वहाँ देवताओं के दिव्य भोग भोगते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्मकांडी भक्त, जो यज्ञों द्वारा स्वर्ग की कामना करते हैं, पुण्य लोकों में सुख भोगते हैं। यह सांसारिक फल की कामना वाली भक्ति का वर्णन है, जो अस्थायी है।
श्लोक 21
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥21॥
अर्थ: “वे विशाल स्वर्गलोक में भोगों का अनुभव करके, पुण्य समाप्त होने पर फिर से मृत्युलोक में लौट आते हैं। इस प्रकार वेदों के अनुसार कर्म करने वाले कामना से प्रेरित लोग आवागमन (जन्म-मरण) को प्राप्त होते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वर्ग के सुख अस्थायी हैं। पुण्य समाप्त होने पर जीव पुनः संसार में लौटता है। यह कामना से प्रेरित भक्ति की सीमित प्रकृति को दर्शाता है।
श्लोक 22
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥22॥
अर्थ: “जो व्यक्ति अनन्य भक्ति से मेरी उपासना करते हैं और सदा मुझे ही चिन्तन करते हैं, उन नित्ययुक्त भक्तों के योग (प्राप्ति) और क्षेम (संरक्षण) का मैं स्वयं वहन करता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अनन्य भक्ति की महिमा बताते हैं। जो भक्त केवल उनकी शरण में रहते हैं, उनकी आध्यात्मिक और सांसारिक आवश्यकताओं की रक्षा स्वयं ईश्वर करते हैं।
श्लोक 23
येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥23॥
अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र! जो श्रद्धा से अन्य देवताओं की उपासना करते हैं, वे भी मुझे ही पूजते हैं, किन्तु विधिपूर्वक नहीं, अर्थात् अज्ञानवश और अप्रत्यक्ष रूप में।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि अन्य देवताओं की पूजा भी अंततः उनकी ओर जाती है, क्योंकि वे ही सभी देवताओं के स्रोत हैं। लेकिन ऐसी पूजा विधि-रहित होने से सीमित फल देती है।
श्लोक 24
अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥24॥
अर्थ: “मैं ही सभी यज्ञों का भोक्ता और स्वामी हूँ। परन्तु लोग मुझे तत्त्व से नहीं जानते, इसलिए वे अपने पुण्य से च्युत हो जाते हैं, अर्थात् सही लक्ष्य को नहीं प्राप्त करते।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे सभी यज्ञों के भोक्ता और स्वामी हैं। जो लोग उनकी परम सत्ता को नहीं समझते, वे अस्थायी फल प्राप्त कर संसार में लौटते हैं।
श्लोक 25
यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥25॥
अर्थ: “देवताओं की पूजा करने वाले देवताओं के पास जाते हैं, पितरों की पूजा करने वाले पितरों के पास जाते हैं, भूत-प्रेत पूजक भूतों में जाते हैं, और मेरी पूजा करने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण बताते हैं कि विभिन्न उपासक अपनी-अपनी पूजा के अनुसार अस्थायी लोक प्राप्त करते हैं। परंतु उनके भक्त, जो अनन्य भाव से उनकी भक्ति करते हैं, सीधे उन्हें प्राप्त करते हैं, जो मोक्ष का मार्ग है।
श्लोक 26
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥26॥
अर्थ: “जो श्रद्धालु मनुष्य प्रेमपूर्वक मुझे पत्ता, फूल, फल या जल भी अर्पित करता है, तो मैं उसके भक्ति से अर्पित किए हुए उस वस्तु को स्वीकार करता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि भक्ति का भाव सर्वोपरि है। साधारण वस्तुएं भी यदि शुद्ध भक्ति से अर्पित की जाएं, तो वे उन्हें स्वीकार करते हैं। यह भक्ति की सादगी और शक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 27
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥27॥
अर्थ: “हे कुन्तीपुत्र! तू जो कुछ करता है, जो खाता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है, और जो तप करता है, वह सब कुछ मुझे अर्पण करके कर।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अर्जुन को सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित करने का उपदेश देते हैं। यह निष्काम कर्म और भक्ति का मार्ग है, जो जीवन के प्रत्येक कार्य को ईश्वर से जोड़ता है।
श्लोक 28
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः ।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥28॥
अर्थ: “इस प्रकार कर्मों के शुभ-अशुभ फलों के बंधन से तू मुक्त हो जाएगा। त्याग और योग से युक्त होकर, तू मुझ परमेश्वर को प्राप्त होगा।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि कर्मों को ईश्वर को अर्पण करने से जीव कर्म-बंधनों से मुक्त होता है। संन्यास और भक्ति योग के द्वारा वह मोक्ष प्राप्त कर ईश्वर तक पहुंचता है।
श्लोक 29
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् || 29||
अर्थ: “मैं सभी प्राणियों में समभाव से स्थित हूँ, मुझे कोई न अप्रिय है, न प्रिय। परंतु जो प्रेमपूर्वक मेरी भक्ति करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं उनमें निवास करता हूँ।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण अपनी निष्पक्षता बताते हैं, पर जो भक्त उन्हें भक्ति से पूजते हैं, उनके साथ वे विशेष रूप से संनादति हैं। यह भक्ति के माध्यम से ईश्वर से एकता को दर्शाता है।
श्लोक 30
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥30॥
अर्थ: “यदि कोई अत्यंत दुराचारी व्यक्ति भी अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है, तो उसे साधु ही मानना चाहिए, क्योंकि वह संकल्पपूर्वक सुधार के मार्ग पर है।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि भक्ति इतनी शक्तिशाली है कि दुराचारी भी यदि अनन्य भाव से उनकी शरण लेता है, तो वह साधु के समान है। उसका शुद्ध संकल्प उसे पवित्र बनाता है।
श्लोक 31
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥31॥
अर्थ: “वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शांति को प्राप्त करता है। हे कुन्तीपुत्र, यह निश्चित जान कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि उनका भक्त शीघ्र ही धर्म के मार्ग पर चल पड़ता है और शाश्वत शांति पाता है। वे अपने भक्तों की रक्षा का वचन देते हैं।
श्लोक 32
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥32॥
अर्थ: “हे पार्थ! जो स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि से उत्पन्न व्यक्ति भी मेरी शरण लेते हैं, वे भी परम गति (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि उनकी भक्ति में कोई भेदभाव नहीं। सामाजिक स्थिति, लिंग या जन्म की परवाह किए बिना, जो उनकी शरण लेता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है।
श्लोक 33
किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ॥33॥
अर्थ: “जब पुण्यात्मा ब्राह्मण और राजर्षि जैसे भक्तों की बात करें, तो वे निश्चित ही मुझे प्राप्त होते हैं। इसलिए इस क्षणभंगुर और दुखमय संसार को पाकर तू मेरी भक्ति कर।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि पापयोनि भी मोक्ष पा सकती है, तो पुण्य आत्माएं और राजर्षि निश्चित रूप से पा सकती हैं। वे अर्जुन को इस दुखमय संसार में भक्ति करने का उपदेश देते हैं।
श्लोक 34
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः ॥34॥
अर्थ: “मुझमें मन लगाओ, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो। इस प्रकार मुझमें तन्मय होकर, मुझे ही परम लक्ष्य मानकर, तू मुझे ही प्राप्त करेगा।”
व्याख्या: श्रीकृष्ण भक्ति का व्यावहारिक मार्ग बताते हैं: ईश्वर का चिन्तन, भक्ति, पूजा और समर्पण। यह अनन्य भक्ति का मार्ग है, जो जीव को ईश्वर तक ले जाता है।
श्रीमद् भागवत गीता के नवें अध्याय सारांश
श्रीमद्भगवद्गीता का नवां अध्याय, जिसे राजविद्या-राजगुह्य योग (सर्वोच्च ज्ञान और गहन रहस्य का योग) कहा जाता है, भक्ति योग और ईश्वर के साथ अनन्य संबंध पर केंद्रित है। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को वह गोपनीय और पवित्र ज्ञान प्रदान करते हैं, जो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। इसका सारांश निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:
- ईश्वर की सर्वव्यापकता और सृष्टि का नियंत्रण: श्रीकृष्ण बताते हैं कि वे विश्व के सृष्टिकर्ता, पालक और नियंता हैं। सभी प्राणी उनमें समाहित हैं, और उनकी माया (प्रकृति) के द्वारा सृष्टि का संचालन होता है। वे सृष्टि, पालन और प्रलय के चक्र को नियंत्रित करते हैं, परंतु स्वयं कर्मों से अलिप्त रहते हैं।
- भक्ति की महिमा: यह अध्याय भक्ति को सर्वोच्च मार्ग के रूप में प्रस्तुत करता है। अनन्य भक्ति (निष्काम और एकनिष्ठ भक्ति) के माध्यम से भक्त ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि भक्ति में कोई भेदभाव नहीं; चाहे कोई दुराचारी, पापयोनि, स्त्री, वैश्य या शूद्र हो, सभी उनकी शरण में मोक्ष पा सकते हैं।
- कामनायुक्त और अनन्य भक्ति का अंतर: श्रीकृष्ण कर्मकांडी भक्ति (जो स्वर्गादि सांसारिक फल की कामना से प्रेरित है) और अनन्य भक्ति (जो केवल ईश्वर की प्राप्ति के लिए है) में अंतर स्पष्ट करते हैं। कामनायुक्त भक्ति अस्थायी फल देती है, जबकि अनन्य भक्ति मोक्ष की ओर ले जाती है।
- ईश्वर का स्वरूप और उपासना के रूप: श्रीकृष्ण स्वयं को यज्ञ, वेद, ओमकार, विश्व का आधार और सभी प्राणियों का शरण बताते हैं। वे भक्तों को विभिन्न रूपों—एकत्व, पृथक्त्व या विश्वरूप—में उपासना करने की स्वतंत्रता देते हैं, परंतु सभी उपासना अंततः उन तक पहुंचती है।
- भक्ति का सरल और समावेशी मार्ग: श्रीकृष्ण भक्ति को सरल और सभी के लिए सुलभ बताते हैं। एक पत्र, पुष्प, फल या जल भी यदि शुद्ध भक्ति से अर्पित किया जाए, तो वे उसे स्वीकार करते हैं। वे सभी कर्मों को ईश्वर को समर्पित करने और निरंतर उनका चिंतन करने का उपदेश देते हैं।
- ईश्वर की कृपा और रक्षा: श्रीकृष्ण अपने भक्तों को आश्वासन देते हैं कि जो अनन्य भक्ति से उनकी शरण लेते हैं, उनका योग (आध्यात्मिक उन्नति) और क्षेम (रक्षा) वे स्वयं वहन करते हैं। उनका भक्त कभी नष्ट नहीं होता।