कमलनाथ महादेव मंदिर राजस्थान के उदयपुर जिले की झाड़ोल तहसील के भीतर आवरगढ़ की दुर्गम पहाड़ियों में स्थित एक प्राचीन धार्मिक स्थल है। यह मंदिर भगवान महादेव को समर्पित है। यह न केवल भगवान शिव के भक्तों का केंद्र है, बल्कि रावण की भक्ति की अनोखी कथा के कारण भी प्रसिद्ध है। पुराणों और जनश्रुतियों के अनुसार, इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग की स्थापना स्वयं लंकापति रावण द्वारा की गई थी। स्थानीय मान्यता यह है कि यदि पहले रावण की पूजा न की जाए, तो महादेव की संपूर्ण पूजा व्यर्थ हो जाती है।
कमलनाथ महादेव मंदिर झाड़ोल (Kamalnath Mahadev Temple Jhadol)
| मंदिर का नाम:- | कमलनाथ महादेव मंदिर (Kamalnath Mahadev Temple) |
| स्थान:- | आवरगढ़ की पहाड़ियां में, झाड़ोल तहसील, उदयपुर जिला, राजस्थान (उदयपुर से 70 से 80 किलोमीटर दूर) |
| समर्पित देवता:- | भगवान शिव (महादेव) |
| निर्माण वर्ष:- | प्राचीन काल |
| प्रसिद्ध त्यौहार:- | महाशिवरात्रि, सावन मास |
कमलनाथ महादेव मंदिर झाड़ोल का इतिहास
कमलनाथ महादेव मंदिर का इतिहास हजारों वर्ष पुराना माना जाता है।
रावण की कठोर तपस्या और कमलनाथ नामकरण
यह मंदिर लंकापति रावण की भक्ति और अद्वितीय त्याग की कहानी से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। पौराणिक आख्यानों के अनुसार, रावण भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचा और वहां पर घोर तपस्या की थी। रावण के कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे वरदान मांगने को कहा। तब रावण ने भगवान शिव से लंका चलने का वरदान मांगा। इस पर महादेव रावण के साथ शिवलिंग के रूप में लंका जाने के लिए तैयार हो गए लेकिन उन्होंने एक शर्त रख दी कि अगर उसने मार्ग में शिवलिंग को कहीं पर भी रखा तो वह उसी जगह स्थापित हो जाएँगे।
कैलाश पर्वत से लंका तक का मार्ग अत्यंत लंबा था। यात्रा के दौरान, रावण को थकान महसूस हुई और अनजाने में या विवशता में, उसने शिवलिंग को धरती पर रख दिया था। शर्त के अनुसार, शिवलिंग उसी स्थान पर स्थायी रूप से स्थापित हो गया और रावण के अथक प्रयासों के बावजूद टस से मस न हुआ था। अपनी गलती का एहसास होने पर, रावण ने पश्चात्ताप करने के लिए उसी स्थल पर पुनः कठोर तपस्या शुरू की। यह तपस्या साढ़े बारह वर्ष तक चली, जो रावण की अटूट और दीर्घकालिक भक्ति को दर्शाती है।
पुनः शुरू की गई इस तपस्या के दौरान, रावण की पूजा विधि विशिष्ट थी। वह प्रतिदिन 108 कमल के फूलों से भगवान शिव का पूजन करता था। जब रावण की यह तपस्या अपनी सफलता के शिखर पर पहुँचने वाली थी, तब ब्रह्मा जी (कुछ कथाओं में विष्णु जी) ने रावण की भक्ति की अंतिम परीक्षा लेने का निश्चय किया। एक दिन पूजा के समय, उन्होंने कमल के फूलों में से एक पुष्प को अदृश्य कर दिया।
पूजा करते समय जब एक कमल का पुष्प कम पड़ा तो रावण ने तुरंत अपना एक शीश काटकर भगवान शिव को अर्पित कर दिया था। रावण की इस कठोर और अद्वितीय भक्ति से प्रसन्न होकर शिव ने उसे वरदान स्वरूप उसकी नाभि में अमृत कुंड स्थापित कर दिया, जिससे वह अमर हो गया और उसे दस शीश का वरदान भी मिला था। चूँकि रावण ने कमल के फूलों के प्रति अपने समर्पण को पूर्ण करने के लिए अपना शीश अर्पित किया, इसलिए भगवान शिव ने इस स्थान को कमलनाथ महादेव के नाम से जाना जाता है।
महाराणा प्रताप और आवरगढ़ का संबंध
सोलहवीं शताब्दी में जब मेवाड़ मुगल साम्राज्य के विरुद्ध अपनी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था, तब कमलनाथ महादेव मंदिर और आवरगढ़ की पहाड़ियाँ मेवाड़ के महानतम शासक महाराणा प्रताप के संघर्ष की साक्षी बनीं थी।
1576 में हल्दीघाटी के युद्ध के बाद जब महाराणा प्रताप को मुगलों के खिलाफ युद्ध जारी रखने के लिए सुरक्षित ठिकानों की आवश्यकता थी, तब उन्होंने आवरगढ़ क्षेत्र को अपना महत्वपूर्ण केंद्र बनाया था। उन्होंने विकट समय में यहां समय बिताया था। इस क्षेत्र ने मेवाड़ के लिए सैन्य और चिकित्सा केंद्र का कार्य किया था।
मंदिर के आसपास की पहाड़ियों में आज भी कई कुंड और अनेकों मकानों के खंडर मौजूद हैं, जिनके बारे में स्थानीय निवासी बताते हैं कि ये खंडर महाराणा प्रताप के झाड़ोल निवास के समय से बने थे। हल्दीघाटी युद्ध के ठीक बाद, सन 1577 में, महाराणा प्रताप ने इसी पहाड़ी पर पहली बार होलिका दहन किया था। इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में तब से लेकर आज तक, समस्त झाड़ोल क्षेत्र में सर्वप्रथम होलिका दहन इसी स्थान पर किया जाता है। प्रतिवर्ष होली के अवसर पर, महाराणा प्रताप के अनुयायी और झाड़ोल के लोग पहाड़ी पर एकत्र होते हैं और कमलनाथ महादेव मंदिर के पुजारी द्वारा होलिका दहन किया जाता है।
कटे हुए शिवलिंग की कहानी
इस कटे हुए शिवलिंग से एक किवदंती जुड़ी हुई है। किवदंती और स्थानीय मान्यताओं के अनुसार कमलनाथ महादेव एक बछड़े के रूप में एक ग्वाले की गाय का पूरा दूध पी जाते थे। एक दिन ग्वाला गाय का पीछा करते हुए आया और उसने बछड़े को गाय का दूध पीते देखा। ग्वाले को वो बछड़ा कुछ मायावी सा लगा, इस वजह से ग्वाले ने बछड़े के सिर पर कुल्हाड़ी से वार कर दिया जिससे बछड़े के सिर पर कटने का निशान हो गया। बाद में जब महादेव, बछड़े से वापस शिवलिंग के रूप में आए तो कुल्हाड़ी के वार से कटने का वह निशान शिवलिंग पर भी दिखाई देने लग गया।
कमलनाथ महादेव मंदिर झाड़ोल की वास्तुकला और संरचना
कमलनाथ महादेव मंदिर सामान्य राजस्थानी शैली में बना हुआ है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में एक शिवलिंग स्थापित है, जो बीच में से कटा हुआ है। गर्भगृह में एक रावण की प्रतिमा भी स्थापित है, जिसे भगवान से पहले पूजा जाता है। मुख्य गर्भगृह के सामने भगवान शिव के वाहन नंदी की प्रतिमा स्थापित है।

मुख्य शिवलिंग और रावण की मूर्ति के अलावा, परिसर में माता पार्वती, गणेश जी, विष्णु जी, लक्ष्मी जी, नवग्रह और हनुमान जी की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। प्राकृतिक जल स्रोतों के रूप में मंदिर में एक गोमुख कुंड है, जिससे जल की धारा वर्षभर निरंतर बहती रहती है। मंदिर तक आने वाले रास्ते पर एक प्राचीन शनि महाराज का मंदिर भी है।

कमलनाथ महादेव मंदिर झाड़ोल तक कैसे पहुँचें?
मंदिर का स्थान: यह मंदिर राजस्थान के उदयपुर जिले में झाड़ोल तहसील की आवरगढ़ की पहाड़ियों में स्थित है, जो उदयपुर से लगभग 75 से 80 किलोमीटर दूर है।
मंदिर तक पहुंचने का विकल्प इस प्रकार है:
- सड़क मार्ग: यह मंदिर उदयपुर से लगभग 70 से 80 किलोमीटर दूर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए आपको उदयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर झाड़ोल पहुंचना होगा। झाड़ोल से मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है, जिसमें से लगभग 1 से 2 किलोमीटर पथरीला रास्ता पैदल चढ़कर जाना पड़ता है।
- रेल मार्ग: मंदिर का नजदीकी रेलवे स्टेशन उदयपुर रेलवे स्टेशन है, जो मंदिर से लगभग 75 से 80 किलोमीटर दूर है। उसके बाद आपको उदयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर झाड़ोल पहुंचना होगा। झाड़ोल से मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है, जिसमें से लगभग 1 से 2 किलोमीटर पथरीला रास्ता पैदल चढ़कर जाना पड़ता है।
- हवाई मार्ग: महाराणा प्रताप हवाई अड्डा कमलनाथ महादेव मंदिर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हवाई अड्डे से आप ऑटो, टैक्सी, बस या अन्य स्थानीय परिवहन से उदयपुर पहुंच सकते हैं। उसके बाद आपको उदयपुर से लगभग 50 किलोमीटर दूर झाड़ोल पहुंचना होगा। झाड़ोल से मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग 15 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है, जिसमें से लगभग 1 से 2 किलोमीटर पथरीला रास्ता पैदल चढ़कर जाना पड़ता है।
