कोणार्क सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी जिले में कोणार्क में, समुद्र तट के पास स्थित एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यह मंदिर भगवान सूर्य देवता को समर्पित है। 13वीं शताब्दी में निर्मित यह मंदिर भगवान सूर्य के भव्य रथ के रूप में परिकल्पित है। यूनेस्को द्वारा 1984 में विश्व धरोहर घोषित यह स्थल, अपनी जटिल नक्काशी, कामुक मूर्तियों और सूर्य घड़ी जैसी वैज्ञानिक विशेषताओं के लिए विश्वविख्यात है।
ऐतिहासिक रूप से यूरोपीय नाविकों द्वारा इसे “ब्लैक पैगोडा” (Black Pagoda) के नाम से संबोधित किया जाता था, क्योंकि इसका विशाल गहरा शिखर समुद्र से ही दिखाई देता था और नाविकों के लिए एक महत्वपूर्ण दिशा-सूचक (Landmark) का कार्य करता था।
कोणार्क सूर्य मंदिर कोणार्क (Konark Sun Temple Konark)
| मंदिर का नाम:- | कोणार्क सूर्य मंदिर (Konark Sun Temple) |
| स्थान:- | कोणार्क, पूरी जिला, ओडिशा (बंगाल की खाड़ी तट पर, पुरी से 35 किमी उत्तर-पूर्व) |
| समर्पित देवता:- | सूर्य देव (हिंदू सूर्य भगवान, वैदिक परंपरा के अनुसार सात घोड़ों वाले रथ पर सवार) |
| निर्माण वर्ष:- | लगभग 1250 ईस्वी (13वीं शताब्दी) |
| निर्माणकर्ता:- | राजा नरसिंह देव प्रथम (पूर्वी गंगा वंश, शासनकाल 1238-1264 ई.) |
| प्रसिद्ध त्यौहार:- | कोणार्क नृत्य महोत्सव, चंद्रभागा मेला |
कोणार्क सूर्य मंदिर का इतिहास
कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण पूर्वी गंगा राजवंश के प्रतापी राजा नरसिंहदेव प्रथम के द्वारा करवाया गया था। ओडिशा के पूर्वी गंग वंश के शासक, राजा नरसिंहदेव प्रथम (1238–1264 ई.) इतिहास के उन गिने-चुने हिंदू राजाओं में से थे जिन्होंने न केवल अपने राज्य की रक्षा की बल्कि आक्रामक रूप से बंगाल के सुल्तानों (विशेषकर तुगरल तुगन खान) पर हमला किया और उन्हें पराजित किया। इतिहासकारों का मानना है कि कोणार्क सूर्य मंदिर का निर्माण इसी महान विजय के स्मारक के रूप में किया गया था।
राजा नरसिंहदेव ने मंदिर के निर्माण के लिए उस स्थान को चुना जहाँ चंद्रभागा नदी बंगाल की खाड़ी में मिलती थी। वर्तमान में समुद्र तट मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर दूर खिसक गया है और चंद्रभागा नदी विलुप्त हो चुकी है, लेकिन 13वीं शताब्दी में यह एक सक्रिय मुहाना था। ‘कोणार्क’ शब्द दो शब्दों से बना है: ‘कोण’ (Corner) और ‘अर्क’ (Surya)। यह भारत के पूर्वी तट का वह ‘कोना’ है जहाँ सूर्य की पहली किरणें भारत भूमि को स्पर्श करती हैं।
पौराणिक कथाएँ और किंवदंतियाँ
इतिहास के ठोस तथ्यों के समानांतर, कोणार्क के साथ जुड़ी किंवदंतियां इसके अस्तित्व को एक आध्यात्मिक और भावनात्मक गहराई प्रदान करती हैं।
सांबा और सूर्य की कृपा (रोग मुक्ति की कथा)
पौराणिक कथाओं और किवदंतियों के अनुसार भगवान कृष्ण के पुत्र सांबा ने ऋषि दुर्वासा का अपमान कर दिया था। दुर्वासा ऋषि अपने गुस्से के लिए जाने जाते थे। उन्होंने सांबा को श्राप दे दिया। जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। कुष्ठ रोग से मुक्ति पाने के लिए, ऋषियों ने सांबा को सूर्य देव की उपासना करने का परामर्श दिया, क्योंकि सूर्य को कुष्ठ-नाशक माना जाता है।
सांबा से जुड़ी एक और रोचक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि सांबा अपने सौंदर्य और रूप पर अत्यधिक अभिमान था। देवर्षि नारद, जो हमेशा अपनी चतुर लीलाओं और प्रेरक तरीकों के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने सांबा का यह घमंड मिटाने का निश्चय किया।नारद ने सांबा को उकसाया कि वे जाकर भगवान कृष्ण की रानियों को उस समय देखें जब वे नदी में स्नान कर रही हो। सांबा, नारद की बातों में बहक गए और उन्होंने वही किया।
जब यह बात भगवान कृष्ण तक पहुँची, तो वे अत्यंत क्रोधित हो उठे। उन्हें यह जानकर गहरा आघात हुआ कि उनका अपना पुत्र ही इतना अनुचित कार्य कर सकता है। क्रोध में तपते हुए कृष्ण ने सांबा को श्राप दे डाला कि उनका वही सुंदर शरीर, जिस पर उन्हें गर्व है, कुष्ठ रोग से ग्रस्त हो जाएगा और धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगा। क्रोध शांत होने पर कृष्ण को एहसास हुआ कि उन्होंने अति कर दी, किंतु दिया हुआ श्राप वे वापस नहीं ले सकते थे। तब उन्होंने सांबा को समाधान बताया कि वह सूर्य देव की तपस्या करे।
श्राप से मुक्ति पाने के लिए, सांबा ने चंद्रभागा नदी के तट पर मैत्रेय वन में 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की। सूर्य देव, जिन्हें रोगों का नाशक (विशेषकर त्वचा रोगों का) माना जाता है, ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें रोगमुक्त किया। रोगमुक्ति के पश्चात, सांबा को चंद्रभागा नदी में स्नान करते समय सूर्य देव की एक प्रतिमा प्राप्त हुई, जिसे उन्होंने वहां एक मंदिर बनाकर स्थापित किया था।
धर्मपद: 12 वर्ष के बालक का बलिदान
कोणार्क के इतिहास का सबसे मार्मिक अध्याय 12 वर्षीय बालक धर्मपद की कथा है, जो ओडिया लोकमानस में गहराई से बसी है। इसे उत्कलमणि गोपबंधु दास ने अपनी प्रसिद्ध कविता “धर्मपद” के माध्यम से अमर कर दिया था।
कथा के अनुसार, मंदिर निर्माण का कार्य मुख्य वास्तुकार बिशु महाराणा के नेतृत्व में चल रहा था। 1,200 कुशल कारीगर 12 वर्षों से दिन-रात काम कर रहे थे। राजा नरसिंहदेव ने आदेश दिया था कि मंदिर का निर्माण एक निश्चित तिथि तक पूर्ण हो जाना चाहिए, अन्यथा सभी 1,200 कारीगरों का सिर काट दिया जाएगा।
जब समय सीमा निकट थी, तब मंदिर का मुख्य कलश या शीर्ष पत्थर स्थिर नहीं हो पा रहा था। हर प्रयास विफल हो रहा था और कारीगरों के प्राण संकट में थे। उसी समय, बिशु महाराणा का 12 वर्षीय पुत्र धर्मपद, जिसे बिशु ने जन्म के बाद कभी नहीं देखा था, अपनी माँ से आज्ञा लेकर पिता को खोजने वहां पहुंचा। जब उसे समस्या का पता चला, तो उसने वास्तुशास्त्र के अपने ज्ञान का उपयोग करते हुए उस शीर्ष पत्थर को सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया।
लेकिन इसके बाद एक नैतिक संकट उत्पन्न हो गया। कारीगरों ने कहा कि यदि राजा को यह पता चला कि एक 12 वर्षीय बालक ने वह काम कर दिखाया जो राज्य के सर्वश्रेष्ठ शिल्पी नहीं कर सके, तो राजा उनकी अकुशलता के लिए उन्हें दंडित करेंगे। अपने पिता और 1,200 कारीगरों (अपने स्वजनों) के जीवन और सम्मान की रक्षा के लिए, धर्मपद ने नवनिर्मित मंदिर के शिखर से चंद्रभागा नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस बलिदान के कारण, यह माना जाता है कि मंदिर अपवित्र हो गया और वहां कभी विधिवत पूजा नहीं हो सकी । यद्यपि इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, लेकिन यह कहानी ओडिया अस्मिता और त्याग का प्रतीक बन गई है।
कोणार्क सूर्य मंदिर की वास्तुकला और संरचना
कोणार्क सूर्य मंदिर कलिंग वास्तुकला का एक अद्वितीय उदाहरण है, जो नागर वास्तुकला (उत्तर भारतीय मंदिर शैली) का एक उप-समूह है। यह पूरा मंदिर सूर्य देव के एक विशाल रथ के रूप में डिज़ाइन किया गया है, जिसे सात घोड़े खींच रहे हैं और जिसमें 24 विशाल पत्थर के पहिए लगे हैं। कोणार्क अपनी कामुक मूर्तियों के लिए भी प्रसिद्ध है, ये मूर्तियाँ मंदिर के बाहरी हिस्सो पर बनी हुई हैं।
मुख्य रूप से तीन प्रकार के पत्थरों खोंडालाइट, क्लोराइट और लैटेराइट का उपयोग करके बनाया गया यह मंदिर मूल रूप से समुद्र के किनारे स्थित था, ताकि उगते सूर्य की पहली किरणें सीधे गर्भगृह में पड़ें।
इस मंदिर के 24 पहिए केवल सजावट नहीं हैं, बल्कि वे एक उन्नत धूपघड़ी के रूप में कार्य करते हैं। प्रत्येक पहिये में 8 मुख्य तीलियाँ हैं, जो दिन के 8 ‘प्रहर’ (3-3 घंटे) को दर्शाती हैं। तीलियों के बीच में लगे 30 मनके (beads) समय को मिनटों में मापने में मदद करते हैं; एक मनका 3 मिनट के बराबर होता है। इस तरह प्राचीन खगोलविदों ने छाया की मदद से समय को सटीक रूप से मापने की व्यवस्था की थी। यह प्रणाली यह सिद्ध करती है कि प्राचीन भारतीय खगोलविद और वास्तुकार न केवल सौर गति से परिचित थे, बल्कि उन्होंने इसे सार्वजनिक वास्तुकला में कार्यात्मक रूप से एकीकृत भी किया था।
कोणार्क की सबसे बड़ी इंजीनियरिंग उपलब्धियों में से एक लोहे के बीमों का उपयोग है। 13वीं सदी में कारीगरों ने पत्थरों को सहारा देने के लिए लोहे के विशाल गर्डरों का इस्तेमाल किया था। आधुनिक शोध बताते हैं कि इन लोहे के बीमों में जंग के प्रति अद्भुत प्रतिरोध क्षमता है, जो उस समय की उन्नत तकनीक को दर्शाती है।
मंदिर की दीवारें उस समय के सामाजिक जीवन, युद्ध और संस्कृति का दर्पण हैं। यहाँ तक कि एक जिराफ की मूर्ति भी उकेरी गई है, जो यह संकेत देती है कि कलिंग (ओडिशा) का अफ्रीका के साथ समुद्री व्यापारिक संबंध था। प्रवेश द्वार पर स्थित ‘गज-सिंह’ की मूर्ति (हाथी के ऊपर शेर) शक्ति और धन के अहंकार के दमन का प्रतीक है। मंदिर के पतन को लेकर कई रहस्य हैं, जिनमें सबसे प्रसिद्ध ‘चुंबकीय शिखर’ की कहानी है।
किंवदंती है कि मंदिर के शीर्ष पर एक विशाल चुंबक था जो जहाजों को अपनी ओर खींच लेता था, जिसे बाद में पुर्तगाली नाविकों ने हटा दिया, जिससे मंदिर का संतुलन बिगड़ गया। हालांकि, कई इतिहासकार इसे नींव के धंसने या आक्रमणकारियों द्वारा किए गए नुकसान का परिणाम मानते हैं।
1903 में, ब्रिटिश शासन के दौरान, जगमोहन को गिरने से बचाने के लिए उसे चारों तरफ से बंद कर दिया गया और अंदर रेत भर दी गई थी, ताकि छत को आंतरिक सहारा मिल सके। यह संरचना को स्थिर रखने का उस समय का सबसे अच्छा उपाय था।
वर्तमान में, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने आधुनिक तकनीक का उपयोग करके इस रेत को सुरक्षित रूप से निकालने और उसके स्थान पर स्टील का ढांचा लगाने की प्रक्रिया शुरू की है, ताकि भविष्य में पर्यटक फिर से इस अद्भुत स्मारक के आंतरिक सौंदर्य को देख सकें।
कोणार्क सूर्य मंदिर तक कैसे पहुँचें?
मंदिर का स्थान: कोणार्क सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी जिले में कोणार्क में, समुद्र तट के पास स्थित है।
मंदिर तक पहुंचने का विकल्प इस प्रकार है:
- हवाई मार्ग: कोणार्क सूर्य मंदिर का सबसे नज़दीकी हवाई अड्डा भुवनेश्वर स्थित बीजू पटनायक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा है, जो लगभग 65 से 70 किलोमीटर दूर है। हवाई अड्डे से आप ऑटो, टैक्सी, बस या अन्य स्थानीय परिवहन का उपयोग करके मंदिर तक पहुँच सकते हैं।
- रेल मार्ग: कोणार्क सूर्य मंदिर का सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन पुरी रेलवे स्टेशन है, जो मंदिर से लगभग 30 से 35 किलोमीटर दूर है। रेलवे स्टेशन से आप ऑटो, टैक्सी या अन्य स्थानीय परिवहन का उपयोग करके मंदिर तक पहुँच सकते हैं।
- सड़क मार्ग: कोणार्क सूर्य मंदिर पूरी से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। पूरी से आप ऑटो, टैक्सी या अन्य स्थानीय परिवहन का उपयोग करके मंदिर तक पहुँच सकते हैं। और यह ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से लगभग 65 से 66 किलोमीटर दूर है।
